भारतीय सिनेमा के शोमैन राज कपूर को दुनिया से गए हुए 37 वर्ष हो गए है, जिन्होंने 1940 के दशक से लेकर 1988 में अपने जीवन के अंत तक, मुख्यधारा के सिनेमा में बनी कुछ सबसे प्रयोगात्मक और साहसिक फिल्मों सहित कई प्रतिष्ठित फिल्मों के साथ बॉलीवुड को परिभाषित किया। आज 2 जून को राज कपूर की पुण्यतिथि पर, हम उनके जीवन के एक अनछुए पहलू को उजागर करते हैं—भारत के संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर के साथ उनका गहरा जुड़ाव।
राज कपूर, जिनकी फिल्मों ने जातिवाद, सामाजिक असमानता, बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उजागर कर देश की नब्ज थामी, साउथ बॉम्बे के काला घोड़ा स्थित वेसाइड इन (Wayside Inn) रेस्तरां की एक खास मेज पर बार-बार लौटते थे। यह वही मेज थी जहाँ बाबा साहेब संविधान के नोट्स लिखा करते थे। कपूर का कहना था कि यह स्थान उन्हें “रचनात्मक कार्य” के लिए प्रेरित करता था।
अपनी उत्कृष्ट फिल्मों जैसे आवारा, श्री 420, जागते रहो, मेरा नाम जोकर , प्रेम रोग आदि के लिए प्रसिद्ध राज कपूर ने विधवा पुनर्विवाह, जातिवाद, सामाजिक न्याय, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे साहसिक विषयों को उजागर कर भारतीय समाज की नब्ज को पकड़ा। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इस प्रतिष्ठित फिल्म निर्माता ने अपने "रचनात्मक कार्यों" के लिए स्वयं डॉ. अंबेडकर से प्रेरणा ली थी।

1924 में जन्मे राज कपूर न केवल एक अभिनेता, निर्देशक और निर्माता थे, बल्कि एक दूरदर्शी थे जिन्होंने सिनेमा में जान फूंक दी। 1948 में आर.के. स्टूडियोज की स्थापना करने वाले कपूर ने ऐसी फिल्में बनाईं जो स्वतंत्रता के बाद के भारत के संघर्षों और आकांक्षाओं को दर्शाती थीं। 1959 में लेखक-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ उनकी फिल्म चार दिल चार राहें में छुआछूत के मुद्दे पर साहसिक टिप्पणी की गई। इस फिल्म में असाधारण प्रतिभा की धनी मीना कुमारी ने एक अछूत महिला की भूमिका निभाई थी, और यह फिल्म जाति की बाधाओं को पार करने वाली समानता के नए धर्म की अवधारणा को प्रस्तुत करती है जो बाबा साहब द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की घटना से प्रेरित थी।
वरिष्ठ फिल्म निर्माता और राज कपूर के शिष्य राहुल रवैल, जो राज कपूर: द मास्टर एट वर्क के लेखक हैं, लिखते हैं राज कपूर की एक अनूठी आदत थी जो उनके डॉ. अंबेडकर के प्रति सम्मान को दर्शाती थी। रवैल बताते हैं, “बॉम्बे में, उन्हें वेसाइड इन नामक स्थान पर जाना बहुत पसंद था। वह हमेशा वहां बीच की मेज पर बैठते थे, और रसोइए उन्हें अभिवादन करने के लिए बाहर आते थे। वे उनकी पीठ थपथपाते और कहते, ‘राज, कैसा है? बहुत समय बाद आया।’ उनकी उनके साथ आत्मीयता देखकर हमें पता चला कि वह बचपन से वहां आ रहे थे, और रसोइए वही पुराने लोग थे जो उनके बचपन से थे। जब मैंने उनसे पूछा कि वह स्थान उनके लिए इतना प्रिय क्यों है, तो उन्होंने बताया, ‘तुम्हें पता है, मैं यहां बार-बार क्यों आता हूं और इस खास मेज और कुर्सी पर क्यों बैठता हूं। यह वह स्थान है जहां डॉ. अंबेडकर ने बैठकर भारत का संविधान लिखा था। मैं यहां इसलिए बैठता हूं ताकि यह मुझे रचनात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करे।’”
मिडडे में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक रेस्त्रां के मालिक परवेज़ पटेल याद करते हैं, कई कप चाय पीते-पीते "फूलस्केप शीट पर झुके हुए, करीने से रखी पेंसिलों और रबड़ के पास, वह (अंबेडकर) समय-समय पर कलम मांगते रहते थे।"
राज कपूर के इस दिलचस्प किस्से का जिक्र डॉ. एसपीवीए सायराम ने द कल्चर कैफे द्वारा प्रकाशित अपने लेख 'An Unexplored Side of Dr. Ambedkar: His Quiet Relationship with Cinema, Theatre, and Music' में भी किया है , जो यह दर्शाता है कि कैसे कपूर ने अपने सिनेमाई प्रयासों में अंबेडकर के परिवर्तनकारी दृष्टिकोण को शामिल करने की कोशिश की। साउथ बॉम्बे में ब्रिटिश मेनू वाला यह छोटा सा रेस्तरां, वेसाइड इन, उनके लिए केवल पुरानी यादों का स्थान नहीं था, बल्कि अंबेडकर के सामाजिक न्याय और समानता के विचारों से जुड़ने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास था। तेजी से बदलते मुंबई परिदृश्य में टिके रहने में असमर्थ होने के कारण यह रेस्तरां फरवरी 2002 में बंद हो गया।
इस एतिहासिक जगह के बंद होने पर 80 के दशक में इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक और मीडिया व्यक्तित्व प्रीतिश नंदी ने लिखा- "समोवर चला गया है। वेसाइड इन भी चला गया है। इरोस बंद होने वाला है। स्ट्रैंड बुक स्टॉल भी बंद होने वाला है, जो कभी शहर की सबसे अच्छी किताबों की दुकान थी। ईरानी कैफ़े थके हुए दिखते हैं। पुराने वेश्यालय गायब हो गए हैं। केवल साहिर के शब्द ही उस शहर में गूंजते हैं जहाँ लोगों के अकेलेपन के अलावा कुछ भी नहीं बचा है।"
राज कपूर की सार्थक कहानी कहने की प्रतिबद्धता उनकी सिनेमाई कृतियों में स्पष्ट थी। रवैल उन्हें एक सिम्फनी के कंडक्टर के रूप में वर्णित करते हैं, जो संगीत से लेकर संपादन तक हर विवरण को बारीकी से संभालते थे। उनकी फिल्में, जैसे सत्यम शिवम् सुन्दरम का शीर्षक गीत और राम तेरी गंगा मैली का “सुन साहिबा सुन” जैसे कालजयी गीतों के लिए जानी जाती हैं, जो आज भी दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती हैं। सामाजिक टिप्पणी को मनोरंजन के साथ जोड़ने की उनकी क्षमता ने उन्हें सच्चा शोमैन बनाया।

राज कपूर की 7 कल्ट फिल्में जिन्होंने भारतीय सिनेमा और समाज को आकार दिया
राज कपूर, भारतीय सिनेमा के शोमैन, ने अपनी फिल्मों से सामाजिक मुद्दों को उजागर किया। उनकी सात कल्ट फिल्में जो आज भी प्रासंगिक हैं:
आवारा (1951): गरीबी और सामाजिक असमानता पर आधारित यह फिल्म राज के अपराध की राह और छुटकारे की कहानी है। “आवारा हूं” गीत विश्वप्रसिद्ध हुआ।
श्री 420 (1955): भ्रष्टाचार और नैतिकता की दुविधा को दिखाती यह फिल्म रणबीर राज की कहानी है। “मेरा जूता है जापानी” गीत राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बना।
चार दिल चार राहें (1959): छुआछूत और जातिवाद पर टिप्पणी करती यह फिल्म समानता की नई अवधारणा पेश करती है, जो अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने से प्रेरित है।
जिस देश में गंगा बहती है (1960): डकैती और सामाजिक पुनर्जनन पर केंद्रित, यह फिल्म गरीबी जैसे अपराध के कारणों को उजागर करती है। “मेरा नाम राजू” गीत मशहूर हुआ।
मेरा नाम जोकर (1970): एक जोकर की जिंदगी के दर्द को दर्शाती यह फिल्म सामाजिक अलगाव और कलाकार की पीड़ा को बयां करती है। “जीना यहां मरना यहां” गीत आज भी गूंजता है।
प्रेम रोग (1982): विधवा पुनर्विवाह पर केंद्रित यह फिल्म सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देती है। “ये प्यार था या कुछ और था” गीत दिल को छूता है।
राम तेरी गंगा मैली (1985): महिलाओं के शोषण और नैतिक पतन को दर्शाती यह फिल्म गंगा की शुद्धता का प्रतीक है। “सुन साहिबा सुन” गीत बेहद लोकप्रिय हुआ।