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दलित छात्र — जिसने 25 साल पहले महिला अधिकारों की शुरू की लड़ाई, कुलपति ने छीन लिया क्रेडिट! जानिए डॉ. विक्रम हरिजन की अनकही कहानी

उत्तर प्रदेश/गोरखपुर — सन 2000 में, दीन दयाल उपाध्याय (डीडीयू) गोरखपुर विश्विद्यालय में युवा संसद प्रतियोगिता आयोजित होती है, जिसमें उस समय वहां पढ़ रहे बी.ए. तृतीय वर्ष के दलित छात्र विक्रम हरिजन सत्ता पक्ष के नेता के रूप में चयनित होते हैं. संसद में उन्हें ‘महिला आरक्षण बिल’ पर चर्चा करने के लिए चुना गया था. इस चर्चा में विक्रम, जो अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय (इविवि) में मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, अपने गोरखपुर विश्विद्यालय के सभी फार्मों, आई कार्डों में सिर्फ पिता का नाम शामिल होने और माँ का नाम शामिल न होने का मुद्दा उठाते हैं. उसपर गंभीरता से विश्विद्यालय में सुधार भी किया जाता है. 

लेकिन, कई साल बीतने के बाद जब महिला मुद्दों पर देशभर में बहस होने लगी, तब इस सुधार का क्रेडिट तत्कालीन कुलपति प्रो. राधे मोहन मिश्र उस छात्र विक्रम को न देकर अपने नाम कर लेते हैं, ऐसा आरोप अब प्रोफेसर विक्रम हरिजन लगाते हैं. वह द मूकनायक को कई पेपर के कटिंग भी शेयर करते हैं जिसमें उनके इस सुधारवादी पहल में उनका नाम भुला दिया गया..

लगभग 25 साल पहले, युवा संसद प्रतियोगिता में चयनित विक्रम हरिजन अपने भाषण में अपने ही विश्विद्यालय का पहचान पत्र हाथ में लेकर सभी को दिखते हैं. और कहते हैं कि, “आज हम महिला आरक्षण बिल पर बात कर रहे हैं. लेकिन हमारे ही विश्विद्यालय के आईकार्ड में माँ का नाम शामिल करने का विकल्प नहीं है.” उस समय यह बात खूब चर्चा में रही. सुनने वालों ने इस बात का समर्थन किया कि बिना ऐसे प्रमुख सुधारों को किये महिला अधिकारों पर बात करना बेमानी होगा.

डॉ. विक्रम हरिजन द मूकनायक को बताते हैं कि, चर्चा ख़त्म होने के बाद, तत्कालीन कुलपति प्रो. राधे मोहन मिश्र ने कहा था कि, “विवाह के बाद महिलाओं की जाति बदल दी जाती है. इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता. लेकिन विश्विद्यालय में आज के बाद सभी फार्मों में, पहचान पत्र में माँ का नाम लिखा जाएगा.”

हालांकि कुछ सालों बाद, इस मसले पर अख़बारों से डॉ. विक्रम का नाम गायब होने लगा, उसकी जगह इस सुधार का पूरा क्रेडिट अकेले ततकालीन कुलपति को दिया जाने लगा. इस पर आज भी प्रो. विक्रम आपत्ति जताते हैं, और इसे “डिस्क्रिमिनेशन” बताते हैं.

In the Hindustan newspaper, many years later, the discussion on the women's reservation bill that day was mentioned. But Vikram Harijan's name was missing.
हिंदुस्तान अख़बार में, कई सालों बाद, उस दिन के महिला आरक्षण बिल पर हुई चर्चा का जिक्र किया गया. लेकिन विक्रम हरिजन का नाम गायब था.

डॉ. विक्रम हरिजन आगे बताते हैं कि, “अपने स्वाभाव के हिसाब से उन दिनों वाद-विवाद, भाषण और लेखन प्रतियोगिताओं में खूब भाग लिया करता था. मुझे पता चला कि विश्विद्यालय में युवा संसद प्रतियोगिता आयोजित हो रही है. लेकिन मेरे लिए इसमें शामिल होना टेढ़ी खीर था. कई बार कोशिश करने के बाद प्रो. अंकुर गुप्ता और प्रो. हर्ष सिन्हा की मदद से मैं इस युवा संसद प्रतियोगिता में शामिल हुआ. इसमें मुझे सत्ता पक्ष के नेता के रूप में महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के लिए चुना गया.”

वह याद करते हैं कि, चर्चा में उन्होंने साहिर लुधियानवी के गीत का एक सन्दर्भ दिया था:

मर्दों ने बनाई जो रस्में, उसको हक का फ़रमान कहा

औरत के ज़िन्दा जलने को क़ुरबानी और बलिदान कहा

उस दिन चर्चा में उन्होंने महिलाओं के हक, अधिकारी पर लम्बी चर्चा की. साथ ही यूनिवर्सिटी के शैक्षिक फार्मों में माँ का नाम शामिल न होने पर आपत्ति जताई.  दूसरे दिन की तारीख़ याद करते हुए वह कहते हैं, “दूसरे दिन 11 फरवरी को सभी अख़बारों में यह बात छपी.”

The speech given by Vikram Harijan on the women reservation bill was published in the Dainik Jagran newspaper the next day.
महिला आरक्षण बिल पर विक्रम हरिजन द्वारा दिया गया स्पीच दूसरे दिन दैनिक जागरण अख़बार में छपा छपा था.

डॉ. विक्रम अब खुद को उपेक्षित महसूस करते हुए कहते हैं,  “इस घटना का दोबारा जिक्र तब आया जब मोदी सरकार ने ‘महिला आरक्षण बिल' को संसद में पास किया. इस अवसर पर हिंदुस्तान अख़बार ने इस पर स्टोरी तैयार की. अंकुर सर और डॉ. हर्ष सिन्हा सर की बात भी आई. लेकिन संसद में जो बात मैंने उठाई उसका जिक्र नहीं किया गया. बल्कि कुलपति के हवाले से लिखा गया कि यूनिवर्सिटी के सभी फार्मों में माँ का नाम अंकित होगा. इतना ही नहीं, कुछ लोगों का चित्र भी प्रकाशित किया गया, लेकिन मेरा नाम मात्र का जिक्र था कि विक्रम हरिजन, आज इलाहबाद विश्विद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.”

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