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जिनेवा की प्रयोगशाला में अहम शोध करने वाले दलित वैज्ञानिक को DU ने प्रोफेसर बनने के लिए पाया 'अनुपयुक्त', Ambedkarites बोले— क्या यह खुला जातिवाद नहीं?

दिल्ली- यूरोप की मशहूर फिजिक्स लैब CERN में अहम प्रयोगों में हिस्सा ले चुके दिल्ली यूनिवर्सिटी (DU) के एक दलित फैकल्टी मेंबर डॉ. अशोक कुमार को प्रोफेसर पद पर प्रमोशन के लिए "उपयुक्त नहीं" (NFS) घोषित कर दिया गया है। इस फैसले पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह उनकी जाति के कारण हुआ है।

यह निर्णय उनके दलित समुदाय से होने के कारण पक्षपातपूर्ण होने के आरोपों को जन्म दे रहा है। डॉ. कुमार ने ना केवल यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन (European Organization for Nuclear Research) में महत्वपूर्ण प्रयोगों में योगदान दिया है बल्कि उनकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ असाधारण हैं। फिर भी, डीयू के चयन पैनल ने उनके दो जूनियर सहयोगियों को पदोन्नति दे दी, जिससे यह विवाद और गहरा गया है।

गौरतलब है कि 1954 में स्थापित CERN प्रयोगशाला जिनेवा के पास फ्रेंको-स्विस सीमा पर स्थित है। यह यूरोप के पहले संयुक्त उद्यमों में से एक था और अब 24 सदस्य देश और 10 सहयोगी सदस्य देश हैं।यह दुनिया में सबसे बड़ी कण भौतिकी प्रयोगशाला संचालित करता है। 

कौन हैं डॉ. अशोक कुमार?

डॉ. अशोक कुमार डीयू के भौतिकी और खगोल भौतिकी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उन्होंने CERN में वैज्ञानिक और तकनीकी समन्वयक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी शोध उपलब्धियों को उनके h-इंडेक्स से मापा जा सकता है, जो 120 है, जबकि भारतीय प्रोफेसरों का औसत h-इंडेक्स 20 से कम है।

h-इंडेक्स एक शोधकर्ता की उत्पादकता और प्रभाव को मापने का एक पैमाना है, जो उनके प्रकाशनों को मिले उद्धरणों (citation) की संख्या को दर्शाता है। इसके अलावा, डॉ. कुमार को 2025 में 3 मिलियन डॉलर के ब्रेकथ्रू पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, जो भौतिकी में उनकी उत्कृष्टता को दर्शाता है।

पदोन्नति में विवाद

इस साल जून में DU के कुलपति योगेश सिंह की अध्यक्षता में एक चयन पैनल ने तीन एसोसिएट प्रोफेसरों का साक्षात्कार लिया, जो करियर उन्नति योजना के तहत प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन कर रहे थे। पैनल में चार विषय विशेषज्ञ, एक अनुसूचित जाति (SC) समुदाय के प्रोफेसर और एक विजिटर नामित व्यक्ति शामिल थे। साक्षात्कार के बाद पैनल ने डॉ. कुमार को "अनुपयुक्त" घोषित किया और उनके दो जूनियर सहयोगियों को पदोन्नति दे दी। यह निर्णय कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था, क्योंकि डॉ. कुमार की शैक्षणिक उपलब्धियाँ उनके सहयोगियों से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं।

सोशल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (SDTF) और नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ दलित ऑर्गनाइजेशंस (NACDOR) ने इस निर्णय को जातिगत भेदभाव का परिणाम बताया है। NACDOR के अध्यक्ष अशोक भारती ने कहा कि विश्वविद्यालयों में 90% "अनुपयुक्त" मामले अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) समुदायों से संबंधित हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि साक्षात्कार पैनल में अक्सर उच्च जाति के लोग शामिल होते हैं, जो गैर-सवर्ण उम्मीदवारों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं। SDTF ने भी चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और पक्षपात के मुद्दे उठाए हैं। उन्होंने मांग की है कि साक्षात्कारों को वीडियो रिकॉर्ड किया जाए और कुलपति इस्तीफा दें।

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कुछ समय पहले टिप्पणी करते हुए X पर लिखा था कि "अनुपयुक्त" घोषित करना नया "मनुवाद" है, जिसका उपयोग SC, ST और OBC समुदायों के योग्य उम्मीदवारों को शिक्षा और नेतृत्व के अवसरों से वंचित करने के लिए किया जा रहा है। संसद की SC/ST कल्याण समिति ने भी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS), नई दिल्ली में इस तरह की प्रथाओं की ओर ध्यान आकर्षित है।

चयन पैनल के एक विषय विशेषज्ञ ने निर्णय का बचाव करते हुए कहा कि यह सामूहिक निर्णय था। उन्होंने बताया कि डॉ. कुमार से उनके विषय ज्ञान और नेतृत्व कौशल को समझने के लिए सवाल किए गए थेऔर इस आधार पर निर्णय लिया गया लेकिन शैक्षणिक उपलब्धियों के मामले में डॉ. कुमार के अद्वितीय रिकॉर्ड को देखते हुए यह स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं लगता। कई लोग मानते हैं कि डॉ. कुमार की योग्यता को नजरअंदाज किया गया।

डॉ. अशोक कुमार का मामला भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव के गंभीर मुद्दे को उजागर करता है। उनकी असाधारण शैक्षणिक उपलब्धियों के बावजूद पदोन्नति से वंचित करना न केवल उनके करियर को प्रभावित करता है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि क्या योग्यता आधारित चयन प्रक्रिया वास्तव में निष्पक्ष है।

The Mooknayak ने इस मामले में DU के वाइस चांसलर और रजिस्ट्रार से उनका पक्ष जानने के लिए ईमेल भेजा गया है, जवाब प्राप्त होने पर स्टोरी को अपडेट किया जाएगा।

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