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"नायक-नायिकाएं गढ़े नहीं, इतिहास में खोजे जाते हैं" — भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख को 'काल्पनिक किरदार' कहने पर बहुजन समुदाय का पलटवार!

नई दिल्ली- भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका और बहुजन शिक्षा आंदोलन की अहम हस्ती फातिमा शेख की 194वी जयंती के दिन यानी 9 जनवरी को उनके अस्तित्व को लेकर ही एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। भारत सरकार के मीडिया सलाहकार और बहुजन चिंतक के रूप में पहचान रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रो. दिलीप मंडल ने ट्वीट कर दावा किया कि फातिमा शेख कभी अस्तित्व में नहीं थीं, यह किरदार उन्होंने खुद गढ़ा हुआ है और 2006 से पहले इसका कोई उल्लेख नहीं है।

प्रो मंडल ने विषय पर अपने सिलसिलेवार ट्वीटस में लिखा, " फ़ातिमा शेख के टीचर होने का कोई प्रमाण नहीं है। न था, न है। वह कोई हज़ार साल पहले की बात तो है नहीं। डेढ़ सौ साल पहले इतनी महान महिला, वह भी मुस्लिम समाज में, जिनकी साक्षरता आज भी भारत में सबसे कम है, अगर वह होती तो सर सैय्यद अहमद से ज़्यादा उनके बारे में लिखा गया होता।"

फ़ातिमा शेख को लेकर विवादित दावा

प्रो. मंडल ने ट्वीट किया:

“फातिमा शेख कभी अस्तित्व में नहीं थीं। यह नाम मैंने एक खास समय में गढ़ा था। न सावित्रीबाई फुले, न ज्योतिराव फुले, न बाबासाहेब अंबेडकर, किसी ने भी फातिमा शेख का जिक्र नहीं किया। यह बस एक कल्पना थी, जो मैंने बनाई।”

इस बयान ने बहुजन और मुस्लिम समुदायों में गुस्से की लहर पैदा कर दी है। एक्टिविस्ट और इतिहासकार इसे बहुजन आंदोलन और मुस्लिम योगदान को मिटाने की साजिश के रूप में देख रहे हैं। गौरतलब है कि प्रो मंडल ने फातिमा नामक पात्र को स्वय गढ़ना बताया.

एक पोस्ट में उन्होंने लिखा, " मुझे माफ़ कीजिए। दरअसल फ़ातिमा शेख कोई थी ही नहीं। यह ऐतिहासिक चरित्र नहीं है। ये मेरी निर्मिती है। मेरा कारनामा। ये मेरा अपराध या गलती है कि मैंने एक ख़ास दौर में शून्य से यानी हवा से इस नाम को खड़ा किया था। इसके लिए किसी को कोसना है तो मुझे कोसिए। आंबेडकरवादी वर्षों से इस बात के लिए मुझसे नाराज़ हैं। माननीय अनिता भारती से लेकर डॉक्टर अरविंद कुमार खुलकर मेरे प्रति नाराज़गी जता चुके हैं। मत पूछिए कि मैंने ये क्यों किया था। वक्त वक्त की बात है। एक मूर्ति गढ़नी थी सो मैंने गढ़ डाली। हज़ारों लोग गवाह हैं। ज़्यादातर लोगों में ये नाम पहली बार मुझसे जाना है। मैं जानता हूँ कि यह कैसे करते हैं, छवि कैसे बनाते हैं। मैं इसी विधा का मास्टर हूँ तो मेरे लिए मुश्किल भी नहीं था। मैं मूर्तियाँ बनाता हूँ। मेरा काम है।"

प्रो मंडल के इस पोस्ट के बाद द प्रिंट ने 9 जनवरी 2019 में फातिमा शेख पर लिखे उनके लेख Why Indian history has forgotten Fatima Sheikh but remembers Savitribai Phule को withdraw कर लिया. प्रकाशन ने लिखा- " दिलीप मंडल द्वारा एक्स पर किया पोस्ट जिसमें उन्होंने दावा किया कि उन्होंने फातिमा शेख नामक एक "ऐतिहासिक" व्यक्तित्व का निर्माण किया, को द प्रिंट ने संज्ञान में लिया है। हम इस मामले की जांच करते हुए इस लेख को वापस ले रहे हैं।"

बहुजन समुदाय का गुस्सा

प्रो. मंडल के इस दावे से बहुजन कार्यकर्ताओं और लेखकों में भारी नाराजगी है। पत्रकार श्याम मीरा सिंह ने लिखा, " आप कह रहे हो “2006 से पहले फ़ातिमा शेख़ का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था। उन्हें आपने काल्पनिक रूप से गढ़ा। कोई किताब दिखा दो।” मैं आपको 1991 की किताब दिखा रहा हूँ। इसमें स्पष्ट लिखा है कि फ़ातिमा शेख़ सावित्री बाई फूले जी की सहयोगी थीं।"

प्रो मंडल को लिखे जवाबी पोस्ट में एक व्यक्ति ने प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग से 1986 में छपी किताब “क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले” के कुछ पेज पोस्ट किये और लिखा कि " झूठ बोलने में शर्म तो क्या ही आएगी".

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग से 1986 में छपी किताब “क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले” में फातिमा शेख की तस्वीर

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर और दलित फेमिनिज्म पर लिखने वाली लेखिका प्रियंका सोनकर ने इस विषय पर द मूकनायक से बात करते हुए कहा कि एतिहासिक कार्य करने वाले नायक नायिकाओ को गढ़ा नहीं जाता है, उन्हें खोजा जाता है. प्रियंका का कहना है कि प्रो मंडल पहले बहुत बेहतरीन काम करते थे लेकिन भारत सरकार से जुड़ने के बाद वे अपना पक्ष बदल चुके हैं. " फातिमा शेख को काल्पनिक किरदार कहने का काम तो मोदी जी या कोई भाजपा नेता कर सकता है लेकिन ये बात एक बहुजन से कहलवाकर वे समुदाय को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं" वे आगे बताती हैं कि फातिमा का अस्तित्व था लेकिन ये सत्य है कि उन्हें माँ सावित्री बाई फुले जितनी पहचान नहीं मिली.

फातिमा शेख पर वरिष्ठ लेखक मोहनदास नैमिशराय द्वारा लिखित पुस्तक का कवर पेज

सोनकर ने बताया कि हाल ही उन्होने वरिष्ठ लेखक मोहनदास नैमिशराय द्वारा लिखित पुस्तक खरीदी है जिसे सम्यक प्रकाशन ने पब्लिश किया है, " भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका- क्रांतिकारी फातिमा शेख " शीर्षक यह पुस्तक तथागत बुद्ध से प्रेरित होकर अशिक्षित महिलाओ में शिक्षा की अलख जगाने वाली नायिकाओ को समर्पित है.

लेखिका सुजाता ने x पर एक पोस्ट में लिखा, " दिलीप मंडल को कोई एहसास-ए-कमतरी ज़रूर है तभी इसे बताना होता है कि दुनिया मूर्ख है और यह इतना विद्वान और महान है कि फ़ातिमा शेख़ जैसा काल्पनिक चरित्र इसने गढ़ा जिसका 2006 से पहले कोई ज़िक्र भी नहीं था."

शिक्षाविद और इंटरफैथ स्कॉलर Dr Obed Manwatker ने द मूकनायक से बात करते हुए कहा, " जो एक जमाने में फ़ातिमा शेख़ के गुणगान गाया करते थे वही उसे काल्पनिक कह रहे है। सोशल मीडिया लेखकों में से फातिमा शेख़ को काल्पनिक चरित्र लिखने वाले में से एक भी व्यक्ति कि पृष्ठभूमि महाराष्ट्र नहीं है, नाही महाराष्ट्र के सांस्कृतिक, सामाजशास्त्र, इतिहास पर कोई ठोस संशोधन किए है। वो लिखते है क्योंकि उनकी पोस्ट वायरल हो ताकि उन्हें पब्लिसिटी मिलती रहे और सोशल मीडिया में उनका डंका बजता रहे। फ़ातिमा शेख़ पर किताब है, सावित्रीबाई के पत्रव्यवहार में उनका नाम है। वो कोई काल्पनिक पात्र नहीं है। इतना ही कह सकते है इस विषय में। १७००-१८०० शताब्दी का कोई ख़ास इतिहासकार अगर कोई टिप्पणी करता है तो बहस करने में मजा है। किसी सोशल मीडिया की पोस्ट पर बहस करके अपना वक्त बर्बाद नहीं करूँगा। "

दलित लेखिका और प्रो हेमलता महिश्वर ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मजाकिया अंदाज में लिखा, " सावित्री बाई फुले ने जोतिराव फुले को चिट्ठी में लिखा था कि उनकी अनुपस्थिति में फ़ातिमा को कष्ट तो होगा। Dilip C Mandal जी के सुझाव पर सावित्रीबाई फुले ने उक्त पत्र लिखा था।फेंकने की भी कोई हद होती है।"

ओबीसी और मुसलमान का नेशनल अलायंस ब्रेक करने का प्रयास?

भारत आदिवासी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और डीयू में इतिहास विभाग के प्रोफेसर जितेंद्र मीणा ने द मूकनायक से चर्चा में कहा, " `इतिहास में जितने भी वाक्यात हुए हैं जरूरी नहीं कि सब दर्ज किये गए हो, जैसे अगर ट्राइबल हिस्ट्री को ही देखा जाए कोलोनियल इरा से पहले इसपर documentation नहीं के बराबर है, इसका ये अर्थ नहीं है कि ट्राइबल कॉन्ट्रिब्यूशन ही नहीं है. हमारे देश में इतिहास लेखन की परम्परा नयी है और उससे पहले मौखिक यानी ओरल ट्रेडिशन पर ही निर्भर था. इतिहास लिखने की परम्परा अंग्रेजी हुकूमत के काल से ही शुरू हुई और उससे पहले जो लिखा जा रहा था वो रूलिंग क्लास (शासक) के बारे में था." मीणा कहते हैं, " इतिहास में किसी केरेक्टर को गढा नहीं जाता है, इतिहासकार के पास कुछ जानकारी/फैक्ट्स होती हैं जिससे नायक नायिकाओं के बारे में पता चलता है. इसलिए ये दावा करना सही नहीं है. चूंकि प्रो मंडल जी आजकल संघ के खेमे में हैं , उन्हें आपत्ति फातिमा शेख के नाम से है क्योंकि वे एक मुसलमान हैं और सावित्री बाई फुले ओबीसी तबके से आती हैं- एक नेशनल अलायंस बनता है ओबीसी और मुसलमान का , उसे तोड़ने का प्रयास वो कर रहे हैं. ये ऐसे लोग हैं जो इतिहास का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए अपने हिसाब से करते हैं."

मीणा आगे कहते हैंकि इस प्रकार फातिमा का किरदार काल्पनिक कहकर उनका character assassination करने या defame करने से फातिमा का योगदान या महत्व कम नहीं होगा." उन्होंने आगे कहा कि इस घटना से केवल मुसलमान वर्ग के प्रति नफरत को आगे बढाने का काम ही नहीं किया जा रहा है, ये दोनों तरफ से नफरत बढ़ाने का प्रयास है- मंडल जिस तरह से अपने आप को ओबीसी intellectual के रूप में स्थापित कर रहे हैं , वो मुसलमानों के दिलों में भी ओबीसी के प्रति नफरत पैदा कर रहे हैं. वे खुद को विलेन नहीं बना रहे बल्कि ओबीसी के जेहन में मुसलमान को और मुसलमानों के जेहन में ओबीसी को विलेन बना रहे हैं जो पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है. डॉ मीणा कहते हैं कि भाजपा का मुसलमानों के खिलाफ नैरेटिव बनाना का सिलसिला नया नहीं है, बहुत पुराना है. " मीडिया का अल्गोरिथम उन्हें समझ आता है जैसे हिटलर के समय में उसके अत्याचारों को भी एक बड़े पिक्चर में जस्टिफाई करने का प्रयास किया गया, वर्तमान में भारत में भी यही हो रहा है"

बाबा साहेब नेशनल एसोसिएशन ऑफ इंजीनियर्स (BANAE) के अध्यक्ष नागसेन सोनारे ने फातिमा शेख को देश की पहली मुस्लिम महिला टीचर के रूप में योगदान को सराहा और इस प्रकार के विवाद को बहुजनों के मूल मुद्दे से भटकाने की कोशिश बताया।

तमिल नाडू की दलित लेखिका शालिन मारिया लॉरेंस ने इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताते हुए इसे महिला के योगदान को इतिहास से मिटाने का प्रयास बताया।

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