जयपुर- डॉ. आंबेडकर अनुसूचित जाति अधिकारी-कर्मचारी संघ (AJAK राजस्थान) ने अनुसूचित जाति (SC) समुदायों के हितों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। संघ ने जस्टिस के.जी. बालकृष्णन आयोग को एक विस्तृत पत्र भेजकर अनुसूचित जाति सूची में किसी भी बदलाव के खिलाफ अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं।
पत्र में विशेष रूप से दलित ईसाइयों या मुसलमानों जैसे नए समूहों को अनुसूचित जाति सूची में शामिल करने का विरोध किया गया है, जिसे संगठन मौजूदा SC समुदायों के अधिकारों और लाभों के लिए खतरा मानता है।
AJAK राजस्थान ने अपने पत्र में कहा कि अनुसूचित जाति समुदाय रोजाना जातिगत भेदभाव और कठिनाइयों का सामना करते हैं। संगठन ने अनुरोध किया है कि अनुसूचित जाति सूची में कोई भी बदलाव राजनीतिक कारणों से न किया जाए और मौजूदा SC समुदायों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए। पत्र में संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जाति सूची को संरक्षित करने और धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को रोकने की मांग की गई है।
पत्र में उठाए गए प्रमुख बिंदु:
पत्र में उल्लेख किया गया है कि भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। विधायिका, न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थानों में कार्यरत लोक सेवक संविधान के अनुसार कार्य करने की शपथ लेते हैं। संविधान के अनुच्छेद 51(क) के तहत प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे। संविधान का उल्लंघन राष्ट्रीय अपमान अधिनियम 1971 की धारा 2 के तहत दंडनीय अपराध है।
जाति का निर्धारण और भेदभाव:
भारत सरकार के डीओपीटी मंत्रालय के कानून के अनुसार, किसी भी नागरिक की जाति उसके पिता से जन्म के आधार पर प्राप्त होती है। अनुसूचित जाति/जनजाति के पिता के बच्चों को उनकी जाति विरासत में मिलती है और वे भी जातिगत भेदभाव का सामना करते हैं। पत्र में कहा गया है कि यदि अनुसूचित जाति/जनजाति के नागरिक अपना धर्म बदलते हैं, तब भी उन्हें जन्म के आधार पर प्राप्त जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 335, 330, 332, 243D और 243T के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति को जाति के आधार पर संवैधानिक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया है ताकि इस भेदभाव को कम किया जा सके।
धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व में कोई प्रतिबंध नहीं:
पत्र में जोर दिया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 335 के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में शैक्षिक संस्थानों और सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार जाति के आधार पर दिया गया है, न कि धर्म के आधार पर। पत्र में कहा गया है कि यदि धर्म के आधार पर अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधित्व के अधिकार को प्रतिबंधित किया जाता है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 335 का उल्लंघन होगा।
पंचायतों और विधायी निकायों में प्रतिनिधित्व:
संविधान के अनुच्छेद 243D, 243T, 330 और 332 के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में ग्राम पंचायतों, नगर निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा में प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। इनमें से किसी भी अनुच्छेद में धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। पत्र में कहा गया है कि प्रतिनिधित्व का अधिकार सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को जाति और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर दिया गया है, न कि धर्म के आधार पर।
जाति निर्धारण का आधार:
पत्र में स्पष्ट किया गया है कि भारत सरकार ने सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अनुसूचित जाति/जनजाति के नागरिकों के लिए कानून बनाया है, जिसमें किसी भी नागरिक की जाति उसके पिता की जाति से निर्धारित होती है। अनुसूचित जाति/जनजाति के नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 335, 243D, 243T, 330 और 332 के तहत उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त है। इनमें से किसी भी अनुच्छेद में धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व देने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
संविधान का उल्लंघन और उत्तराखंड का उदाहरण:
पत्र में उत्तराखंड में संविधान के अनुच्छेद 341 के उल्लंघन का उदाहरण दिया गया है। उत्तराखंड के समाज कल्याण विभाग के मुख्य सचिव ने 2013 में 38 जातियों और 2014 में 10 सामान्य/पिछड़ी जातियों को शिल्पकार की उप-जाति/पर्यायवाची जाति घोषित कर अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया। यह संसद और राष्ट्रपति के अधिकारों में हस्तक्षेप और संविधान का उल्लंघन था। इसके परिणामस्वरूप, उत्तराखंड में अनुसूचित जाति के लोगों को संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 332, 330, 335, 243D और 243T के तहत प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया गया। पत्र में बताया गया कि वर्तमान में उत्तराखंड विधानसभा की 70 में से 13 आरक्षित सीटों पर 10 विधायकों के जाति प्रमाण पत्र अवैध हैं।
ईडब्ल्यूएस और धर्म आधारित भेदभाव:
पत्र में कहा गया है कि संविधान आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) और पिछड़े वर्ग के नागरिकों को धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध के बिना आरक्षण का अधिकार देता है। यदि सभी धर्मों के नागरिकों को EWS और पिछड़े वर्ग में आरक्षण मिल सकता है, तो अनुसूचित जाति/जनजाति में धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व के अधिकार पर प्रतिबंध लगाना उचित नहीं है। यह अनुसूचित जाति/जनजाति के नागरिकों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव होगा और उनके मौलिक अधिकारों का हनन होगा।
संविधान की सर्वोच्चता:
पत्र में जोर दिया गया है कि भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और इसमें कार्यरत लोक सेवक संविधान के ट्रस्टी हैं। उनके पास संविधान में कोई बदलाव कर देश में अराजकता फैलाने का अधिकार नहीं है। देश को अराजकता की ओर धकेलना किसी भी जाति, धर्म या नागरिक के हित में नहीं है।
नए समूहों को शामिल करने का विरोध:
AJAK राजस्थान ने स्पष्ट किया है कि स्वतंत्रता के 70 वर्षों बाद भी अनुसूचित जाति/जनजाति की सूची में नई जातियों को शामिल करना उचित नहीं है। किसी भी SC/ST नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पत्र में कहा गया है कि यदि SC/ST नागरिकों को धर्म के आधार पर उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाता है, तो यह भारतीय संविधान का उल्लंघन होगा।
अनुसूचित जाति समुदायों की चुनौतियां:
पत्र में अनुसूचित जाति समुदायों के सामने आने वाली समस्याओं जैसे जातिगत अत्याचार, निजीकरण के कारण घटती नौकरी के अवसर, और सरकारी भर्ती में "नॉट फाउंड सूटेबल" (NFS) के रूप में अनुचित अस्वीकृति का उल्लेख किया गया है। संगठन ने जोर दिया कि संविधान इन ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में विशेष संरक्षण प्रदान करता है।
AJAK राजस्थान ने जस्टिस बालकृष्णन आयोग से अनुरोध किया है कि अनुसूचित जाति सूची में कोई भी बदलाव न किया जाए और मौजूदा SC समुदायों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए। संगठन ने धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को रोकने और अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जाति सूची को संरक्षित करने की मांग की है।
पत्र के अंत में संगठन ने कहा कि अनुसूचित जाति समुदायों के हितों की रक्षा करना न केवल संवैधानिक कर्तव्य है, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।