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राष्ट्र-निर्माण में आदिवासी: DU प्रोफेसर की नई किताब में पहली बार पाठक जानेंगे आदिवासी नायक-नायिकाओं का बलिदान

नई दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर डॉ. जितेंद्र मीणा की नई पुस्तक राष्ट्र-निर्माण में आदिवासी अगले माह प्रकाशित होने जा रही है, जो भारत के राष्ट्र-निर्माण में आदिवासी समुदायों के अनसुने योगदान को पहली बार एक ठोस और दस्तावेजी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। करीब साढ़े तीन-चार साल के गहन शोध के बाद तैयार इस पुस्तक में आठ राज्यों के बारह आदिवासी नायकों की कहानियाँ शामिल हैं, जिनमें तात्या भील, बिरसा मुंडा, और जयपाल सिंह जैसे कुछ परिचित नामों के साथ-साथ कई ऐसे नायक भी हैं, जिनके बारे में मुख्यधारा के इतिहास में शायद ही कोई जानकारी उपलब्ध हो।

द मूकनायक से बातचीत में डॉ. मीणा ने बताया कि पढाई के दिनों में जब भी मेकर्स ऑफ़ थे नेशन या राष्ट्र निर्माण में योगदान पर किताबें देखते थे, सभी में गर आदिवासी नायक-नायिकाएं होती थी, आदिवासी नेतृत्व का जिक्र नहीं मिलता था। हाल की कुछ किताबों में भी यही देखने को मिलता है।

इस पुस्तक की प्रेरणा उन्हें तब मिली जब उन्होंने रामचंद्र गुहा की मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया और सुनील खलनानी की इनकार्नेशन जैसी किताबों में आदिवासी नेताओं की अनुपस्थिति देखी। मीणा कहते हैं, "इनकार्नेशन में करीब 50 लोग शामिल हैं लेकिन एक भी आदिवासी नहीं था , यही हाल गुहा साहब की पुस्तक के साथ भी था ". उन्होंने सवाल उठाया, “क्या राष्ट्र-निर्माण में हमारा कोई योगदान नहीं? सबसे शुरुआती और सबसे लंबे समय तक चलने वाला संघर्ष -आदिवासियों का संघर्ष है लेकिन किसी किताब में इसका जिक्र नहीं।” इस सवाल ने उन्हें कोविड काल में इस किताब की शुरुआत करने के लिए प्रेरित किया, और चार साल की अथक मेहनत के बाद यह पुस्तक अब पाठकों के सामने है।

मीणा कहते हैं, " "इतिहास में किसी को नज़रअंदाज़ करना, वर्तमान में उसकी हिस्सेदारी छीनने का सबसे बड़ा तरीका होता है। यह पुस्तक उसी ऐतिहासिक अन्याय के विरुद्ध एक सशक्त हस्तक्षेप है जो सदियों से भारत के आदिवासी समुदायों के साथ होता आया है। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक फैले इन समुदायों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ सबसे शुरुआती और सबसे दीर्घकालिक विद्रोह किए, लेकिन मुख्यधारा के इतिहास में उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। 'राष्ट्र-निर्माण में आदिवासी' सिर्फ एक इतिहास पुस्तक नहीं, बल्कि एक वैचारिक यात्रा है जो हमें भारत के भूले-बिसरे जननायकों से मिलवाती है।

डॉ. मीणा का मानना है कि आदिवासी समुदाय का दर्द, उनका शौर्य और संघर्ष सबसे बेहतर एक आदिवासी ही व्यक्त कर सकता है, क्योंकि यह अनुभूति पर आधारित है, न कि सहानुभूति पर। उन्होंने कहा, “एक गैर-आदिवासी सहानुभूति तो जता सकता है, लेकिन उस दर्द की अनुभूति नहीं कर सकता, क्योंकि वह उस संघर्ष से वाकिफ नहीं।” इस दृष्टिकोण से यह पुस्तक और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि यह एक आदिवासी लेखक की नजर से लिखी गई है, जो अपने समुदाय के अनुभवों को गहराई से समझता है।

यह पुस्तक न केवल आदिवासियों के ऐतिहासिक संघर्षों और बलिदानों को उजागर करती है, बल्कि यह भी कोशिश करती है कि भील, गोंड, संथाल जैसे विभिन्न आदिवासी समुदाय एक-दूसरे के योगदान को जानें और पहचानें। डॉ. मीणा के अनुसार, यह पुस्तक आदिवासी समुदायों के बीच एक साझा चेतना और पहचान को मजबूत करने का प्रयास है।

बारह व्यक्तित्वों में केवल दो महिला नायिकाएं

पुस्तक में बारह व्यक्तित्वों में केवल दो महिला नायिकाओं का उल्लेख है। इस पर लेखक का कहना है कि आदिवासी आंदोलन में महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों की व्यापक भागीदारी थी, जो सबसे लंबे समय तक चले स्वतंत्रता आंदोलनों में से एक था। हालांकि, इतिहास लेखन में तथ्यात्मक और दस्तावेजी साक्ष्यों की कमी के कारण कई महिला नेत्रियों के नाम और योगदान दर्ज नहीं हो सके। किताब में तिलका मांझी, तिरोत सिंह, गोकुल मीणा और भुवना मीणा, बाबू राव शेडमाके, शंकर शाह रघुनाथ शाह, टंट्या भील, बिरसा मुंडा, रानी रोईपुलियानी, गुंडाधुर, कोमरम भीम, जयपाल सिंह और काली बाई भील शामिल हैं।

डॉ. मीणा ने जोर देते हुए कहा “इतिहास लेखन में साहित्य की तरह कल्पना का सहारा नहीं लिया जा सकता; यह पूरी तरह प्रमाणों पर आधारित होता है।” पुस्तक में पूर्वाग्रहों और भावनात्मक प्रभाव से बचने के लिए नायकों और नायिकाओं के वंशजों से मुलाकात या उनके ब्योरे को शामिल नहीं किया गया, हालाँकि उनके वंशज आज भी मौजूद हैं। यह पुस्तक कई अनसुने और रोचक तथ्यों को सामने लाती है, जैसे कि “जल, जंगल, जमीन” का नारा किसने दिया ? किस आदिवासी नेता को न्यूयॉर्क टाइम्स ने “रॉबिनहुड” की उपमा दी थी, या कैसे गोकुल मीणा और भुवना मीणा जैसे नेताओं के आंदोलनों को दबाने के लिए अंग्रेजों को मेवाड़, कोटा और आमेर की सेनाओं की सहायता लेनी पड़ी। अंग्रेज़ कलेक्टर की हत्या एक आदिवासी ने की थी या कौन थे गुंडाधुर जिनके नाम पर अंग्रेजों ने बना दिया 'गुंडा एक्ट'? ऐसे कई अनजाने रोचक बातों को यह किताब सामने लाएगी।

डॉ. मीणा का प्रयास है कि इस पुस्तक का विमोचन होने के बाद इसे विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरी और सार्वजनिक वाचनालयों में उपलब्ध करवाया जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा युवाओं तक आदिवासी नायकों और नायिकाओं की शौर्य गाथाएँ और उनके बलिदानों की कहानियाँ पहुँच सकें।

इस पुस्तक को अमेजन पर प्री बुक किया जा सकता है जिसका लिंक है:- https://amzn.in/d/73mfdvV

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