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दलित बच्चे की आंखों से देखिए आज़ाद भारत की वो सच्चाई, जिसे मुख्यधारा ने हमेशा छुपाया – पढ़िए ‘उजला अँधेरा’ की झकझोर देने वाली कहानी

आधुनिक भारत में बसने वाली दलित बस्तियों की संजीदा कहानी कहने वाली कैलाश वानखेड़े द्वारा लिखी गई किताब — उजला अँधेरा, हमारे आसपास के सामाजिक ताने-बाने को समझाने में खूब मदद करती है. “हंस कथा सम्मान” और “मधुकर सिंह स्मृति सम्मान” से सम्मानित मध्य प्रदेश के चर्चित कहानीकार कैलाश वानखेड़े का उजला अँधेरा उपन्यास पाठकों को शहर से दूर बसने वाले दलित बस्तियों के नागरिकों के बीच समानता, स्वतंत्रता, दैनिक जीवन के संघर्षों से परिचय कराता है.

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उजला अँधेरा उपन्यास में, मिलिन्द नाम का एक छोटा बच्चा अपने दलित बस्ती की रोजमर्रा की जिंदगी की कहानी पेश करता है. उसका एक छोटा परिवार होता है. उसके पिता आंबेडकरवादी, कर्मठ और दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति होते हैं. गरीबी के बावजूद वह गलत कार्यों के खिलाफ मुखर होते हैं और संविधान और उसके शिल्पकार डॉ. आंबेडकर में आस्था रखते हैं. घर में सुविधाओं का अकाल होता है लकिन आंबेडकर जयंती के दिन बस्ती के बच्चों में लड्डू बांटना नहीं भूलते.

उपन्यास की शुरुआत उस छोटे बच्चे के अपने खुद के पारिवारिक ढांचे, दलित बस्ती की अवस्थिति, वहां का परिवेश, वातावरण और मान्यताओं से होती है. बच्चे के पिता पंचर हुए साइकिल की मरम्मत का कार्य करते हैं, उसका बड़ा भाई पिता के काम में हाथ बंटाता है और घर में गृहणी के रूप में उसकी माँ और आजी (दादी) होती हैं.

गरीब और हाशिए के समाज के परिवार में महिलाओं की स्थिति के बारे में, लेखक उस बच्चे के हवाले से कहते हैं कि, "माँ की पक्की सहेली शाम है जो आने से पहले माँ को बता देती है। शाम होने के बाद माँ घर के भीतर काम करने वाली मशीन में बदल जाती है। माँ की ज़बान बोलना बन्द कर देती है। हाथ तेज़ी से काम करना शुरू कर देते हैं। घर बिखरा हुआ है। बिखरी हुई चीजों को समेटती हुई माँ को देखकर लगता है, घर को ठीक रखना क्या सिर्फ़ माँ की ड्यूटी है? बाकी लोग चीजों को बिखेरने के लिए बने हुए हैं!"

वह बच्चा अपने घर, परिवार, बस्ती के लोगों और उस बस्ती के लोगों के प्रति समाज के अन्य लोगों की सोच के बारे में भी मर्मिक ढंग से बात करता है. हाशिए के समाज के लिए वर्तमान सरकारों की अनदेखी पर एक कटाक्ष के रूप में, इस उपन्यास में वह बताता है कि कैसे दलित बस्तियों में बरसात के मौसम में बस्ती के घरों की दुर्दशा हो जाती है. खाना पकाने के लिए सिर्फ लकड़ी का सहारा होता है. माँ उसी से मर-खपकर परिवार के लिए गरमा-गरम खाना बनाती है. नित्य क्रिया के लिए घर में शौचालय नहीं होते तो वह कम खाती है, कम पानी पीती है, ताकि उसे दिन में घर से बाहर न जाना पड़े. उपन्यास की कहानी यह सीख भी देती है कि दलित परिवारों की महिलाएं आखिर कम क्यों जीतीं हैं.

उपन्यास में बताया गया है कि आज़ादी के बाद भी लोग दलितों से क्यों नफरत करते हैं. इसकी एक घटना उपन्यास की कहानी में भी बताई गई है. जिस लड़के के द्वारा अपने परिवार और समाज की कहानी कही जाती है वही लड़का एक बार अपने चाचा के बेटे की शादी में जाता है. दूल्हे को घोड़ी पर बैठाकर बारात निकलती है. जब बारात सवर्णों के घरों के सामने से होकर गुजरती है उनपर हमला कर दिया जाता है. सभी बारातियों के साथ मारपीट की जाती है. और यह कहकर धमकाया जाता है कि, “दलितों को घोड़ी पर चढ़ने के कोई रस्म नहीं है. तो आखिर तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई घोड़ी पर बारात निकालने की.” 

अंततः बारात लौटानी पड़ती है. पूरी बारात स्थानीय थाने पर पहुंचती है. सारे बाराती थानेदार के सामने हाथ जोड़ते हैं कि उन्हें घोड़ी पर बारात निकालने के लिए सुरक्षा दी जाए, लेकिन थानेदार भी वही पुराने चलन का हवाला देकर उन्हें सुरक्षा देने से कतराता है. उसी रात वहां दलित समाज के मंत्री भी पहुंचते हैं, जो बारात में आमंत्रित होते हैं. मंत्री भी अपने समाज के लोगों की बारात को सुरक्षा मुहैया कराने पर जोर देते हैं लेकिन एक के बाद एक बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों के वहां पहुंचने के साथ मंत्री को बड़ी होशियारी से वहां से हटा दिया जाता है, ताकि वह उनपर प्रेसर न बना पाएं. इस तरह सुबह हो जाती है. दलित समाज के दूल्हे की घोड़ी पर बारात निकालने के अरमान टूट चुके होते हैं.

उस समय की तस्वीर को पेश करते हुए किताब बताती है कि, 

“पुलिस प्रशासन के अफसर थाने के पीछे वाले दरवाजे से आ जा रहे हैं। वे भीड़ के सामने से जाने की हिम्मत जुटाने में लगे हुए हैं। उन्हें अभी भी भरोसा है कि बाराती मान जाएंगे। घोड़ी से बारात निकालने की जिद छोड़ देंगे। वे अपने अनुभव से मानते हैं कि जनता एक समय के बाद निराश हो जाती है। उसका उत्साह समाप्त हो जाता है। वक्त की मार से मांग मर जाती है। जिद का स्वर ठंडा पड़ जाता है। जीवन इस तरह से उलझा हुआ है की दाल-रोटी, बेटा-बेटी और रिश्तेदार के बीच अनिर्णय के दलदल में उलझ जाता है। अपने सपने-संकल्प को जिस जगह रखता है उस जगह को भूल जाता है। वह कहीं का नहीं रहता है।”

उपन्यास यह भी बताती है कि कैसे दलित बस्तियों में बसने वाले लोगों में शिक्षा की कमी के कारण उन्हें हर जगह, हर जीवन के मोड़ पर अपमानित, तिरस्कृत और बेइज्जत किया जाता है. बिमारियों में समुचित इलाज के लिए लोग तरसते हैं. पैसों की कमी की वजह से बस्ती के लोग उन सस्ती और प्रतिबंधित दवाओं को लेने पर मजबूर होते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य को और अधिक हानि होती है. 

लगातार उपेक्षाओं का शिकार होने वाले दलित बस्तियों के लोगों के बारे में, कहानी के मध्य में लेखक कहते हैं,

लिखने वालों ने लिखने-बोलने के लिए अपनी भाषा बनाई। अपने आप को श्रेष्ठ, ज्ञानी माना। सर्वश्रेष्ठ मनवाने के लिए डर, घृणा, हिकारत को अपने गले में लटका लिया। उन्होंने बोली बोलने वाले को कमतर घोषित किया। उन्हें अपने देस-बस्ती गांव से बाहर कर दिया। जो था, यहां का, उसे बाहर करने के लिए किताबें बनाई। ऐसे शब्दों को बनाया गया जो लोग बोलते नहीं थे। उन शब्दों को जीते नहीं थे। उनके समाज जीवन में वे शब्द किताबों में नहीं थे। वे शब्द जीवन में नहीं थे, वो धड़कन थी, खुशी और दु:ख, प्रेम और शांति थी, उन शब्दों को शब्दकोश में जगह नहीं दी गई। 

समूचे समाज और जीवन के खिलाफ रचा गया षड्यंत्र है शब्दकोश। अगर जन के, जान के शब्दकोष में होते, तो यह दुनिया होती बेहद खूबसूरत। तब इस दुनिया में होती मोहब्बत, प्रेम, दोस्ती और उल्लास के साथ समता, समझ, एक साझा घुला-मिला जीवन और समाज। 

मनुष्य की गरिमा को खंडित करने के लिए उन्होंने अपनी भाषा को औजार की तरह इस्तेमाल किया। औजार जीवन देते थे लेकिन भाषा बनाने वालों ने औजार से जान लेना शुरू कर दिया। अब औजार से लकड़ी नहीं कटती थी, मनुष्य काटे जाते थे। उस कटी हुई लकड़ी से भोजन बनता था, अब उन्होंने हिकारत और नफरत को पकाना शुरू कर दिया।

श्रेष्ठ बताते-बताते किताबों में भगवान, धर्म का घालमेल कर दिया। किताबें सुख दे सकती थीं, सपने रच सकती थीं। किताबों से दुनिया बेहतर बनाई जा सकती थी लेकिन उन्होंने किताबों से बनाए मंत्र, तंत्र, व्यवस्था, ओहदे, पद, पदवी, ऊँच-नीच, पाप-पुण्य, पवित्र-अपवित्र, नैतिक-अनैतिक चरित्र। मनुष्य और मनुष्यता को किताबों से बाहर कर दिया गया।

इन्हीं किताबों से दूरियाँ बढ़ती गईं। इन्हीं किताबों में नफ़रत, हिंसा को आश्रय दिया गया। इन्हीं किताबों के सहारे समाज को बाँट दिया। इन्हीं में से निकली श्रेष्ठता की ग्रन्थि। श्रेष्ठता ग्रन्थि को पाला-पोसा गया। इतना बड़ा किया कि वे मनुष्य नहीं रह गए। वे मनुष्य रहना नहीं चाहते थे। वे मनुष्य के बजाय देवता बनना चाहते थे। वो देवता जो जन्म लेता है, उस पुरुष के माध्यम से जो खुद को श्रेष्ठ मानता था, जो खुद को मनुष्य कहलाना नहीं चाहता था।

वे चाहते हैं शब्दकोश के भीतर बन्द शब्द ही बोले जाएँ और सुने जाएँ। शब्दकोश बनाने वालों में क्या हमारे पूर्वज शामिल थे? वे कौन-कौन थे जिन्होंने शब्दकोश को इतना बड़ा मोटा और जटिल बना दिया? क्या बेहतर जीवन जीने के लिए इतने शब्दों की आवश्यकता है? खुश, खिलखिलाहट भरे, स्वस्थ जीवन को जीने के लिए कितने शब्द जरूरी हैं? अगर यह पूरे समाज का शब्दकोश है, तो मेरे घरवाले, गली वालों के शब्द इसमें शामिल क्यों नहीं हैं? गाँव शहर से बाहर कर दी गई हमारी बस्ती की तरह हमारे शब्दों को बेदखल कर दिया गया है। जहाँ समतामूलक समाज बनाया जा सकता है, वहाँ विभाजनकारी विरासत के साथ समाज को बाँट दिया।

श्रेष्ठता का राग अलापते हुए उन्होंने बोली को हिकारत और कमतरता के जहर से मारना शुरू कर बोली-भाषा की मौत का इन्तजाम किया। बोली-भाषा मर जाएगी तो मनुष्य कैसे जीवित रह सकता है? बोली का संकट, मनुष्य और मनुष्यता का संकट है।

कहानी में बच्चा बताता है कि कैसे उसके स्कूल की एक शिक्षिका उसके बस्ती के लोगों को “गंदे लोग” कहकर संबोधित करती है. जिससे परेशान और अपमानित वह बच्चा घर आकर अपने पिता और परिजनों से ऐसा बोलने क पीछे की वजह तलाशता है. और यह भी कि, जब भी आसपास चोरियां होती हैं तो दलित बस्ती के युवाओं के सिर पर सारे इल्जाम पुलिस मढ़ देती है, जिससे बस्ती के युवाओं को कई-कई महीनों जेल में रहना पड़ता है. 

उपन्यास दलित बस्तियों की आपसी आम बोलचाल की भाषा में संबंधों, बचपन के क्रिया कलापों और अरसों से चली आ रही रूढ़ियों की भी पड़ताल करती है. बेहतर इलाज की कमी के चलते उस बच्चे के बड़े भाई की मौत हो जाती है, पिता भी मरणासन्न की स्थिति में पहुंच चुके होते हैं. 

एक पाठक के नजरिए से यह उपन्यास और भी आगे लिखा जाना चाहिए था. पढ़कर ऐसा लगता है कि कई सवालों के जवाब अभी अधूरे हैं, उपन्यास ख़त्म होने के बाद भी मन में एक जिज्ञासा की स्थिति बन जाती है.

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