नागपुर- 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर के दीक्षाभूमि पर भारतीय इतिहास का एक ऐतिहासिक मोड़ आया जब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने करीब 6 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। बर्मी भिक्षु महास्थविर चंद्रमणि से त्रिरत्न और पंचशील की प्रतिज्ञा लेते हुए अंबेडकर द्वारा शुरू किए गए इस नव-बौद्ध आंदोलन ने भारतीय समाज में एक नई क्रांति का सूत्रपात किया। इसी दिन माईसाहेब सविता अंबेडकर ने महिला मुक्ति का अनूठा संदेश देते हुए अपना मंगलसूत्र तोड़ा, सिंदूर पोंछा और बिछिया उतार फेंकी - इन्हें वे महिला दासता के प्रतीक मानती थीं।
यह कोई सामान्य धर्म परिवर्तन नहीं था, बल्कि सामाजिक क्रांति का एक ऐसा आह्वान था जिसने भारतीय समाज के ढाँचे को हिलाकर रख दिया। इसी मौके पर माईसाहेब आंबेडकर ने महिलाओं की गुलामी के प्रतीक मंगलसूत्र और सिंदूर को सार्वजनिक रूप से त्यागकर एक नया संदेश दिया। उन्होंने न सिर्फ अपना मंगलसूत्र तोड़ा, बल्कि माथे का सिंदूर पोंछकर और पैरों की बिछिया उतारकर यह साबित किया कि महिलाओं की पहचान उनके शादी के चिन्हों में नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व में है। उस दिन लाखों लोगों ने बाबासाहेब के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, जिनमें नागपुर के एक गरीब युवा दम्पति कृष्णा सोनारे और भागीरथी भी शामिल थे।
इस ऐतिहासिक घटना को याद करते हुए अम्बेडकरवादी कार्यकर्ता और रिटायर्ड इंजिनियर नागसेन सोनारे आज भी भावुक हो जाते हैं क्योंकि इस आयोजन में उनके माता पिता कृष्णा और भागीरथी ने भी बौद्ध धर्म अपनाया था जिसके बाद से उनके परिवार की तीन पीढ़ियां बाबा साहब और बौध सिद्धांतों का पालन करती रही हैं। पिता की जुबानी इस वाक्ये को कई बार सुन चुके नागसेन ने द मूकनायक को बताया, " बाबा साहब ने आदेश दिया था सभी सफेद कपड़ा पहन के आना...मेरे पिता बहुत गरीब थे, नये कपड़े खरीदने के लिए पैसे नहीं थे..माँ के पास सफेद साडी नहीं थी लेकिन बाबा साहब ने कहा था और धम्म दीक्षा में शामिल होना भी था...उनके पास एक ही कीमती चीज थी- एक घड़ी जो उन्होने बेच दी, माँ के लिए सफेद साडी लेकर आये और दोनों ने दीक्षा ली"।
नागसेन बताते हैं उनके माता पिता का विवाह 1953 में हुआ था। दोनों की कच्ची उम्र थी, माँ मुश्किल से 12-13 साल की और पिता 16-17 साल के लेकिन उस दौर में बाबा साहब के प्रति ऐसी अटूट आस्था थी कि अगर उन्होने कुछ कहा होगा तो ठीक बोला है... कृष्णा एक बीडी कारखाने में मजदूर थे और उनकी पत्नी तरकारी बेचकर घर खर्च में हाथ बंटाती थी।
नागसेन भावुक होकर गुजरे दिन याद करते हैं, " मेरे बाबा चौथी क्लास तक पढ़े थे, उनको नागपुर म्युनिसिपेलिटी में स्वीपर की नौकरी लगी लेकिन उन्होने मना कर दिया- कारण यह कि बाबा साब ने कहा है-हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे लोग हमें नीची नजरों से देखें... हम कितना ही अच्छा खाए या अच्छा पहने लेकिन हाथों में झाड़ू होगा तो लोग इज्जत नहीं करेंगे... मेरे पिता कहते थे अगर मैं झाडू लगाऊंगा तो मेरे बेटे और उनके बेटे भी यही काम करते रहेंगे..इसलिए पिताज़ी ने यह नौकरी नहीं ली और कड़ी मेहनत मजदूरी करके हम बच्चों का भरण पोषण किया, माँ सब्ज़ियाँ बेचकर घर चलाने में मदद करती थीं।"
नागसेन कहते हैं , उस जमाने में उनकी माँ नागपुर मंडी से टोपला भरकर सब्जी खरीदकर अपने सिर पर रखकर घर घर जाकर उन्हें बेचती थी, वे अनपढ़ थी लेकिन बहुत परिश्रमी महिला थीं। बाबा साहब और माई साहब की भी यही सीख थी कि महिलाएं पति की गुलाम नहीं बल्कि बराबर की सहयोगिनी होती हैं और भागीरथी ने भी इस मायने में पति की जिम्मेदारियों को आधा आधा बांटा।

नागसेन जो स्वयं भी ओएनजीसी से डीजीएम पद से रिटायर हुए हैं, ने 1990 में बौद्ध रीति से विवाह किया था। माता-पिता की बाबा साहब में आस्था का ही परिणाम था कि पूरे परिवार ने हिन्दू रीति रिवाज त्याग दिए. नागसेन बताते हैं कि उनका नाम भी किसी देवी देवता के नाम पर नहीं रखकर बुद्धिस्ट मोंक नागसेन के नाम पर रखा गया था।
अपनी शादी का रोचक वृत्तांत सुनाते हुए नागसेन कहते हैं, " मेरी शादी तय हुई तो पहले ही मैंने अपनी पार्टनर प्रमिला को कह दिया कि मैं उन्हें मंगलसूत्र नहीं पहनाऊंगा इसलिए वे उसकी जिद भी ना करें, प्रमिला तो मान गयीं लेकिन मेरी माँ नाराज हुई क्योंकि वे इसे सुहाग चिन्ह मानती थी लेकिन मेरे पिता ने मेरा सपोर्ट किया और बोले बहू अगर मंगलसूत्र पहनेगी तो ये उसके साथ असमानता होगी"। शादी में कोई हिन्दू रस्में नहीं निभायी गयी बल्कि बौद्ध धर्म गुरु ने विवाह संपन्न करवाया जिसमे बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाएं भी शामिल थी।
नागसेन आगे बताते हैं कि शादी के बाद जब वे बाहर जाते थे तो पत्नी के गले में मंगलसूत्र नहीं देखकर कोई उन्हें शादीशुदा नहीं समझता था, यहाँ तक कि बड़े बेटे के जन्म होने तक लोग प्रमिला से यही पूछते थे कि तुम्हारी शादी नहीं हुई है क्या? आज उनके माता पिता इस संसार में नहीं हैं, नागसेन सोनारे दम्पति के दोनों बेटे उच्च शिक्षा हासिल करके इंजीनियर बन चुके हैं, दोनों की अभी शादी नहीं हुई है. परिवार की युवा पीढ़ी बाबा साहब के बताये राह पर चलती है, दोनों बेटे भी बौद्ध धर्म को मानते हैं। उनको भी यही सीख दी है कि वे भी अपनी अपनी जीवन साथियो को बराबरी का दर्जा देंगे और अपने से किसी भी तरह कम नहीं मानेंगे।
नागसेन कहते हैं ये बाबा साहब की सीख और पिता कृष्णा की समझ का ही परिणाम है जिन्होंने शिक्षा को महत्व दिया और परिवार आगे बढ़ने को प्रेरित हुआ। नागसेन कहते हैं कि आज महाराष्ट्र में 90 फीसदी अम्बेडकरवादी बाबा साहब के आदर्शों का पालन करते हैं, कुछ ही लोग हैं जो पुरानी परम्पराओं को आज भी निभा रहे हैं।