+

विवादों के बीच आज रिलीज हुई ‘फुले’, ज्योतिराव का किरदार निभाने वाले प्रतीक गांधी फिल्म को लेकर क्या सोचते हैं?

नई दिल्ली। शिक्षक, समाज सुधारक ज्योतिराव गोविंदराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित फिल्म ‘फुले’ विवादों के बीच आज शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। फिल्म में पत्रलेखा ने 'सावित्रीबाई फुले' की भूमिका निभाई है। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के साथ उन्होंने फैंस से फिल्म देखने की अपील की और कहा कि उनके हाथ निराशा नहीं लगेगी।

फिल्म से जुड़े एक पोस्टर को इंस्टाग्राम पर शेयर करते हुए अभिनेत्री ने कैप्शन में लिखा:

फिल्म निर्देशक अनंत महादेवन का आभार जताते हुए अभिनेत्री ने आगे लिखा, “मुझ पर विश्वास करने के लिए अनंत सर का धन्यवाद। आपकी फिल्म के सेट पर एक एक्टर के तौर पर शामिल होकर खुशी हुई।“

पत्रलेखा ने प्रतीक गांधी की तारीफ करते हुए लिखा, “आप सबसे बेहतरीन अभिनेताओं में से एक हैं प्रतीक, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप उन सबसे अच्छे और विनम्र लोगों में से एक हैं जिन्हें मैं जानती हूं और मुझे आपको अपना दोस्त कहने पर गर्व है।“

इसके साथ ही अभिनेत्री ने टीम के अन्य सदस्यों का भी आभार जताया।

'फुले' सामाजिक कार्यकर्ता ज्योतिराव गोविंदराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ और महिलाओं के शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी थी।

फिल्म में अभिनेता प्रतीक गांधी ने महात्मा फुले की भूमिका निभाई है। वहीं, पत्रलेखा सावित्रीबाई फुले की भूमिका में हैं।

जाहिर है कि, 'फुले' को लेकर देश भर में आक्रोश देखने को मिला था। ब्राह्मण समुदाय ने फिल्म के खिलाफ आपत्ति जताई और अपमानित करने का आरोप लगाया, देश भर में मचे हो-हल्ला के बाद सेंसर बोर्ड ने इसमें कुछ कट लगाए। वहीं, निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप का ब्राह्मणों पर दिया बयान भी विवादों में रहा था।

A scene from the film Phule
फुले फिल्म का एक दृश्य

एक भूले-बिसरे क्रांतिकारी को जीवंत करने की कोशिश — प्रतीक गांधी

स्मृतियों की राजनीति और इतिहास की खींचतान के दौर में, आगामी बायोपिक फुले हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम न केवल क्या याद रखते हैं, बल्कि कैसे याद रखते हैं। समाज सुधारक ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित इस फिल्म के केंद्र में हैं अभिनेता प्रतीक गांधी — जिन्होंने स्कैम 1992 में हर्षद मेहता की भूमिका से दर्शकों का दिल जीता था। अब वे एक ऐसे किरदार में नज़र आएंगे जिसके पास दृश्य साक्ष्य कम हैं, लेकिन नैतिक विरासत कहीं अधिक गहरी है।

द हॉलीवुड रिपोर्टर इंडिया से बातचीत में प्रतीक गांधी ने खुलकर साझा किया कि कैसे उन्होंने ज्योतिबा फुले को आत्मसात किया — शारीरिक और मानसिक रूप से, बिना उन्हें भगवान बना दिए, और एक ऐसे दौर में राजनीतिक सिनेमा करने के खतरे क्या हैं।

जब कोई तस्वीर नहीं, तब कैसे बने किरदार?

ज्योतिबा फुले के बारे में बहुत कम दृश्य सामग्री उपलब्ध है — न कोई वीडियो, और मुश्किल से कुछ तस्वीरें। ऐसे में प्रतीक गांधी ने किस तरह उनके व्यक्तित्व को समझा?

प्रतीक कहते हैं, “जैसा आपने कहा, कोई फुटेज नहीं है। जो कुछ भी है, वो एक प्रसिद्ध चित्र है — वही जिसमें लाल पगड़ी है, जिसे हम किताबों और अखबारों में देखते हैं। उस चित्र में उनकी भौंहों के बीच हल्की सी शिकन है, जो उन्हें दृढ़ व्यक्तित्व वाला दिखाती है। संयोगवश, मेरे चेहरे पर भी वही शिकन है — वहीं से मैंने शुरुआत की।”

इसके बाद उन्होंने उनकी शारीरिक बनावट और आदतों को समझने की कोशिश की — “वो अखाड़ों में जाते थे, कसरत करते थे, मजबूत कद-काठी के थे, लेकिन फिर भी कभी हिंसा में विश्वास नहीं किया। उनके लिए सबसे शक्तिशाली हथियार था — शिक्षा।”

A scene from the film Phule
फुले फिल्म का एक दृश्य

महापुरुष नहीं, इन्सान के रूप में चित्रण

इतिहास के महानायकों को अक्सर पूजनीय मान लिया जाता है। लेकिन एक अभिनेता के लिए चुनौती होती है — उन्हें इंसान के रूप में दिखाना।

प्रतीक कहते हैं, “अगर मैं चरित्र से सहानुभूति रखूंगा, तो कहानी के साथ न्याय नहीं होगा। मुझे सहानुभूति नहीं, समझ रखनी होती है। हमने इन्हें भगवान की तरह देखा है, लेकिन ये भी इंसान थे जिन्होंने मुश्किल दौर में साहसी फैसले लिए।”

प्रतीक मानते हैं कि इन महापुरुषों के सार्वजनिक जीवन को सब जानते हैं, लेकिन उनके मन और दिल में क्या चल रहा था — वही क्षेत्र है जहां एक कलाकार के लिए खोज की गुंजाइश होती है।

ज्योतिराव और सावित्रीबाई: एक अनदेखा रिश्ता

फिल्म का एक अहम लेकिन कम चर्चित पहलू है — फुले दंपत्ति का वैवाहिक संबंध। प्रतीक बताते हैं, “इतिहास में हमें इस रिश्ते की बहुत कम जानकारी है। लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट ने हमें एक नई केमिस्ट्री को समझने का मौका दिया — शारीरिक नहीं, बल्कि आपसी सम्मान पर आधारित केमिस्ट्री।”

इतिहास कहना आज के दौर में कितना मुश्किल?

आज जब कला पर लगातार सवाल उठते हैं, फुले जैसी फिल्में बनाना एक जोखिम भरा काम है।

प्रतीक कहते हैं, “बहुत दुखद और डरावना है ये सब। हम एक ज्यादा सहिष्णु देश थे। आज तो कोई भी बात, कोई भी रंग, किसी को भी आहत कर सकता है। ये एक तरह की पागलपन है।”

वो अपने अनुभव साझा करते हैं जब भवई (2021) के ट्रेलर को लेकर विवाद हुआ। वह कहते हैं, “मेरी मां — एक सेवानिवृत्त शिक्षिका — डर गई थीं। उन्हें लगा, 'क्या ज़रूरत थी ये सब करने की?'”

लेकिन फिर प्रतीक ने फैसला लिया कि डर के आगे कभी काम नहीं हो सकता। उन्होंने कहा, “अगर मैं हर बार सोचूंगा कि कौन नाराज़ हो सकता है, तो मैं कोई फिल्म नहीं कर पाऊंगा।”

क्या डर के बावजूद सच्चाई कहना ज़रूरी है?

फिल्म की रिलीज़ एक सप्ताह देरी से हो रही है — दुर्भाग्यवश, 11 अप्रैल को नहीं हो पाई, जो खुद फुले की जयंती थी।

प्रतीक कहते हैं, “हम सब चाहते थे कि फिल्म उसी दिन रिलीज़ हो। वो ऐतिहासिक होता। लेकिन फिर भी, ये हमारे इतिहास की कहानी है, जिसे हम स्कूलों में पढ़ते हैं। इसमें कोई एजेंडा नहीं है।”

प्रतीक कहते हैं कि वे फिल्में चुनते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि वे निष्पक्ष हों। “अगर मुझे लगता है कि कहानी किसी एक पक्ष की ओर झुकी हुई है, तो मैं उसका हिस्सा नहीं बनता।”

फुले से मिली प्रेरणा

आखिर में, प्रतीक गांधी इस फिल्म को केवल एक किरदार नहीं, बल्कि एक सीख मानते हैं।

उन्होंने कहा, “मैं भी इंसान हूं, मुझे भी प्रतिक्रिया देनी होती है। लेकिन अगर मेरी प्रतिक्रिया से पूरी फिल्म खतरे में पड़ जाए, तो क्या फायदा? प्रोड्यूसर, टीम, सबका श्रम — मैं सब पर पानी फेर दूं?”

उनका कहना है कि डर के बावजूद जो सही हो, उसे कहना और दिखाना ज़रूरी है — क्योंकि शायद यही फुले की असल विरासत है।

Trending :
facebook twitter