नई दिल्ली- 11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले की 198वीं जयंती के मौके पर देश एक बार फिर उनके क्रांतिकारी योगदान को याद करने की तैयारी में है। इस मौके पर फुले और डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर—जिन्हें प्यार से बाबासाहब कहते हैं—के बीच गहरा रिश्ता चर्चा में है। दोनों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी और समाज के दबे-कुचले वर्गों को ऊपर उठाने का सपना देखा। बाबासाहेब ने गौतम बुद्ध और कबीर के साथ ज्योतिबा फुले को अपना तीन गुरु माना।
28 अक्टूबर 1954 में मुंबई के पुरंदरे स्टेडियम में अपने भाषण में बाबा साहब ने कहा था, "मेरे तीन गुरु हैं। हर किसी के पास एक गुरु होता है, इसलिए मैं भी। मैं साधु या वैरागी नहीं हूं, लेकिन मेरे पहले और सबसे बड़े गुरु बुद्ध हैं ... मुझे विश्वास है कि केवल बौद्ध धर्म ही दुनिया का कल्याण कर सकता है। दूसरे गुरु कबीर हैं..मेरे पिता कबीरपंथी थे। इसलिए कबीर के जीवन और सिद्धांतों का मुझ पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। मेरी राय के अनुसार, कबीरा को बुद्ध के दर्शन का असली रहस्य पता था ... महार, मांग, चाबर सिखाया और फुले ने सिखाया मानवता का पाठ। ये मेरे तीन गुरु हैं। उनकी शिक्षाओं ने ही मेरा जीवन बनाया है।"
आइए जानते हैं कि बाबासाहेब ने ज्योतिबा फुले के बारे में क्या कहा और इन दो महान सुधारकों में क्या समानता है।
ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 में महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था। उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी और शिक्षा को हथियार बनाकर समाज को बदला। अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ 1848 में उन्होंने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। 1873 में सत्यशोधक समाज बनाकर उन्होंने जाति और धर्म के बंधनों को तोड़ने की मुहिम शुरू की। उनकी किताब गुलामगिरी ने लोगों को झकझोरा। दूसरी ओर, 1891 में मध्य प्रदेश के महू में जन्मे बाबासाहेब ने फुले के इन विचारों को आगे बढ़ाया। संविधान निर्माता बनकर उन्होंने दलितों और शोषितों के लिए कानूनी हक दिलाए।
दोनों ने वेदों और पुराणों को ऊंची जातियों का हथियार माना। फुले ने सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक में एक ऐसे धर्म की बात की जो सबके लिए बराबरी लाए। बाबासाहब ने भी 1956 में बौद्ध धर्म अपनाकर यही संदेश दिया। 1848 में, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने पुणे में भारत का पहला महिला विद्यालय खोला, जो कि उस समय महिलाओं के लिए शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम था. दूसरी तरफ —“शिक्षित करो, जागृत करो, संगठित करो”— यह नारा बाबासाहेब के जीवन का मूल मंत्र था।
बाबासाहब ने 27 सितंबर 1932 को पूना पैक्ट पर दस्तखत के बाद कहा, “मैं महात्मा फुले को श्रद्धांजलि देता हूं, जिनके समाज के खिलाफ संघर्ष ने हमें न्याय की इस लड़ाई के लिए प्रेरित किया।” यह समझौता दलितों के लिए राजनीतिक हक का बड़ा कदम था, और बाबासाहेब ने इसमें फुले की प्रेरणा को याद किया।
1940 में मुंबई में सत्यशोधक समाज के एक कार्यक्रम में बाबासाहब ने कहा, “ज्योतिबा फुले पहले भारतीय थे जिन्होंने शूद्रों और अति-शूद्रों की गुलामी के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी कलम अन्याय के खिलाफ तलवार थी, और उनका जीवन साहस की मिसाल।” उन्होंने फुले को वह शख्स बताया जिसने दबे-कुचले लोगों को जागने का रास्ता दिखाया।
अपनी किताब Who were the Shudras? (1946) की प्रस्तावना में बाबासाहब ने लिखा, “महात्मा फुले की गुलामगिरी ने मेरी आंखें खोलीं कि जाति व्यवस्था एक ऐतिहासिक धोखा है। उन्होंने हमें सिखाया कि शूद्र सेवा के लिए नहीं पैदा हुए, बल्कि उन्हें झूठे मिथकों से गुलाम बनाया गया।” फुले का यह विचार बाबासाहेब के लिए बहुत अहम था।
1927 में महाड सत्याग्रह के दौरान, जब दलितों ने चावदार तालाब से पानी पीने का हक मांगा, बाबासाहब ने कहा, “महात्मा फुले ने हमें जाति की जंजीरें तोड़ने का रास्ता दिखाया। आज हम उस रास्ते पर चल रहे हैं।” 1954 में पुणे में फुले के घर जाकर उन्होंने कहा, “यहीं से हमारी आजादी का बीज बोया गया।” 1956 में अपने आखिरी दिनों में एक रेडियो संदेश में बाबासाहेब बोले, “महात्मा फुले तर्क और इंसानी सम्मान के पहले सिपाही थे। उनके बिना हमारी लड़ाई अधूरी होती।”
ज्योतिबा फुले की 'गुलामगिरी' में ब्राह्मणों के प्रभुत्व और शूद्रों के शोषण पर सवाल उठाने को बाबासाहेब ने सराहा, और बाद में उन्होंने भी 'रिडल्स इन हिंदुइज्म' और 'हु वर द शूद्राज?' में इसी तरह के विचार व्यक्त किए, जिसमें शूद्रों को पहले क्षत्रिय बताया गया.
फुले का मानना था कि ब्राह्मण बाहरी आर्य आक्रमणकारियों के वंशज थे, जिन्होंने स्थानीय लोगों को दबाया। बाबासाहेब ने हू वर द शूद्राज? में इसे आगे बढ़ाया और कहा कि शूद्र पहले क्षत्रिय थे, जिन्हें ब्राह्मणों ने नीचे धकेला।
फुले का सत्यशोधक समाज बाबासाहेब के संगठनों का आधार बना। दोनों ने आम लोगों की भाषा में बात की—फुले ने पोवाडा लिखा, तो बाबासाहेब ने सादे शब्दों में किताबें और भाषण दिए। 1868 में फुले ने अपने कुएं को अछूतों के लिए खोला, और 1927 में बाबासाहेब ने महाड में पानी का हक लिया—दोनों की सोच एक थी।
फुले ने जो चिंगारी जलाई, उसे बाबासाहेब ने संविधान की मशाल बनाया। विद्वानों का कहना है कि फुले ने जमीन तैयार की, और बाबासाहेब ने उस पर हक का महल खड़ा किया।
बाबासाहेब ने फुले को न सिर्फ अपना गुरु माना, बल्कि उनकी सोच को हर कदम पर जिया। जैसे उन्होंने कहा, “फुले के बिना हमारी लड़ाई अंधेरे में होती।” इस जयंती पर यह रिश्ता हमें याद दिलाता है कि बराबरी का सपना इन दो महान आत्माओं की देन है, जो आज भी हमें रास्ता दिखाता है।