भोपाल। मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय में 63वीं शलाका चित्र प्रदर्शनी का आयोजन 30 जुलाई 2025 तक किया जाएगा। इस बार यह प्रदर्शनी भील जनजाति के युवा चित्रकार सुभाष कटारा चित्रों से सजी है। प्रदर्शनी के दौरान उनके द्वारा बनाए गए पारंपरिक भीली चित्रों का न सिर्फ प्रदर्शन किया जा रहा है, बल्कि उनकी बिक्री की भी सुविधा उपलब्ध कराई गई है।
जनजातीय संग्रहालय द्वारा प्रतिमाह किसी एक जनजातीय चित्रकार की प्रदर्शनी ‘शलाका’ के अंतर्गत लगाई जाती है, जिसमें कलाकारों को निःशुल्क मंच दिया जाता है। यह पहल पारंपरिक आदिवासी चित्रकला को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से शुरू की गई है।
भोपाल में पले-बढ़े, झाबुआ से जुड़ी जड़ें
30 वर्षीय सुभाष कटारा का जन्म भोपाल में हुआ। हालांकि उनके पिता रमेश कटारा मूलतः झाबुआ जिले के मेघनगर तहसील के मदरानी भावपुरा गांव से हैं, जो आजीविका की तलाश में राजधानी आए थे। यहीं उन्होंने मानव संग्रहालय, भोपाल में कलाकार के तौर पर अपनी पहचान बनाई। पिता की कला से प्रेरित होकर सुभाष ने भी बचपन से चित्रकला की ओर रुझान दिखाया और अपने पिता के सान्निध्य में पारंपरिक भीली चित्रकला सीखी।
सुभाष कटारा पिछले लगभग दस वर्षों से स्वतंत्र रूप से चित्रकला कर रहे हैं। वर्तमान में वे मानव संग्रहालय में सहायक के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने अपने चित्रों के माध्यम से न केवल भीली परंपरा, रीति-रिवाज, बल्कि वन्य जीवन और जनजातीय सोच को उकेरा है।
'कला ही जीवन है'
सुभाष की चित्रकला की यात्रा केवल व्यक्तिगत नहीं रही। विवाह के बाद उन्होंने अपनी पत्नी धुली कटारा को भी भीली चित्रकला सिखाई। आज उनकी पत्नी भी उनके कार्यों में सहयोग करती हैं। उनके परिवार में चार बच्चे हैं।
उन्होंने कुरुक्षेत्र, बैंगलोर और भोपाल जैसी जगहों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया है। उनके चित्रों में जंगली जानवर, पक्षी और भील समाज के रीति-रिवाजों की झलक विशेष रूप से देखी जा सकती है। सुभाष अपने संपूर्ण कला सफर का श्रेय अपने पिता रमेश कटारा को देते हैं, जिनके मार्गदर्शन ने उनकी कला को दिशा दी।
क्या है भीली चित्रकला?
भीली चित्रकला मध्य भारत की भील जनजाति की पारंपरिक लोककला है, जो प्रकृति, दैनिक जीवन और आदिवासी मान्यताओं को जीवंत रंगों में दर्शाती है। इस चित्रकला की विशेषता इसके बिंदुवार (डॉट्स) चित्रण शैली में है, जिसमें छोटे-छोटे रंग-बिंदुओं से चित्रों को उकेरा जाता है। आमतौर पर ये चित्र दीवारों, कैनवास या कागज़ पर बनाए जाते हैं और इनमें महुए का पेड़, हिरण, पक्षी, सूर्य, चांद, और जनजीवन के दृश्य प्रमुख रूप से नजर आते हैं। यह कला न केवल सजावटी है, बल्कि भील समुदाय की सांस्कृतिक स्मृति और पारंपरिक ज्ञान को भी संरक्षित करती है।