स्वर्ग - नरक का भ्रम और आदिवासी दर्शन

10:59 AM Dec 28, 2024 | Neetisha Khalkho

हाल ही में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने बाबासाहेब अंबेडकर के बारे में कहा कि उनका नाम लेना ‘फैशन’ बन गया है। बाबासाहेब और उनकी राह पर चलने वाले करोड़ों अंबेडकरवादियों का अपमान करते हुए, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ने यह भी कहा कि अगर अंबेडकर की जगह भगवान का नाम लिया जाता, तो सात जन्मों तक स्वर्ग और ईश्वर दोनों मिल जाते। यह सोच आदिवासी समाज के दर्शन के पूरी तरह विपरीत है। यही कारण है कि इस बयान से आदिवासी समाज में गहरा आक्रोश है। वंचितों को उनके अधिकार देने के बजाय, उन्हें स्वर्ग और नरक के भ्रम में फंसाए रखने की कोशिशें क्यों लगातार होती रही हैं? जबकि आदिवासी दर्शन इन अवधारणाओं को पूरी तरह नकारता है। मेरे जैसी एक आदिवासी स्त्री के लिए शाह का यह बयान उन तमाम साजिशों की याद दिलाता है, जो हमारी मान्यताओं और अस्तित्व को नकारने और हमारी सांस्कृतिक विरासत को हड़पने के लिए रची जाती रही हैं।

एक आदिवासी अक्सर इस सोच के साथ खुद को सांत्वना देने की कोशिश करता है कि देश के “सर्वोच्च” पद पर आज एक आदिवासी महिला विराजमान हैं। लेकिन यह खुशी अधूरी लगती है। इसका कारण भी स्पष्ट है—वह जिस सत्ता के गलियारों से होकर इस पद तक पहुँची हैं, वह सत्ता उन्हें ‘आदिवासी’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘वनवासी’ की पहचान से देखती है। यह पहचान हिंदू धार्मिक ग्रंथों की वनवासी अवधारणा से जुड़ी हुई है, जिसमें ‘वनवासी’ का अर्थ केवल जंगल में वास करने वाला व्यक्ति होता है।

सत्ता के शिखर तक पहुँच जाने के बावजूद भी, जातिगत समाज में एक आदिवासी को बराबरी पाना कठिन है। यही कारण है कि कई बार मंदिरों में गर्भगृह के द्वार शीर्ष पर बैठे हुए आदिवासी के लिए भी लिए बंद कर दिए जाते हैं। यहां तक कि एक आदिवासी महिला, जो राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर हैं, उन्हें भी देवी-देवताओं को दूर से ही प्रणाम करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, राम मंदिर—जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद बनाया गया—उसकी प्राण-प्रतिष्ठा में भी महामहिम को उपेक्षित रखा गया। हालाँकि मंदिर प्रवेश से आदिवासियों के हालात कितने सुधर जाएँगे, यह विचारणीय प्रश्न है। मगर धार्मिक स्थलों से किसी की बेदख़ली उसके नागरिक अधिकार का हनन तो है ही न? यह वही स्थिति है, जो हर रोज़ जातिगत व्यवस्था में हर आम दलित, आदिवासी और ओबीसी समाज के भाइयों और बहनों के साथ घटित होती रहती है।

वर्ण व्यवस्था में आदिवासी की कोई जगह नहीं हैं। वे किसी ऊँच-नीच के पायदान में कभी नहीं आते रहे हैं। इसलिए यह सर्वोच्च “जातिगत श्रेष्ठता” भी उन्हें किसी की कभी स्वीकार्य नहीं होती। आज भी आदिवासी समाज के बारे में नीतियाँ बनाने वाले “तथाकथित सभ्य” समाज के लिए हम “असभ्य,” “बर्बर,” और “जंगली” हैं। धर्म के ठेकेदार हमें शबरी, सुग्रीव और हनुमान की तरह अपना सेवक या दास बनाने की मानसिकता से ग्रसित हैं। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि आदिवासी जीवन में “दास” और “स्वामी” की कोई अवधारणा नहीं पाई जाती। हमारे समाज में असमानता लगभग ना के बराबर है।

आदिवासी सोच और जीवन दर्शन में हर जीव, चाहे वह छोटी-सी चिड़िया हो, कोई जीव-जंतु हो, या फिर पेड़-पौधे और घास हों, सभी को अत्यंत महत्व दिया जाता है। इंसानों को हम अन्य जीव-जंतुओं से “श्रेष्ठ” नहीं मानते, बल्कि उन्हें अपना संगी साथी मानते हैं। हमारे लिए धरती पर जीवन पाने वाला हर प्राणी प्रिय और पूजनीय है। हमारे अस्तित्व का जुड़ाव चल-अचल सभी से है।

इसके विपरीत, सत्ता के लिए जंगल केवल लकड़ी का ढेर है, जिसे काटकर और बेचकर संपत्ति बनाई जा सकती है। मगर एक आदिवासी के लिए जंगल आत्मा, रूह और पूर्वजों की ज्ञान-परंपरा का विस्तार है। यही कारण है कि आदिवासी खुद को ‘वनवासी’ के रूप में स्वीकार नहीं करते। वे खुद को जल, जंगल, ज़मीन और जन से जुड़ा हुआ मानते हैं, जिसमें पहाड़, नदियाँ, पत्थर, जमीन और जीव-जंतु सभी का अटूट वास है। यह उनके अस्तित्व और अस्मिता की परिभाषा है, जो उन्हें ‘आदिवासी’ बनाती है।

जिन आदिवासियों ने कभी प्राकृतिक संसाधनों को माल या वस्तु के रूप में नहीं देखा, आज उन्हीं संसाधनों की लूट मार तेज़ी से की जा रही है। यह हमले केवल मध्य भारत में ही नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर के राज्यों और भारत के हर कोने में हो रहे हैं। संपूर्ण आदिवासी आबादी पर सत्ता-प्रायोजित हमलों की तीव्रता बढ़ रही है, और सत्ता वर्ग इस पर चुप्पी साधे हुए है। ऐसा लगता है कि वंचित वर्गों का शोषण और अपमान करना ही सत्ता वर्ग का मुख्य काम बन गया है।

किन-किन अपमानों का जिक्र किया जाए? कौन भूल सकता है कि हाल ही में मध्य प्रदेश के सीधी जिले में सत्ता दल से जुड़े एक जातिवादी व्यक्ति ने एक आदिवासी के मुँह में पेशाब किया था? यह मामला पहले दबा दिया गया था, लेकिन इससे संबंधित वीडियो अचानक वायरल होने के बाद देश के आदिवासी समाज और न्यायप्रिय लोगों में आक्रोश फैल गया। बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए भाजपा के मुख्यमंत्री ने पीड़ित आदिवासी के पैर धोकर माफी माँगने का नाटक किया।

आदिवासियों की याद सत्ता वर्ग को केवल चुनावों से कुछ दिन पहले ही आती है। हालाँकि, शासक वर्ग ने कभी भी आदिवासियों के मूल सवालों का जवाब देने का साहस नहीं किया है। इसके विपरीत, आदिवासियों पर हमले लगातार और बेरोक-टोक जारी रहते हैं। मणिपुर में आदिवासी महिलाओं के साथ हो रही हैवानियत पर सत्ता वर्ग पूरी तरह चुप्पी साधे हुए है। देश भर में सत्ता-प्रायोजित हिंसा और बलात्कार की घटनाओं को “सामान्य” बना दिया गया है।

जो नेता विश्व शांति की बातें करते हैं, वे फिलिस्तीन के मुद्दे पर संवेदना व्यक्त करने तक में विफल रहे हैं। वही देश के भीतर रह रहे अल्पसंख्यक समुदायों के घरों को बुलडोज़र के ज़ोर पर तोड़ा जा रहा है और बहुसंख्यकवाद की राजनीति हर दिन उग्र होती जा रही है।

देश की 85% से अधिक आबादी को हाशिये पर धकेल दिया गया है। उनके हक और संसाधनों पर जबरन कब्जा कर लिया गया है। न्याय और अन्याय के विचारों को सुविधानुसार परिभाषित किया गया है, और ईमानदारी से संसाधनों के प्रयोग पर हमेशा चुप्पी साधी गई है।

आदिवासी महिलाओं पर हमले और भी तीखे हैं। हाल ही के झारखंड विधानसभा चुनावों के दौरान, आदिवासी महिलाओं को बदनाम करने के हरसंभव प्रयास किए गए। संथाल परगना की महिलाओं को लेकर ‘लव जिहाद’ और ‘जमीन जिहाद’ जैसे झूठे प्रचार किए गए। यह कहा गया कि बांग्लादेशी मुसलमान यहाँ की महिलाओं से जबरन शादी करते हैं, या उन्हें बहलाकर शादी करते हैं। साथ ही, मुखिया पति बनने और ज़मीन लूटने की बातें उछाली गईं। इस प्रचार का उद्देश्य आदिवासी समाज को मूर्ख साबित करना और उनकी महिलाओं को साधारण वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना था। आदिवासी महिलाओं की एजेंसी और स्वतंत्रता को खारिज करने की कोशिश की गई। इन सबके पीछे सत्ता वर्ग का उद्देश्य झारखंड के आदिवासियों और मुसलमानों की एकता को तोड़ना था। लेकिन राहत की बात यह है कि जनता ने उनके झूठ और फरेब का जवाब वोट की ताकत से दिया।

एक तरफ आदिवासियों के जल, जंगल, और ज़मीन की लूट हो रही है और उन्हें उनके ही इलाकों से विस्थापित किया जा रहा है। दूसरी तरफ, जेलों में वे अपनी आबादी के अनुपात से कई गुना ज़्यादा क़ैद हैं। आदिवासियों को 7.5% आरक्षण का जो अधिकार मिला है, वह आज तक पूरी तरह लागू नहीं किया गया। विश्वविद्यालयों में आदिवासी कुलपति शायद ही कहीं देखने को मिलते हैं। राष्ट्रीय मीडिया—चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक—में आदिवासी संपादकों या नीति-निर्धारकों की उपस्थिति शून्य है। यही नहीं, ‘ट्राइबल सब-प्लान,’ जो केवल आदिवासियों के कल्याण के लिए खर्च किया जाना चाहिए था, उसका भी दुरुपयोग किया जा रहा है।

प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी आदिवासी सबसे पिछड़े हुए हैं। आदिवासी आज भी जीवन-स्तर के बुनियादी मानकों से दूर हैं। उनके इलाकों से खनिज संपदा का लगातार दोहन कर देश का पूँजीपति वर्ग मालामाल हो चुका है। लेकिन आदिवासियों के जीवन पर इसका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा।

हर दिन आदिवासियों पर सांस्कृतिक और धार्मिक हमले किए जा रहे हैं, और सत्ता मूकदर्शक बनी हुई है। जनगणना के ‘कॉलम’ में आदिवासी धर्म या सरना धर्म का प्रावधान आज तक नहीं किया गया है। आदिवासियों को हिंदू कॉलम या “अन्य” की श्रेणी में डाल दिया जाता है। यह सब लंबे समय से जारी है, जबकि संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है।

आदिवासी धर्म आज भी उस हद तक संगठित नहीं किया गया है, जैसे अन्य संगठित धर्म के धर्मगुरुओं ने बहुत पहले अपने धर्मों  को कर दिया था। आदिवासी धर्म कई मायनों में संगठित धर्मों से अलग है। यह धर्म अलिखित, ढांचे से मुक्त, और उन्मुक्त आकाश में सांस लेने वाला धर्म है। फिर भी, देश के नीति-निर्धारक आदिवासियों के धर्म को बहुसंख्यक धर्म में समाहित करने की साजिश रचते हैं।

बहुसंख्यक समाज को आदिवासियों से यह सीखना चाहिए कि धर्म के झगड़े इंसानियत के खिलाफ हैं। मंदिर, मस्जिद और ढांचों की स्थापना, खुदाई, सर्वेक्षण, और पुनर्रचना जैसी प्रक्रियाएँ आदिवासी इतिहास में कहीं नहीं मिलतीं। धार्मिक उन्माद, कट्टरता, और उससे उपजी खूनी रंजिशें आदिवासी धर्म के इतिहास का हिस्सा कभी नहीं रहीं।

कानून के जानकार और संविधान के रखवाले ‘माइ लॉर्ड’ भी इन बातों को समझने में असफल रहते हैं। कहीं न कहीं वे भी बहुसंख्यक राजनीति के दबाव में आ जाते हैं। कुछ समय पहले, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मस्जिदों के अंदर मंदिर तलाशने के लिए सर्वेक्षण किया जा सकता है। इस फैसले के बाद धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण, खुदाई और विध्वंस जैसे विवादों को और हवा मिल गई।

लेकिन ये फैसले आदिवासी समाज के लिए समझ से परे हैं। आदिवासी जानते हैं कि धर्म के झगड़े समाज के असली मुद्दों को दबाने के लिए उठाए जाते हैं। बाबरी मस्जिद को तोड़ना, राम मंदिर का निर्माण, संभल मस्जिद पर हुई हिंसा, गुरुद्वारों और गिरजाघरों पर हमले—इन सबका आदिवासी दर्शन में कोई स्थान नहीं है।

आदिवासी दर्शन का सार है कि ख़ुद भी जीयो और हर किसी को जीने दो। देश के नीति-निर्धारकों ने हमेशा आदिवासियों को “अबूझ” समझा और और उन्हें “शिक्षित” करने का प्रयास किया है। लेकिन अगर वे आदिवासियों के दर्शन और जीवन से कुछ सीखने की कोशिश करें, तो देश की बड़ी आबादी की ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में उपयोग किया जा सकता है।

हमारा आदिवासी समाज “स्वर्ग” और “नरक” की परिकल्पना से परे है, जिस तरह की भ्रामक बातें गृह मंत्री संसद में कर रहे थे। आदिवासी यह नहीं मानते कि इंसान की जाति का निर्धारण पिछले जन्म के कर्मों से होता है। आदिवासी दर्शन में मरने वाला व्यक्ति अपने घर लौट आता है और अपने परिवार के साथ रहता है। मरने वाला इंसान हमें दिखता नहीं, लेकिन वह हमें देखता है। वह हमारे हर सुख-दुख में हमारे आसपास होता है। आदिवासी समाज में पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है। जहाँ वनवासी पहचान के रचयिता स्वर्ग और भगवान को पाने की लालसा में ग्रस्त रहते हैं, वहीं आदिवासियों के लिए स्वर्ग और नरक इसी धरती पर मौजूद हैं।

सत्ता के लोभ ने धर्म के ज़हर को आम लोगों की नसों में उतारा है और आदिवासियों को हाशिये पर धकेला है। परिणामस्वरूप, “विविधता में एकता” जैसे सूत्रवाक्य अब व्यंग्य प्रतीत होते हैं। आइए, आज हम सब मिलकर आदिवासियत और प्रकृति की ओर लौटें। प्रेम और अहिंसा की ओर लौटें। सह-अस्तित्व, भाईचारे, सम्मान, और समानता की ओर लौटें। और स्वर्ग-नरक के जाल में न फँसे।

(लेखिका आदिवासी कवि हैं।)

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