भारत में लगभग हमेशा से आरक्षण एक सदाबहार मुद्दा रहा है. देश की एक बड़ी आबादी जहां आरक्षण की पक्षधर हैं, वहीं दूसरी तरफ एक समूह हमेशा इसके खिलाफ रहा है. ऐसे में भारतीय संविधान में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए होने वाले पहले संविधान संशोधन के बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है.
यह सन 1950 की बात है। एक ब्राह्मण महिला शेनबागुम दुरईसामी को एक चिकित्सा महाविद्यालय में इसलिए प्रवेश नहीं दिया गया, क्योंकि वह निर्धारित आयु-सीमा पार कर चुकी थी। दुरईसामी ने इसके लिए आरक्षण को दोषी ठहराते हुए मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके आरक्षण की व्यवस्था को रद्द करने की मांग की।
इसी वर्ष की 28 जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया। बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया। इस तरह आरक्षण की व्यवस्था अचानक समाप्त हो गई। यह महत्वपूर्ण है कि शेनबागुम के वकील अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर थे, जो कि संविधान सभा के सदस्य रह चुके थे।
पेरियार की चर्चित किताब जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के अनुसार, मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के एक सप्ताह के भीतर 6 अगस्त, 1950 को पेरियार ने मद्रास राज्य के लोगों से यह अपील की कि वे अपने अधिकारों को फिर से पाने के लिए संघर्ष शुरू करें। उसके बाद पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन हो गए।
पेरियार ने 14 अगस्त, 1950 को आम हड़ताल का आह्वान किया, और वह जबरदस्त सफल रही।
उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल से अनुरोध किया कि आरक्षण के अधिकार की पुनर्स्थापना की जाए। सरकार ने उनकी अपील पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध) में संशोधन किया।
अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि 'राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इसमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।'
अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार, 'राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इसमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।'
अनुच्छेद 15 में खंड (4) जोड़ा गया, जो कहता है कि 'इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी।'
इस प्रकार पेरियार ने आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के षड्यंत्र को विफल करके इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था करवा दी।
अगर 30 शब्दों का यह खंड संविधान में नहीं जोड़ा गया होता, तो तमिलों की कई पीढ़ियां शिक्षा से वंचित रह जातीं और शेष भारत को रास्ता दिखाने वाला कोई राज्य न होता, और न ही सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान हो पता। पेरियार के कारण ही अब भारत के पिछड़े वर्गों की आने वाली पीढ़ियां शिक्षा से वंचित नहीं रहेंगी।