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झारखंडः सिक्योरिटी गार्ड से पीएचडी तक, जानिए एक दलित लड़के का संघर्ष

आनंद दत्त

रांची. जिले का एक दलित लड़का उमरेन सेठ अब प्रोफेसर बनने की राह पर है. हाल ही में उसने नेट पास किया है. रांची कॉलेज में उसने पीएचडी के लिए दाखिला लिया है. उमरेन की ये सफलता इसलिए भी खास है, क्योंकि इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उसने लगभग साढ़े नौ साल मजदूरी और अपार्टमेंट में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी की है.

उमरेन सेठ

झारखंड के रांची जिले के तेलवाडीह गांव निवासी उमरेन साल 2009 में दसवीं पास कर घर पर खेती-बाड़ी में लगा हुआ था. अगले साल एक दिन अचानक बिना किसी को बताए घर से निकल गया. पहली बार रांची पहुंचा. जिसकी दूरी उसके घर से मात्र 65 किलोमीटर है.

एक दोस्त के सहारे मजदूरी करने एक कंस्ट्रक्शन साइट पर पहुंचा. उम्र और शरीर की बुनावट देख ठेकेदार ने पूछा ईंटा-बालू तो उठा नहीं पाओगे, मजदूरों को पानी पिलाने और छोटा मोटा काम ही कर लो. तय हुआ कि इसके एवज में प्रतिदिन 120 रुपए मजदूरी मिलेगी. उमरेन मान गया.

इधर, घरवाले परेशान कि बेटा गया कहां. पिता गया प्रसाद सेठ जमशेदपुर में मजदूरी करते थे. मां सबरी देवी गृहणी थी, जिसदिन घर से निकला था, वो किसी रिश्तेदार के यहां गई थी. उमरेन ने किसी दोस्त के माध्यम से मैसेज भिजवाया कि वह मजदूरी कर रहा है. अब यही करेगा. थोड़े मान मनौव्वल के बाद घरवाले मान गए.
उमरेन दी मूकनायक से बताते हैं, मैं हर दिन शाम पांच बजे तक काम निपटा लेता था. ताकि उसके बाद पढ़ाई कर सकूं. ऐसा करते हुए मैंने साल 2013 में 12वीं की परीक्षा पास कर ली.

इस बीच जिस कंस्ट्रक्शन साइट पर काम रहा था, वो अपार्टमेंट बनकर तैयार हो गया था. वहां रहने आए रांची कॉलेज के एक प्रोफेसर आनंद ठाकुर ने उमरेन से कहा कि, वह यहीं सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर ले. साथ ही पढ़ाई जारी रखे, जिसमें वह उसकी मदद करेंगे. कुल 3500 रुपए प्रति माह के पगार पर यहां काम शुरू किया.

उमरेन कहते हैं, अपार्टमेंट में रहनेवाले जल्दी काम से लौट जाते थे. ऐसे में शाम पांच बजे के बाद थोड़ा फ्री हो जाता था. यहीं काम करते और पढ़ाई करते साल 2016 में ग्रेजुएशन की डिग्री भी हासिल कर ली.

यहां तक पहुंचने के बाद उमरेन प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गए. दो साल तैयारी की. लेकिन नौकरी करते हुए, वह पूरे मन से पढ़ाई नहीं कर पा रहे थे. उमरेन के मुताबिक शायद यही वजह रही कि मैं कोई परीक्षा पास नहीं कर सका. जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैंने फिर पीजी में दाखिला ले लिया.

दाखिला लेने के कुछ महीने बाद, वह गार्ड की नौकरी छोड़, 1200 रुपए के किराए वाले एक छोटे से कमरे में रहने लगे. यहां उनके पास अपनी कमाई का कोई साधन नहीं था. बड़े भाई ने कहा कि वह जरूरत भर का पैसा भेज दिया करेंगे, वह पढ़ाई करें. कोई दोस्त महीने का किराया दे दिया करता तो कोई मोबाइल रिचार्ज करा दिया करंता.

उमरेन ने आगे बताया कि साल 2019 में, मैंने पीजी में दाखिला ले लिया. तय किया था कि रेग्यूलर क्लास करूंगा. लेकिन पढ़ाई के दौरान बहुत कम चीजें समझ में आती थीं. शिक्षकों से पूछता था, तो आस-पास के छात्र हंसने लगते थे. लेकिन मुझे पता था कि मेरे पास जानकारी नहीं है. दोस्तों की मदद से मैंने खूब मेहनत की और चीजों को समझने लगा.

वो कहते हैं, इस साल हम इतना पढ़े, जितना जीवन में कभी नहीं पढ़े थे. समझिए कि जान लगा दिए. पढ़ाई चल ही रही थी, इस बीच लॉकडाउन लगा और दोस्त भी मदद नहीं कर पा रहे थे.

उमरेन कहते हैं, मैं रांची छोड़कर गांव चला गया. यहां दोपहर तक खेती करते थे, उसके बाद फिर पढ़ाई में लग जाते थे. हमारे पास खेती लायक बहुत कम जमीन है, उतना है जिससे साल भर का धान मिल जाता है. सब्जी और बाकि चीजें बाजार से ही खरीदनी पड़ती है.

हालांकि इस बीच पढ़ाई जारी रखी और मास्टर डिग्री पूरा किया. इसी दौरान पता चला कि नेट परीक्षा भी होती है. इससे पहले कभी इसके बारे में सुना नहीं था. कुछ दोस्तों से बात कर नेट और उससे होनेवाले लाभ के बारे में जानकारी ली. पीएचडी से क्या होगा, यह भी पहली बार पता चला.

मैंने मेहमानों के यहां जाना छोड़ दिया. मोबाइल इस्तेमाल करना कम कर दिया और लग गए तैयारी में. साल 2020 में नेट का परीक्षा दिए. डेढ़ साल के बाद पता चला कि लिस्ट में मेरा भी नाम है. अब मुझे ये नहीं पता था कि सिनोप्सिस क्या होता है, शोध क्या होता है, कैसे लिखना होता है, कुछ भी पता नहीं था. धीरे-धीरे पूछ-पूछ कर पता किए. लगा कि संभव है.

दलितों की स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं.

इस सवाल के जवाब में उमरेन कहते हैं, पहले तो इन सब चीजों को समझते नहीं थे. सब कुछ नॉर्मल लगता था. गांव में किसी अपर कास्ट दोस्त के घर में कोई समारोह होता था तो सबकुछ इंतजाम करके आते थे, लेकिन खाना खिलाने के समय वहां से निकल जाते थे. पहले तो पता नहीं था कि क्यों निकल जाते थे, बाद में समझ आने लगा.
हाल ही में उमरेन ने ओमप्रकाश बाल्मिकी की लिखी किताब जूठन पढ़ी है. वो कहते हैं, इसको पढ़ते-पढ़ते कई बार रोना आया. लगा ही नहीं कि आज के समय में भी दलितों के साथ इस तरह का शोषण होता है.
वो ये भी कहते हैं कि, भगवान थोड़े नहीं जाति बनाकर भेजता है. यहां पर लोगों ने बांट दिया है. लेकिन दलितों को किसी के दवाब से पीछे नहीं हटना चाहिए. उन्हें आगे बढ़ना ही होगा. इसलिए लगना होगा, मेहनत करनी होगी. मैंने अब्राहम लिंकन को पढ़ा है, अंबेडकर को पढ़ना शुरू किया है. हम दलितों को भी उनकी तरह मेहनत करना ही होगा.
प्रोफेसर बनने का मन बना उमरेन बिना शोर-शराबे के लग चुके हैं पढ़ाई करने में. उन्हें अपना लक्ष्य साफ नजर आ रहा है.

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