दर्शकों के दिलों को झकझोर रही 'फुले'— सावित्री-ज्योतिबा की 177 साल पुरानी मार्मिक और प्रेरणादायक कहानी जरूर देखें बड़े पर्दे पर!

01:02 AM Apr 27, 2025 | Geetha Sunil Pillai

उदयपुर- सामाजिक सुधारकों ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित फिल्म फुले 25 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज हुई। अनंत नारायण महादेवन द्वारा निर्देशित इस फिल्म में प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं। यह फिल्म अपने भावनात्मक दृश्यों और ऐतिहासिक प्रामाणिकता के कारण दर्शकों के दिलों को झकझोर रही है। समाज के दबे कुचले वर्ग के साथ होने वाले भेदभाव, दलितों को गले में मटकी और कमर में झाड़ू बाँध कर चलने के रिवाज, उनकी छाया भी पड़ने से उच्च कुल के लोगों का 'धर्म भ्रष्ट' होने की मान्यता आदि को दिखाने वाले दृश्य भाव प्रवीण बन पड़े हैं लेकिन व्यावसायिक दर्शकों को आकर्षित करने में असफल रही है।

उदयपुर के INOX थिएटर में केवल दो शो प्रतिदिन चल रहे हैं, और दूसरे दिन, शनिवार को वीकेंड के बावजूद दर्शकों की संख्या निराशाजनक रही। फिर भी, जो लोग फिल्म देखने आए, उनके लिए यह अनुभव अविस्मरणीय रहा। इस फिल्म की कहानी, दर्शकों की प्रतिक्रिया, बॉक्स ऑफिस कलेक्शन और इसके सामाजिक महत्व पर एक रिपोर्ट:

फुले 19वीं सदी के भारत में महात्मा ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले के क्रांतिकारी कार्यों को दर्शाती है। यह फिल्म न केवल उनके सामाजिक सुधारों—जैसे महिलाओं की शिक्षा, दलित उत्थान, और विधवा पुनर्वास—को उजागर करती है, बल्कि उनके निजी जीवन की उन अनकही कहानियों को भी सामने लाती है, जो दर्शकों के दिलों को पिघला देती हैं।

Trending :

फिल्म दिखाती है कि कैसे उन्होंने न केवल शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि सामाजिक कुरीतियों जैसे छुआछूत, विधवा मुंडनऔर बाल विवाह के खिलाफ भी आवाज उठाई। ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले ने अपनी जमीन बेचकर 25 स्कूल स्थापित किए और सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं। ज्योतिबा ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जो सभी जातियों और धर्मों के लिए समानता की वकालत करता था। उनके घर में एक कुआँ बनाया गया ताकि दलित समुदाय को पानी मिल सके, क्योंकि उन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी लेने की अनुमति नहीं थी।

फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने अपने दोस्त उस्मान शेख और उनकी बहन फातिमा के साथ मिलकर सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया। ये तथ्य दर्शकों को उस युग की कठिनाइयों और उनके साहस की गहराई से परिचित कराते हैं।

फिल्म में कई मार्मिक दृश्य हैं, जैसे सावित्रीबाई को संतान न होने के कारण समाज से अपमान सहना पड़ता है। एक दृश्य में एक विधवा, जो अपने दूर के रिश्तेदार द्वारा बलात्कार का शिकार होती है, के बच्चे को ज्योतिबा और सावित्रीबाई गोद लेते हैं। इस बच्चे, यशवंत, को समाज "नाजायज" कहकर तिरस्कृत करता है, लेकिन वह बड़ा होकर डॉक्टर बनता है—ज्योतिबा का एक अधूरा सपना जो यशवंत के माध्यम से पूरा होता है। एक और ऐतिहासिक क्षण तब आता है, जब सावित्रीबाई अपने पति की चिता को मुखाग्नि देती हैं, जो सैकड़ों वर्षों में भारत में किसी महिला द्वारा पहली बार किया गया। ये दृश्य दर्शकों की आँखें नम कर देते हैं और उनके संघर्ष की गहराई को दर्शाते हैं।

नवभारत टाइम्स ने लिखा, "फिल्म कई बार डॉक्यूमेंट्री-ड्रामा जैसी लगती है, लेकिन प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने ज्योतिबा और सावित्री के किरदारों को पूरी शिद्दत से जिया है।"

यह फिल्म अपने गहन कथानक और भावनात्मक दृश्यों के कारण दर्शकों के दिलों को छू रही है, लेकिन व्यावसायिक दर्शकों को आकर्षित करने में असफल रही है।

उदयपुर में दर्शकों की प्रतिक्रिया

उदयपुर के एक मॉल में स्थित INOX थिएटर में फुले के केवल दो शो प्रतिदिन चल रहे हैं। रिलीज के दूसरे दिन, जो वीकेंड था, दर्शकों की संख्या कम रही। द मूकनायक ने कुछ दर्शकों से बात की, जिन्होंने फिल्म देखने के बाद अपनी भावनाएँ साझा कीं।

एक युवा दंपति दिनेश- ज्योति भावसार ने कहा, "हम इस फिल्म की रिलीज का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग इस फिल्म को देखने नहीं आ रहे। यह एक ऐसी कहानी है, जिसे हर किसी को जानना चाहिए।"

एक बुजुर्ग दंपति मनोहर सिंह और सुनीता ने भावुक होकर कहा, "हमारे पास शब्द नहीं हैं कि हम उनके जीवन को देखकर कैसा महसूस कर रहे हैं। इतना विरोध सहकर भी उन्होंने हार नहीं मानी, बहुत अद्भुत फिल्म है।"

एक युवा वकील, सिद्धार्थ, फिल्म देखकर बहुत व्यथित हुए। उन्होंने कहा, "मुझे ऐसा लगा जैसे मैं 177 साल पहले के उस युग में पहुँच गया हूँ। ज्योतिबा और सावित्रीबाई असली नायक थे। हम आज डिजिटल युग में ऑनलाइन ट्रोलिंग सहन नहीं कर पाते, लेकिन उन्होंने इतना विरोध और अपमान सहा। यह फिल्म दिल को छू लेती है।"

एक्स पर भी दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। एक यूजर ने लिखा, "फुले जैसी फिल्में कला में उपचार, शिक्षा और जागृति की शक्ति को दर्शाती हैं। हमें इसका समर्थन करना चाहिए।"

फुले का निर्माण ₹29 करोड़ के बजट में किया गया था। बॉक्स ऑफिस वाला के अनुसार, फिल्म ने पहले दिन लगभग ₹2.5 करोड़ की कमाई की। दूसरे दिन के आंकड़े अभी सामने नहीं आए हैं, लेकिन ट्रेड एनालिस्ट्स का अनुमान है कि वीकेंड तक यह ₹7-8 करोड़ तक पहुंच सकती है। सनी देओल की जाट और अन्य बड़ी रिलीज के साथ प्रतिस्पर्धा के कारण फिल्म को व्यावसायिक सफलता मिलने में चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उदयपुर जैसे छोटे शहरों में कम शो और दर्शकों की कम संख्या ने इसकी कमाई को और प्रभावित किया है।

विवाद और रिलीज में देरी

फिल्म की रिलीज से पहले विवाद भी सामने आए। मूल रूप से 11 अप्रैल 2025 को रिलीज के लिए निर्धारित फुले को महाराष्ट्र और अन्य क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मण संगठनों के विरोध के कारण स्थगित करना पड़ा। संगठनों ने ट्रेलर में ब्राह्मण समुदाय के चित्रण को एकतरफा और नकारात्मक बताया। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) ने फिल्म को 'यू' सर्टिफिकेट दिया, लेकिन कुछ संशोधनों की मांग की, जैसे 'महार', 'मांग', 'पेशवाई' जैसे शब्दों को हटाना और "3000 साल पुरानी गुलामी" जैसे वाक्यांश बदलना। इन बदलावों के बाद फिल्म 25 अप्रैल को रिलीज हुई।

निर्देशक अनंत महादेवन ने टीवी9 हिंदी से बातचीत में कहा, "यह फिल्म ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं है। ट्रेलर से कुछ गलतफहमियाँ हुईं, जिन्हें हमने दूर करने की कोशिश की। यह फिल्म सभी समुदायों के सहयोग से बने सत्यशोधक समाज की कहानी है।"

सोशल मीडिया पर #SupportPhuleTheFilm कैंपेन

जो लोग इसे देख रहे हैं, वे इसे एक क्रांति गीत मानते हैं। जैसा कि एक दर्शक ने कहा, "ज्योतिबा और सावित्रीबाई को केवल मूर्तियों की नहीं, स्क्रीन टाइम की जरूरत है।"

फिल्म की रिलीज के साथ ही सोशल मीडिया पर #SupportPhuleTheFilm कैंपेन ने जोर पकड़ा है, जिसमें दर्शक ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले की क्रांतिकारी विरासत को सेलिब्रेट कर रहे हैं।

एक दर्शक, आरव गौतम (@IAmAarav8), ने एक्स पर लिखा, "जितना आप महात्मा ज्योतिबा फुले और माता सावित्रीबाई फुले के बारे में जानेंगे, उतना ही समझ आएगा कि वे कितने क्रांतिकारी थे ♥️हर किसी को एकजुट होकर 'फुले' फिल्म का समर्थन करना चाहिए, यह सभी के लिए जरूरी है।"

वहीं, खुश जानी गायकवाड (@KhushJani32) ने भावुक अंदाज में कहा, "मौन के दौर में उन्होंने बोलना चुना, अंधेरे में उन्होंने रास्ता रोशन किया। हर भारतीय को यह कहानी देखनी चाहिए।" यह कैंपेन फिल्म की प्रासंगिकता और इसके सामाजिक संदेश को और मजबूती दे रहा है।

पेरियार दिग्विजय यादव लिखते हैं, " हम ऐसी सामाजिक न्याय पर आधारित फिल्मों का पूर्ण समर्थन करते हैं"।

अश्विनी विश्वकरमा ने लिखा, " समाज में जातिवाद और भेदभाव को दर्शाने वाली ये फिल्म पुराने द्रश्य के साथ देखने को तेयार है आजकल बहुत कम फिल्म रिलीज़ होती है जिसमे सच युवाओ को देखने को मिले।"