भोपाल/पन्ना। मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में आदिवासी बच्चों के सिर पर लकड़ी का बोझ उनके मासूम बचपन को ही नहीं, बल्कि उनके भविष्य और संवैधानिक अधिकारों को भी दबा रहा है। यहाँ के आदिवासी बच्चे, जिनकी उम्र महज 8 से 12 साल के बीच है, रोज़ाना 5 से 7 किलोमीटर की दूरी तय कर जंगल से लकड़ी बीनकर शहर में बेचते हैं, ताकि अपने परिवार की मूलभूत जरूरतें पूरी कर सकें। आदिवासी बच्चे, जो खेलने-कूदने और स्कूल जाने की उम्र में हैं, उनके नन्हें कंधों पर लकड़ी का भारी बोझ लदा है। मासूम चेहरे पर जिम्मेदारियों की लकीरें साफ दिखाई देती हैं।
जंगल की पगडंडियों पर नंगे पाँव चलने वाले ये बच्चे, शिक्षा और बचपन की खुशी से दूर, अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पढ़िए पन्ना जिले के आदिवासी बच्चों के जीवन पर पड़ताल करती द मूकनायक की ग्राउंड रिपोर्ट-
भारत के संविधान का अनुच्छेद 21A बच्चों को 6 से 14 साल की उम्र तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। इसके साथ ही अनुच्छेद 24 के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से खतरनाक और कठिन कार्यों में संलिप्त होने पर रोक लगाई गई है। लेकिन पन्ना के इन आदिवासी बच्चों की हालत यह सवाल खड़ा करती है कि क्या ये संवैधानिक अधिकार महज कागजों तक सीमित रह गए हैं?

पन्ना के आदिवासी इलाकों में छोटे-छोटे बच्चे, जो स्कूल में शिक्षा पाने के हकदार हैं, वे लकड़ी का बोझ उठाने को मजबूर हैं। यहां के आदिवासी बच्चों की दिनचर्या हर सुबह सूरज के साथ शुरू होती है। नंगे पांव, बिना चप्पल के, ये बच्चे अपने गाँव से शहर की ओर बढ़ते हैं। लकड़ी का भारी ढेर उनके सिर पर होता है, और उनके चेहरे पर संघर्ष की साफ झलक दिखती है।
द मूकनायक की टीम ने इन बच्चों से मुलाकात की। 8 साल की एक आदिवासी बच्ची जो पन्ना से 7 किलोमीटर दूर माझा लालिया गाँव की रहने वाली है। उसने ने कहा, "हम हर दूसरे-तीसरे दिन जंगल से लकड़ी लाकर शहर में बेचते हैं। पिताजी मजदूरी करते हैं, पर रोज़ काम नहीं मिलता। लकड़ी बेचकर ही हम घर का राशन ला पाते हैं।"
उसकी आँखों में थकावट और निराशा की गहरी छाया थी, जो उसके अधिकारों के हनन की गवाही दे रही थी। आदिवासी बच्ची ने हमें उस इलाके की आम बोलचाल (भाषा) में कहा, "टेम हो रओ, हमें जान देओ, सौदा लेके जाने हैं घरे, नईतर रोटी केसें बनें।"

ऐसे ही एक और आदिवासी बच्चे से हमने बातचीत की। बच्चे की उम्र 10 से 12 वर्ष के बीच होगी। पर उसकी बातों में एक युवा लड़के की जैसे बात झलक रही थी। द मूकनायक से उस आदिवासी बच्चे ने कहा, मेरे घर का छप्पर बारिश से टूट गया है। बारिश का पानी घर में आरहा है। उसे ठीक कराना है। नई तिरपाल (प्लास्टिक) लेनी है।
हमारे सवाल के जवाब में उस आदिवासी बच्चे ने बताया कि वह चार भाई बहन है। वह घर में सबसे बड़ा है। उसके पिता पहले पत्थर तोड़ने का काम करते थे। अब वह मजदूरी करने पन्ना आते हैं। जो काम मिल जाए कर लेते हैं। उसने बुंदेलखंडी में कहा, "गाँव मं खेले-कूदे से बढ़िया है, मैं लकड़ियाँ बेच के कछु पैसे कमा लउँ।" [गाँव में खेलने-कूदने से अच्छा है। मैं लकड़ियां बेचकर कुछ पैसे इक्कठा करूँ।]
पन्ना जिले के आसपास स्थित खजूरी कुलार, टपरियन, और जनवार जैसे गाँवों में रहने वाले आदिवासी बच्चों की आजीविका का एक महत्वपूर्ण साधन लकड़ी बेचना है। ये बच्चे आसपास के जंगलों से लकड़ियां इकट्ठा करके उन्हें शहरों में बेचने के लिए आते हैं। इन गांवों की कठिन भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण शिक्षा और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, जिससे इन बच्चों का बचपन भी संघर्षमय हो जाता है। लकड़ी बेचने जैसे काम उनके परिवारों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का एकमात्र विकल्प बन जाता है।
स्थानीय नागरिक सचिन अग्रवाल जो पन्ना शहर में एक हॉटेल संचालक है, उन्होंने द मूकनायक को बताया, "यह बच्चे हर रोज़ शहर में आते हैं और लकड़ी बेचते हैं। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। बेरोजगारी और गरीबी के कारण ये बच्चे अपने परिवारों की मदद करने के लिए यह काम करने को मजबूर हैं।" उनके इस बयान से यह साफ है कि सरकार की योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन इन क्षेत्रों में बेहद कमजोर है।
प्रशासन की बेरुखी!
देशभर में 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और 'सर्व शिक्षा अभियान' जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं, लेकिन पन्ना के आदिवासी बच्चों पर इनका कोई खास असर नहीं दिखता! इन बच्चों के नाम स्कूलों में तो दर्ज हैं, लेकिन पढ़ाई और शिक्षा उनकी पहुँच से दूर है। गरीब आदिवासी परिवारों के लिए बच्चों की पढ़ाई से ज्यादा जरूरी उनकी आजीविका है। इसी मजबूरी में ये बच्चे बचपन में ही जीवन का कठिन संघर्ष झेलने को विवश हैं। संविधान के अनुच्छेद 46 के तहत राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक और शैक्षिक हितों की विशेष देखरेख करनी चाहिए, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे कोसों दूर है।
हमने इस संबंध में पन्ना के महिला बाल विकास अधिकारी ऊदल सिंह से बातचीत की, उन्होंने कहा, "हमें इस समस्या की जानकारी नहीं थी। आपके द्वारा यह मामला संज्ञान में आया है, हम इसे गंभीरता से लेंगे और जल्द ही जाँच टीम भेजेंगे।" यह स्थिति इस बात का सबूत है कि स्थानीय अधिकारी संवैधानिक मूल्यों और जिम्मेदारियों से कितने दूर हैं। उन्हें ज़मीनी हकीकत की जानकारी ही नहीं है, जो इस क्षेत्र में संवैधानिक अधिकारों के क्रियान्वयन की कमी और आदिवासी बच्चों के जीवन पर पड़ रहे प्रतिकूल असर को उजागर करती है।
पन्ना के स्थानीय पत्रकार अजीत खरे ने कहा, "यहाँ आदिवासी बच्चों की हालत बहुत दयनीय है। सरकारी योजनाएँ कागज़ों पर हैं, लेकिन ज़मीन पर उनका कोई असर नहीं दिखता। ये बच्चे शिक्षा से वंचित हैं और उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। इन बच्चों के स्कूलों में नाम तो दर्ज हैं, लेकिन हालात यही है जो आप देख रहे हैं।"
सरकार और समाज की जिम्मेदारी
संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है, लेकिन पन्ना के इन आदिवासी बच्चों के लिए यह समानता केवल शब्दों तक सीमित है। शिक्षा और जीवन के बेहतर अवसर देने के लिए सरकार को गंभीरता से काम करना था, मगर यहां प्रशासन की बेरूखी साफ देखी जा सकती है।
इन आदिवासी बच्चों को न केवल शिक्षा की, बल्कि एक सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन की आवश्यकता है, जैसा कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को जीने का अधिकार प्रदान किया गया है। उनके हाथों में लकड़ी की जगह कलम होनी चाहिए, और उनके चेहरों पर संघर्ष की जगह मुस्कान।
पन्ना के आदिवासी बच्चों का संघर्ष यह दर्शाता है कि संविधान में निहित अधिकार और वास्तविकता के बीच एक गहरी खाई है। जब तक सरकार और समाज मिलकर इन बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम नहीं करेंगे, तब तक यह खाई भर नहीं पाएगी।
नोट: सभी आदिवासी बच्चे नाबालिग हैं, इसलिए उनकी पहचान उजागर नहीं की जा सकती। उक्त समाचार में ऐसे फोटो उपयोग किए गए हैं, जिनसे बच्चों की पहचान उजागर न हो।