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फ़िल्म 'फुले': संविधान निर्माता, युगनायक डॉ.आंबेडकर ने यूं ही नहीं ज्योतिबा को माना अपना तीसरा गुरु !

मुंबई- अपनी व्यस्ततम ज़िन्दगी के बावजूद हमने हाल ही में महात्मा ज्योतिराव तथा सावित्रीमाई के अथक संघर्ष की दास्तां, फ़िल्म 'फुले' देखीं।

भारतीय समाज में सदियों से अभिशाप बन चुकी अमानवीय जाति व्यवस्था, छुआछूत, रूढ़िवादिता, वर्ण वर्चस्ववाद, पाखंड, पुरुषप्रधान मानसिकता तथा नारी उत्पीड़न इन सामाजिक विषयों का गंभीर चित्रण इस फिल्म में बख़ूबी किया गया है। समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव के खिलाफ सर्वप्रथम मशाल जलाने वाले ज्योतिराव फुले जी का दृढ़संकल्प तथा उनके कंधे से कंधा मिलाकर मजबूती से जीवनभर साथ देने वाली उनकी अडिग, सहिष्णु तथा ममतामयी हमसफर सावित्रीमाई के चरित्र को फ़िल्म के निर्देशक अनंत महादेवन ने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से पेश किया है। फुले दंपत्ति का एक दूजे के लिए त्याग, समर्पण तथा परस्पर विश्वास अनुकरणीय बन पड़ता है।

यह फिल्म भारतीय समाज के दबे कुचले लोगों के उत्थान, लड़कियों की शिक्षा के अलावा विधवा पुनर्वास, अकाल और प्लेग पीड़ितों की मदद जैसे उनके प्रयासों और संघर्षों को भी प्रमुखता से दिखाती है। फ्रांस की राज्यक्रांति से प्रभावित ज्योतिबा लड़कियों तथा अछूतों की शिक्षा के लिए अपना सारा जीवन अर्पण कर देते है। नारी स्वतंत्रता के मूर्तिमंत द्योतक ज्योतिबा ने सावित्रीमाई को शिक्षा का पहला पाठ पढ़ाकर भारत में स्त्री-पुरुष समानता की ऐतिहासिक नींव रखीं।

फिल्म में दिखाया गया है कि सदियों से हाशिए पर रखे गए लोगों को कुएं से पानी निकालने के लिए पीटा गया, तो ज्योतिराव ने अपने घर में ही उनके लिए एक कुआं बना दिया। जान देने को विवश एक असहाय विधवा के बच्चे को अपनाकर उसे अपना नाम दिया (यशवंत)। भारत में आज भी मन्दिर प्रवेश करने पर, तालाब, कुआं, घड़े से पानी लेने पर, घोड़ी चढ़ने पर, गरबे में साथ नाचने पर, मूछें रखने पर, जय भीम बोलने पर, उनका गाना बजाने पर, जयंती मनाने पर शोषितों, वंचितों के साथ अनगिनत अत्याचार हो रहें हैं, जो एक गहरी चिंता का विषय है।

मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि भेदभाव चाहे कोई भी हो, कैसा भी हो, घोर असभ्यता की निशानी है। किसी भी सभ्य समाज में इन मानवनिर्मित अनैतिक कुरीतियों को कोई स्थान नहीं मिल सकता। आज हम इक्कीसवीं सदी की एक चौथाई पार कर चुके है, फिर भी जाति, धर्म, लिंग, भाषा, जन्म आदि के ज़ाहिल उधेड़बुन में फंसे हुए हैं। जैसे जैसे समय का चक्र आगे बढ़ रहा है, वैसे वैसे हम दिन-ब-दिन और भी दकियानूसी, संकीर्ण और धर्मांध बनते जा रहें हैं। कल्पना कीजिए उन्नीसवीं सदी में फुले दंपत्ति ने कितनी कठिन परिस्थितियों का सामना किया होगा! उन्होंने लाठियाँ खाई, पल पल अपमान सहे, पर अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुएं।

फ़िल्म में दिखाया गया है कि आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले फुले जोड़े को ना सिर्फ उच्च वर्ण के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा, बल्कि सामाजिक और धार्मिक दबावों के चलते उनके अपने सगे संबंधियों ने भी उनका साथ नहीं दिया। इसी सामाजिक वास्तविकता के मद्देनजर महात्मा ज्योतिराव ने 'सत्यशोधक' समाज की नींव रखी थी, जहां सब बराबर हों, सभी को समान अधिकार हो। उनकी कालजयी रचना 'गुलामगिरी' को कोई कैसे भूल सकता है??

A scene from the film Phule
फुले फिल्म का एक दृश्य

फ़िल्म का दिलचस्प पहलू यह भी है कि फुले दंपत्ति को उनकी इस चुनौतीपूर्ण मुहिम में मदद करने एक मुस्लिम परिवार सामने आया। उनके दोस्त उस्मान शेख और उनकी बहन फातिमा ने संकट काल में उनका बराबर साथ दिया। सावित्रीमाई और फ़ातिमा की मैत्री एक नायाब उदाहरण स्थापित करती हैं।

भारत देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीमाई को स्कूल जाते समय प्रतिगामी शक्तियों द्वारा किए गए गोबर के वर्षा से अपमानित करने वाला प्रसंग झकझोर कर रख देता है। और इसी घटना से आहत, पर अविचलित, सावित्रीमाई की ज्योतिराव द्वारा हौसला अफज़ाई का दृश्य भी मन को छूं जाता है। स्त्री शिक्षा के उनके मिशन में रोड़ा बनकर धमकाने वाले एक अहंकारी धर्मांध को सावित्रीमाई द्वारा एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद करना कर्तव्य के प्रति उनकी गहरी संवेदना, लगन, निष्ठा तथा साहस को दर्शाता है। दर्शक इस सीन पर तालियां बजाने लग जाते हैं।

भारत देश की आज के समय की तथा आने वाली पीढ़ियों की सभी महिलाओं को सावित्रीमाई तथा फ़ातिमा के सामने नतमस्तक होकर उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने अपार कष्ट सहकर तथा अपमान के अनगिनत घूंट पीकर उनके लिए शिक्षा के द्वार खोलें। अभी तक कितनी लड़कियों ने या महिलाओं ने इस फिल्म को देखा है??

संविधान निर्माता, युगनायक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने यूं ही नहीं ज्योतिबा को अपना तीसरा गुरु माना!

विडंबना देखिए, समस्त भारतीय नारियों के सर्वांगीण उत्थान का प्रतीक बन चुके 'हिन्दू कोड बिल' का विरोध करने के लिए मनुवादी व्यवस्था ने नारियों को ही आगे किया था और जब 'फुले' फ़िल्म में समाज की कटु ही सही, पर वास्तविकता दिखाई जा रही थी तब भी सेंसर बोर्ड को प्रभावित करने हेतु नारियों को ही आगे किया गया। दु:ख तो इस बात का है कि 'द केरल स्टोरी' या 'द कश्मीर फाइल्स' या 'छांवा' के कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण पर सेंसर बोर्ड की कैची नहीं चलती है।

फ़िल्म 'फुले' ज्योतिबा तथा उनकी संगिनी सावित्रीमाई के जीवन, विचारों, उनके मानवता से ओतप्रोत महान कार्यों, उनके अदम्य साहस तथा बलिदान का वह क्रांति गीत है जिसे रुपहले पर्दे पर लाने के लिए या यूं कहें, मेनस्ट्रीम सिनेमा में लाने के लिए निश्चित रूप से निर्माता तथा निर्देशक दोनों प्रशंसा के पात्र हैं। फ़िल्म में ज्योतिबा (प्रतीक गांधी), सावित्रीमाई (पत्रलेखा), तथा फ़ातिमा और उस्मानभाई की भूमिका बेहतरीन बन पड़ती हैं। बाकी सभी कलाकारों ने अपने अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया है।

खैर, भारत देश में व्याप्त असमानता के खिलाफ़ फुले दंपत्ति के कार्य असाधारण हैं। उनका जीवन हम सबके लिए एक मिसाल, प्रेरणास्त्रोत बन चुका है। ज्योतिबा का यह डायलॉग 'बस क्रांति की यह ज्योति जलाएं रखना' आज भी प्रासंगिक है, तथा स्वचिंतन करने को मजबूर करता है। आईना तो हम रोज़ ही देखते है! है ना?

दो घंटे १० मिनट की यह फिल्म पूरे देश के सारे स्कूलों में मुफ्त दिखाई जानी चाहिए और अगर ऐसा न हो तो कम से कम इसे जीएसटी से तो मुक्त कर ही देना चाहिए।

आप भी एक बार ज़रूर देखें!

- लेखक ओएनजीसी, मुंबई में इंजिनियर हैं।

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