नई दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट में बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 को रद्द करने से संबंधित एक लंबित रिट याचिका की अंतिम सुनवाई 29 जुलाई को निर्धारित है। अधिवक्ता आनंद जोंधले ने बोधगया का दौरा करके बीटी एक्ट रद्द करने की याचिका को मजबूत करने वाले महत्वपूर्ण सबूत जुटाए हैं। जोंधले के अनुसार, यह मामला सिर्फ कानूनी प्रावधानों तक सीमित नहीं है, बल्कि अरबों-खरबों के घोटाले और बौद्ध विरासत की लूट से जुड़ा हुआ है, जिसे 29 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जाएगा।
2012 में बौद्ध भिक्षु भंते आर्य नागार्जुन शूराई ससाई और गजेंद्र महानंद पंतावने ने यह रिट याचिका (सिविल नंबर 0380/2012) दायर की थी, जिसमें अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती दी गई और मंदिर का विशेष रूप से बौद्ध प्रबंधन मांगा गया। याचिका एक दशक से अधिक समय तक सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं हुई थी।
बौद्ध पक्ष द्वारा महाबोधि महाविहार मुक्ति आन्दोलन के तहत गया में 12 फरवरी 2025 से भूख हड़ताल में बैठे बौद्ध भिक्षुओं की गिरती सेहत को देखते हुए तत्काल सुनवाई के लिए प्रार्थना पत्र लगाया गया था जिसके बाद 18 मई को जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले ने 12 साल की देरी के लिए सरकारी वकीलों को फटकार लगाई और स्पष्ट किया कि अब कोई और स्थगन नहीं दिया जाएगा। कोर्ट ने सभी पक्षों को इस बीच अपने-अपने हलफनामे और जवाबी हलफनामे दाखिल करने का निर्देश दिया, जो बिहार के बोधगया में महाबोधि मंदिर के प्रबंधन से संबंधित इस विवादास्पद मुद्दे को हल करने की दिशा में एक निर्णायक कदम है।
बोधगया में कोई सरकार या कानून नहीं, महंत माफिया का राज!
अधिवक्ता आनंद जोंधले ने बताया कि बोध गया विजिट के बाद उन्होंने जो अपनी आँखों से देखा और वहां व्याप्त घोटाले को समझा जिससे वे चकित रह गये। सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में महाबोधि मंदिर परिसर में पहला मंदिर बनवाया था, उनके द्वारा स्थापित महाबोधि विहार 25 हजार एकड़ में फैला था, जहाँ 84 हजार स्तूप और सोने की परत चढ़ी मूर्तियाँ थीं, लेकिन आज ये सब गायब हैं। आज भी कुछ टूटी फूटी मूर्तियां देखि जा सकती है जो गोल्ड प्लेटेड हैं लेकिन बाकी कहाँ गई? स्थानीय बौद्ध धर्मावलंबियों का सवाल है कि ये मूर्तियाँ आसमान में समा गईं या जमीन ने निगल लीं? जोंधले ने आरोप लगाया कि महंत परिवार का पूरे बोधगया पर कब्जा है और उन्होंने बेशकीमती मूर्तियों व स्तूपों को विदेशों में बेच दिया है।
उन्होंने यह भी बताया कि गया में जमीनों की कीमतें मुंबई-दिल्ली से भी ज्यादा हैं, ताकि बाहरी लोग वहाँ जमीन न खरीद सकें। जोंधाले कहते हैं कि आज करीब 165 देशों में बौध धर्म पहुंच चुका है, 30 - 40 देशों में बौध राजा शासन करते हैं, ऐसे में बौद्ध अनुयायी जब महाबोधि महाविहार आते हैं, हजारों डॉलर्स में डोनेशन देते हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए ही महंत परिवार यहाँ काबिज है और बौद्धों को मंदिर प्रबंधन से दूर रखा है।
जोंधले ने 'शंकराचार्य बौद्ध मठ' का भी जिक्र करते हुए बताया कि कैसे बौद्ध मूर्तियों को हिंदू देवी-देवताओं के नाम से प्रचारित किया जा रहा है, जबकि बौद्ध धर्म में 'मठ' की कोई अवधारणा नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि पिछले 150 सालों से महंतों के कब्जे वाले बोधगया में न कानून का राज है और न ही सरकार का, बल्कि महंतों के लोग डंडे लेकर रोड टैक्स वसूलते हैं, जिसका वीडियो सबूत भी जुटाया गया है।
जोंधले ने बौद्ध समुदाय से अपील की है कि वे बोधगया आकर अपनी विरासत बचाने के लिए महंतों और प्रशासन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएँ। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में पेश किए जाने वाले सबूतों से बीटी एक्ट रद्द करने की मांग को बल मिलेगा और यह साबित होगा कि बौद्ध धर्मावलंबियों को ही महाबोधि विहार का प्रबंधन सौंपकर इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाया जा सकता है। साथ ही, उन्होंने ईडी, सीबीआई और कस्टम विभाग से इस मामले की उच्चस्तरीय जाँच कराकर विदेशों में बेची गई मूर्तियों को वापस लाने की मांग की है।
क्या है महाबोधि महाविहार को लेकर विवाद ?
महाबोधि मंदिर, एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल और बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र तीर्थस्थल, इसके प्रशासन को लेकर लंबे समय से विवाद रहा है। 1949 के बोधगया मंदिर अधिनियम ने बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति (BTMC) की स्थापना की, जिसमें चार बौद्ध और चार हिंदू सदस्य शामिल हैं, और गया जिला मजिस्ट्रेट इसके पदेन अध्यक्ष हैं।
ऐतिहासिक रूप से, अधिनियम में यह प्रावधान था कि अध्यक्ष हिंदू होना चाहिए, जिसे 2013 में संशोधित कर गैर-हिंदू जिला मजिस्ट्रेट को भी अध्यक्ष बनने की अनुमति दी गई। हालांकि, अखिल भारतीय बौद्ध फोरम (AIBF) जैसे बौद्ध समूहों का तर्क है कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 29 और 30 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक मामलों को बिना किसी बाधा के प्रबंधन करने का अधिकार सुनिश्चित करते हैं।
महाबोधि मुक्ति आंदोलन के रूप में जाना जाने वाला यह आंदोलन मंदिर का पूर्ण प्रशासनिक नियंत्रण बौद्ध समुदाय को सौंपने की मांग करता है। इस आंदोलन की जड़ें 19वीं सदी के अंत में वेन. भंते अनागारिक धम्मपाल के प्रयासों से जुड़ी हैं, जिन्होंने मंदिर पर बौद्ध नियंत्रण को बहाल करने की पहल की थी, जो 16वीं सदी से गैर-बौद्ध प्रबंधन के अधीन था।