भोपाल। 2-3 दिसंबर, 1984 की रात भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी को 40 साल पूरे हो गए हैं। यह घटना दुनिया की सबसे भयावह औद्योगिक आपदाओं में गिनी जाती है। बावजूद इसके, पीड़ितों की स्थिति आज भी बदहाल है। सरकारी वादे और जमीनी सच्चाई के बीच की खाई ने त्रासदी के घावों को भरने नहीं दिया।
गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड परिसर में दबे जहरीले कचरे ने पीड़ितों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। वर्ष 2018 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च, लखनऊ द्वारा जारी रिपोर्ट ने पुष्टि की थी कि कारखाने के आसपास के भूजल में हेवी मेटल और ऑर्गनो क्लोरीन मौजूद हैं। ये तत्व कैंसर और किडनी से जुड़ी बीमारियों का कारण बन सकते हैं।
रिपोर्ट में 42 बस्तियों के भूजल की जांच की गई थी, जिसमें प्रदूषण के खतरनाक स्तर का खुलासा हुआ। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इन क्षेत्रों में नर्मदा जल की आपूर्ति शुरू की गई। हालांकि, पर्यावरण कार्यकर्ताओं का दावा है कि प्रदूषण प्रभावित क्षेत्र इससे आगे भी बढ़ चुका है।
गैस पीड़ित संगठनों के मुताबिक, रैपिड किट से की गई जांच में कारखाने के तीन किलोमीटर दायरे में आने वाली 29 अन्य कॉलोनियों में भी ऑर्गनो क्लोरीन पाया गया है। लेकिन, इस पर बड़े पैमाने पर जांच और कार्रवाई की जरूरत है।
जहरीला कचरा से लोग हो रहे बीमार!
भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की संचालक रचना ढींगरा ने 'द मूकनायक' से बातचीत में बताया कि त्रासदी से पहले ही यूनियन कार्बाइड परिसर में गड्ढे बनाकर जहरीला रासायनिक कचरा दबा दिया जाता था। इसके अलावा, तीन तालाबों में पाइपलाइन के जरिए जहरीले अपशिष्ट को छोड़ा जाता था। आज भी यह कचरा जमीन के भीतर मौजूद है और जल स्रोतों को दूषित कर रहा है।
सरकार ने कारखाने में मौजूद कचरे को नष्ट करने के लिए 126 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया है, जिसे पीथमपुर में जलाया जाना है। लेकिन इस प्रक्रिया में देरी और पारदर्शिता की कमी के चलते अब तक ठोस समाधान नहीं निकला है।
पुनर्वास योजनाओं में विफलता
गैस पीड़ितों के पुनर्वास के लिए 2010 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 272 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की गई थी। इसमें 75% हिस्सा केंद्र सरकार और 25% हिस्सा राज्य सरकार का था। लेकिन 14 साल बाद भी इस राशि का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाया है।
गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग अब तक इस राशि को खर्च करने की ठोस योजना नहीं बना पाया है। आर्थिक पुनर्वास के लिए मिले 104 करोड़ रुपये में से केवल 18 करोड़ रुपये स्वरोजगार प्रशिक्षण पर खर्च किए गए, बाकी राशि बिना उपयोग के पड़ी है।
सामाजिक पुनर्वास के लिए आवंटित 40 करोड़ रुपये में विधवाओं को पेंशन देने का प्रावधान है। फिलहाल 4399 महिलाओं को पेंशन दी जा रही है, लेकिन 2011 से यह राशि मात्र 1000 रुपये प्रति माह है। इसे बढ़ाने या नए लाभार्थियों को शामिल करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है।
जन आंदोलनों का संघर्ष जारी
गैस पीड़ितों के लिए काम कर रहे संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता लगातार सरकार से उनकी समस्याओं का समाधान करने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जहरीले कचरे का निस्तारण और प्रदूषित भूजल की नए सिरे से जांच प्राथमिकता होनी चाहिए।
आखिर कब मिलेगा न्याय?
भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक बाद भी पीड़ितों का संघर्ष जारी है। न केवल वे अपने स्वास्थ्य और जीविका के लिए जूझ रहे हैं, बल्कि सरकारी योजनाओं और न्याय की लड़ाई में भी खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। यह त्रासदी न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी है कि औद्योगिक लापरवाही कितनी विनाशकारी हो सकती है।
जानिए क्या था भोपाल गैस कांड?
1984 में दो दिसंबर की रात को भोपाल में मौत ने ऐसा तांडव मचाया कि आज तक उसके जख्म नहीं भर सके हैं। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से हुई जहरीली गैस के रिसाव से रात को सो रहे हजारों लोग हमेशा के लिए मौत की नींद सो गए। इससे पूरे शहर में मौत का तांडव मच गया। मरने वालों की संख्या 16,000 से भी अधिक थी। मौत के बाद भी हजारों की संख्या में जो लोग जहरीली गैस की चपेट में आए वह आज तक इसका दंश झेल रहे हैं।
उस रात गैस त्रासदी से करीब पांच लाख जीवित बचे लोगों को जहरीली गैस के संपर्क में आने के कारण सांस की समस्या, आंखों में जलन या अंधापन, और अन्य विकृतियों का सामना करना पड़ा। त्रासदी का असर लोगों की अगली पीढ़ियों तक ने भुगता। गैस त्रासदी के बाद भोपाल में जिन बच्चों ने जन्म लिया उनमें से कई विकलांग पैदा हुए तो कई किसी और बीमारी के साथ इस दुनिया में आए। ये भयावह सिलसिला अभी भी जारी है और प्रभावित इलाकों में कई बच्चे असामान्यताओं के साथ पैदा होते रहे हैं।