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स्त्रियों के पक्ष में डॉ. अंबेडकर ने मनुस्मृति के बारे में क्या लिखा?

25 दिसंबर को ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है, जिसे स्त्रीवादियों का एक समूह ‘भारतीय महिला दिवस’ के रूप में मनाने का आग्रह भी रखता रहा है. मनुस्मृति शूद्रों -अतिशूद्रों के साथ -साथ स्त्रियों को भी अपने विधानों का शिकार बनाता है. मनुस्मृति से मुक्ति स्त्री की मुक्ति के लिए भी एक पहल है, जिसकी शुरुआत 25 दिसंबर 1927 को डॉ. आम्बेडकर ने मनुस्मृति के दहन के साथ की थी. डॉ. आम्बेडकर ने अपने आलेख ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन‘ में स्त्रियों की दुर्दशा का विधान रचाते मनु स्मृति की खबर ली है. यहाँ हम आज मनुस्मृति दहन दिवस के अवसर पर इस आलेख का एक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं.

प्राचीन काल की नारी की स्थिति से तुलना करने पर हमें दिखाई देता है कि आज की नारी घोर पतन की स्थिति में पहुँच गयी है. राजनीति में उनके योगदान के सम्बन्ध में भले ही कुछ संदेह हो, परन्तु बौद्धिक तथा सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने ‘बहुत ही ऊँचा स्थान’ प्राप्त कर रखा था, इसमें कोई संदेह नहीं. अथर्ववेद में आये इस प्रंसग से कि ब्रह्मचर्य-काल पूरा करने के उपरान्त कन्या विवाह के योग्य मानी जाये, यह स्पष्ट होता है कि उस काल की नारी उपनयन की भी अधिकारिणी थी.

श्रोत-सूत्र से हमें विदित होता है कि स्त्रियों को वेदाध्ययन कराया जाता था और वे वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर सकती थी. और सबसे बड़ा प्रमाण तो पाणिनि का अष्टाध्यायी है, जिससे सिद्ध होता है कि स्त्रियाँ गुरुकुल में रहकर वेदों की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन करती थी तथा मीमांसा में पारंगत होती थी. पंतजलि का ‘महाभाष्य’ हमें बताता है कि स्त्रियाँ उस समय आचार्य भी थी और कन्याओं को वेद पढ़ाती थी.

पुरुषों के साथ धर्म, दर्शन, अभ्यास आदि गूढ़ विषयों पर स्त्रियों के शास्त्राथों के उदाहरण भी कम नहीं है. जनक और सुलभा, याज्ञवल्क्य और गार्गी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी तथा शंकराचार्य और विद्धाधरी के शास्त्रार्थ यह दर्शाते है कि मनुस्मृति के पहले के युग में स्त्रियाँ ज्ञान व शिक्षा के क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर पहुँच सकती थी.

भारतीय इतिहास इस बात को निर्विवाद रूप से सिद्ध कर देता है कि एक युग ऐसा था, जिसमे स्त्रियाँ अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थी. डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक ‘हिन्दू राजतंत्र’ के अनुसार राजाओं के राज्याभिषेक में प्रमुख भाग लेने वाले रत्नों में रानी भी एक होते थी. और जिस प्रकार राजा अन्य रत्नों का अर्चन –वंदन करता था, उसी प्रकार रानी का भी करता था.

यही नहीं, अपनी प्रधान रानी के अतिरिक्त अपनी नीची जातियों की पत्नियों की भी वह सम्मान पूजा करता था. इसी प्रकार अभिषेक के पश्चात राजा श्रेणियों की प्रमुख महिला का भी वंदन करता था!विश्व के इतिहास की दृष्टी से भी नारियों की उपर्युक्त स्थिति अत्यंत गौरवपूर्ण थी.

इस स्थिति में उनके पतन के लिए कौन दोषी ठहराया जा सकता है? निश्चय ही इसका श्रेय हिन्दुओं के विधायक मनु को प्राप्त है, इसमे की कोई गुन्जाइश नहीं है. प्रमाण-स्वरूप स्त्रियों के सम्बन्ध में,मनुस्मृति के कुछ विधान प्रस्तुत किये जा रहे है:

स्वभाव एष नारीणां नराणामिहदूषणम.

अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति, प्रमदासु विपश्चित:

अविद्वामसमलं लोके,विद्वामसमापि वा पुनः

प्रमदा द्युतपथं नेतुं काम क्रोध वाशानुगम

मात्रस्वस्त्रदुहित्रा वा न विविक्तसनो भवेत्

बलवान इन्द्रिय ग्रामो विध्दांसमपि कर्षति!

अर्थात: पुरुषों को अपने जाल में फंसा लेना तो स्त्रियों का स्वभाव ही है! इसलिए समझदार लोग स्त्रियों के साथ होने पर चौकन्ने रहते है, क्योंकि पुरुष वर्ग के काम क्रोध के वश में हो जाने की स्वाभाविक दुर्बलता को भड़काकर स्त्रियाँ, मूर्ख ही नहीं विध्द्वान पुरुषों तक को विचलित कर देती है! पुरुष को अपनी माता, बहन तथा पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है और विद्वान भी इससे नहीं बच पाते .

नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थिति:

सुरूपं व विरूपं वा,पुत्रनित्येव भुजन्ते

पौंश्चल्याच्चलचित्ताच्च, नैस्नेह्याच्च स्वभावतः

रक्षिता यत्नतोअपीह भर्तुष्वेता विकुवते

एवं स्वभावं ज्ञात्वाअअसां प्रजापति निसर्गजम

परमं यत्नमातिष्ठेत्पुरुषों रक्षणं प्रति

श्य्यासनमलंकारं कामं क्रोधं अनार्जवम

द्रोहभावं कुचर्या च स्त्रीभ्यो मनुरकल्पयत!

अर्थात: पुरुषों में स्त्रियाँ न तो रूप का विचार करती है, न उसकी आयु की परवाह करती है. सुरूप हो अथवा कुरूप, जैसा भी पुरुष मिल जाये उसी के साथ भोग-रत हो जाती है. सदा पुरुष-संग की इच्छा रखने वाली, चंचल-चित्त तथा स्वभाव से निष्ठुर होने के कारण कितने भी यत्न से क्यों न रखी जाये, स्त्रियाँ पतियों के प्रति निष्ठावान नहीं रह जाती है.

ये दुर्गुण स्त्रियों में सृष्टि के आदि काल से ही विधमान है, अत:पुरुष को बड़े यत्न से रक्षा करनी चाहिए. सृष्टिकर्ता ने,नारी की रचना करते समय ही उसमे अपनी शय्या, आसन, आभूषण,के प्रति मोह तथा काम, क्रोध, बेईमानी, द्वेष -भाव एवं चरित्रहीनता से दुर्गुण कूट-कूट कर भर दिये.

मनु की दृष्टि में स्त्रियों का क्या स्थान था, वह उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है. स्त्रियों के प्रति मनु के विधान का यह एक नमूनामात्र है. मनु के विचार से स्त्रियों को किसी भी दशा में स्वतंत्र नहीं होने देना चाहिए, यथा:

अस्वतंत्रता: स्त्रियः कार्या: पुरुषै स्वैदिर्वानिशम

विषयेषु च सज्जन्त्य: संस्थाप्यात्मनो वशे

पिता रक्षति कौमारे भर्ता यौवने

रक्षन्ति स्थाविरे पुत्र,न स्त्री स्वातान्त्रयमर्हति

सूक्ष्मेभ्योपि प्रसंगेभ्यः स्त्रियों रक्ष्या विशेषत:

द्द्योहिर कुलयो: शोक मावहेयुररक्षिता:

इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम

यतन्ते भार्या भर्तारो दुर्बला अपि

अर्थात: पुरुषों को अपने घर की सभी महिलाओं को चौबीस घंटे नियन्त्रण में रखाना चाहिए और विषयासक्त स्त्रियों को तो विशेष रूप से वश में रखना चाहिए. बाल्य काल में स्त्रियों की रक्षा पिता करता है. यौवन काल में पति तथा वृधावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है. इस प्रकार स्त्री कभी भी स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है.

स्त्रियों के चाल ढाल में ज़रा भी विकार आने पर उसका निराकरण करनी चाहिये. क्योंकि बिना परवाह किये स्वतंत्र छोड़ देने पर स्त्रियाँ दोनों कुलों (पति व पिता ) के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकती है. सभी वर्णों के पुरुष इसे अपना परम धर्म समझते है, और दुर्बल से दुर्बल पति भी अपनी स्त्री की यत्नपूर्वक रक्षा करते है.

बालया वा युवत्या वा वृदध्या वापि योषिता

न स्वतंत्रयेन कर्तव्यं किंचित्कार्य गृहेश्वपी

बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पानि ग्राहस्य यौवने

पुत्राणां भर्तारि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतंत्रताम!

पित्र भर्त्र सुतैर्वापी नेच्छेद्विरहमात्मनः

एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले!

अर्थात: स्त्री को, चाहे वह बालिका हो, युवती हो अथवा वृध्दा हो, अपने घर में भी कोई कार्य स्वंतंत्रतापूर्वक नहीं करनी चाहिए. बाल्यावस्था में अपने पिता के, यौवनावस्था में अपने पति के और पिता के न रहने पर उसे अपने पुत्रों के अधीन बन कर रहना चाहिए कभी भी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए. स्त्री को अपने पिता ,पति और पुत्रों से अलग कभी नहीं होना चाहिए. ऐसी स्वच्छंद स्त्रियाँ निश्चय ही दोनों (पिता व पति)के कुलों की भी बदनामी कराती है. मनु के विधान में स्त्रियों को पति से सम्बन्ध –विच्छेद (तलाक) का अधिकार नहीं है:

एतावानेव पुरुषो यज्जयात्मा प्रजेति ह

विप्रा: प्राहुस्तथा चैतद्धोभर्ता सा स्मृतांगना

अर्थात: स्त्री और पुरुष मिलकर एक व्यक्तित्व बनाते है. विप्रों का कथन है कि जो पति है वही पत्नी है. पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष के अविच्छेद-सम्बन्ध-संबंधी मनु के विधान को बहुत से हिन्दू बड़ी श्रधा से देखते है और यह समझते है कि विवाह-सम्बन्ध चूंकि आत्मा का मिलन होता है, इसलिए मनु ने उसे अविच्छेद बताया है, परन्तु मनु का विधान यहीं तक सीमित होता, तो कोई बात न थी.

आश्चर्य तो यह है कि वह अविच्छेदता केवल स्त्री के लिए है, पुरुष के लिए नहीं. यह विधान स्त्री को तो पुरुष से बांधकर रखता है, परन्तु पुरुष को पूरी स्वतंत्रता प्राप्त है. इस विधान में पुरुष स्त्री को छोड़ने का अधिकार ही नहीं, उसको बेचने का भी अधिकारी है. यदि कोई बंधन है, तो यह है कि स्त्री स्वतंत्र नहीं हो सकती, भले ही वह बेच दी जाए या त्याग दी जाये. देखिये इस सम्बधं में मनु की व्यवस्था:

न निष्क्रय विसर्गाभ्यांभर्तुभार्या विमुच्यते

एवम धर्म विजानीम: प्राकप्रजापति निर्मितं!

अर्थात: पति द्वारा त्याग दिये जाने तथा किसी दूसरे के हाथ बेच दी जाने पर भी कोई स्त्री दूसरे की पत्नी नहीं कहीं जा सकती. उसके विवाहित पति का उस पर आजन्म अधिकार बना रहेगा. इससे बढ़कर भी राक्षसी मनोवृति कोई हो सकती है, इसमें संदेह है, परन्तु स्मृतिकार मनु का उद्देश्य तो बौद्ध -काल में स्त्रियों को मिली स्वतंत्रता का अपरहण करना था.

उन्हें अपने विधान के औचित्य अथवा अनौचित्य से क्या लेना देना था? उन्हें तो स्त्रियों की स्वतंत्रता से सिर में पीड़ा हो रही थी और इस पीड़ा के निवारण का एक ही उपचार, स्त्रियों की स्वतंत्रता का अपहरण था, उन्होंने किया. धन सम्पति के विषय में मनु ने पत्नी को एक दास से अधिक नहीं समझा, यथा:

भार्या पुत्रश्य दासश्य त्रय एवाधना: स्मृता:

यत्ते समधीगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम!

अर्थात: स्त्री-पुत्र तथा दास की अपनी कोई धन-संपत्ति नहीं होती है. जो कुछ ये कमाते है, वह इनका अपना न होकर पति, पिता और स्वामी का ही माना जाएगा. आगे चलकर मनुस्मृति कार ने विधवा पर दया करके, उसे निम्नलिखित अधिकार दिये है:

1- यदि स्वर्गीय पति संयुक्त परिवार का सदस्य था तो विधवा को गुजारा मिल सकता है.

2- यदि मृत पति अलग होकर रहता था, तो उसकी सम्पति में विधवा का हक तो है, परन्तु व्यवस्था व नियंत्रण में स्त्री का कोई हाथ नहीं रहेगा.

भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्राता च सोदर:

प्रप्तापराधास्ता डया: स्यू र …. वा वेणुदलेन वा!

अर्थात: पत्नी, पुत्र, दास, शिष्य तथा अपने रक्त-सम्बन्ध का भाई यदि अपराध करे, तो उसे रस्सी या फाटे बांस से मारा जा सकता है. इसप्रकार मनु के विधान में स्त्री को शारीरिक दंड देने का अधिकार भी पति को दिया गया है. इसके अतिरिक्त मनु के विधान में स्त्रियों को ज्ञान प्राप्त करने अथवा वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया है.

अमन्त्रिका तू कार्येयं स्त्रीणां भावृदशेषत:

संस्कारार्थ शरीरस्य यथाकालं यथा क्रमम्

अर्थात: निर्धारित कालक्रम के अनुसार स्त्रियों के जो संस्कार किये जायें, उनमे वेद-मन्त्रों का पाठ न किया जाये. ब्राह्मण संस्कृति में यज्ञ –कर्म धर्म ही आत्मा माना गया है, परन्तु मनु ने स्त्रियों को इस धर्म-कार्य से भी वंचित रखा है. इस संबन्ध में उनका आदेश निन्मलिखित है:

न वै कन्या न युवतिर्नाल्प विद्धो बा बालिश:

होता स्यादग्निहोत्रस्य नर्तोनासंस्कृतस्तथा!

नरके हि पतन्त्येते जुह्वतः स च यस्य तत

तस्माद्वैता न कुशलो होता स्याद्वेदपरागः

अर्थात: कन्याएँ युवतियां, थोड़ा पढ़े - लिखे लोग, कुपढ, बीमार अथवा संस्कार-रहित व्यक्ति यज्ञ के होता न बनाये जायें, वरना होता और यजमान दोनों नरकगामी होंगे. धर्म लाभ से स्त्रियों को वंचित रखने के लिए उनको स्वयं तो यज्ञ करने के लिए अयोग्य ठहराया है, मनु ने ब्राह्मणों पर भी बंधन लगा दिया कि वे भी स्त्रियों के लिए यज्ञ न करे. इस प्रकार न स्वयं यज्ञ कर सकती है, न ब्राह्मणों के द्वारा करा सकती है. ब्राह्मणों पर रोक लगाने के लिए मनु ने निम्नलिखित विधान बनाया:

न श्रोति यतते ग्रामयाजिकृते तथा

स्त्रिया क्लीबेन च हते भुन्जीत ब्राह्मण:क्वचित्

अश्लीलमेतत्साधूनां यत्र जुह्वत्यमी हवि:

प्रतीप मेतद्देवानां तस्मात्तत्परिवर्जयेत!

अर्थात: जिस यज्ञ में श्रोत्रिय आचार्य न हो, जिसमे समस्त ग्राम अध्वर्यु हो तथा जिसमे स्त्री व नपुंसक होता हो,ऐसे यज्ञ को अश्लील माना जाता है, ब्राह्मण ऐसे यज्ञ में भोजन न करे.

और अब जरा स्त्रियों के लिए मनु द्वारा निर्धारित जीवन-आदर्श को भी देखिए:

यस्मैदद्धपित्तात्तात्वेनां भ्राता चानुमते पितु:

तं शुश्रुषेत जीवन्तं संस्थितं च न लंघयेत

विशील: कामवृत्तो वा गुनैर्वा परिवर्जित:

उपचर्य:स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पति:

नास्ति स्त्रीणां प्रथग्यज्ञों न व्रतं नीप्युपोषितम

पतिं शुश्रुषते येन तेन स्वर्गे महीयते

अर्थात: स्त्री का पिता अथवा पिता की सहमति से इसका भाई जिस किसी के साथ उसका विवाह कर दे, जीवन-पर्यन्त वह उसकी सेवा में रत रहे और पति के न रहने पर भी पति की मर्यादा का उल्लंघन कभी न करे. स्त्री का पति दु:शील, कामी तथा सभी गुणों से रहित हो तो भी एक साध्वी स्त्री को उसकी सदा देवता के सामान सेवा व पूजा करनी चाहिये. स्त्री को अपने पति से अलग कोइ यज्ञ, व्रत या उपवास नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्हें अपने पति की सेवा-शुश्रुषा से ही स्वर्ग प्राप्त हो जाता है. यहाँ पर मनु की उन व्यवस्थाओं को दे देना भी उपयुक्त रहेगा, जिन्हें स्त्रियों के लिए हिन्दू, अत्यंत श्रेष्ठ व अनुकरणीय आदर्श घोषित करते है:

अनृतादृतुकाले च मंत्र्संस्कारकृत्पति:

सुखस्य नित्यं दातेह परलोके च योषिच:

सदा प्रह्ष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया

सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया

अर्थात: विधिवत मन्त्रों द्वारा गृहीत पति,स्त्री के लिए हर काल व ऋतु में सुखदायक है. लोक-परलोक दोनों में उससे सुख ही मिलता है. अत: उसे सदैव प्रसन्निचत्त रहना चहिएऔर गृह -कार्य को दक्षतापूर्वक करते हुए व घर के बर्तन आदि को साफ़ रखे तथा खर्च में मितव्ययिता बरते. और आगे दिये जा रहे श्लोक में स्त्रियों के वध को एक हल्का अपराध (उप-पातक)बताकर मनु ने स्त्रियों की जड़ता पर मुहर ही लगा दी:

धान्य कुप्य पशुस्तेयं मद्यप स्त्री-निषेवणम

स्त्री शूद्र विटक्षत्र वधो नास्तिक्यं चोपपातकम!

अर्थात: धान्य,कुप्य ,पशुओं की चोरी, मद्दपान करने वाली स्त्री से प्रसंग, नास्तिकता तथा स्त्री, शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय का वध करना, ये सब उप-पातक है. इस श्लोक में शूद्र, वैश्य व क्षत्रियों के वध को उप-पातक की बात तो समझ में आ सकती है, क्योंकि मनु ब्राह्मण के वध को महापातक और उसकी तुलना में अन्य वर्ण के लोगों के वध को मामूली पातक ठहराना चाहते थे, लेकिन इसके साथ सभी वर्णों के पूरे स्त्री समाज को घसीट लेना यही सिद्ध करता है की स्त्रियों के पूरे वर्ग को हेय दृष्टि से देखते थे. इन उद्धरणों के उपरान्त भी कोई संदेह कर सकता है की भारत में स्त्रियों के अध्:पतन का कारण स्मृतिकार मनु नहीं थे?

अधिकांश लोग इस तथ्य को जानते हुए भी दो बातों से अभिज्ञ प्रतीत होते है. वे यहीं नहीं जानते की इसमें मनु का योगदान क्या है? स्त्रियों के प्रति मनुस्मृति में दी गई व्यवस्थाएओं कोई नयी या मनु की इजाद की हुई नहीं है. ये सब ब्राह्मण एवं ब्राह्मणवाद की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है. मनुस्मृति के पूर्व ये सब विचार सामाजिक मान्यताओं के रूप में विद्धमान थे. मनुस्मृति में केवल उन सब मान्यताओं के रूप परिवर्तन करके धर्म-शास्त्र तथा राज्य-विधान बना दिया गया.

दूसरी बात, जो प्राय: लोग नहीं जानते, यह है कि मनुस्मृति में आखिर स्त्रियों और शूद्रों पर इतनी अयोग्यताएं क्यों थोपी गयीं? इसका स्पष्ट कारण है यही है कि बौद्ध – काल में समाज में दो वर्ग (स्त्रियाँ- शूद्र) बुद्ध-धर्म में अधिक श्रद्धा रखते थे और बड़ी संख्या में बुद्ध – धर्म को ग्रहण कर रहे थे, जिसके कारण ब्राह्मण धर्म की नींव ही हिली जा रही थी. अत: अपने धर्म की रक्षा के लिए मनुस्मृतिकार स्त्रियों का झुकाव बुद्ध-धर्म की ओर से मोड़ना चाहते थे. यही कारण है की मनु ने स्त्रियों पर इतनी पाबंदियां लगा दी की वह सदा के लिए पंगु हो जाये. प्रमाण –स्वरूप देखिये:

वृथा संकर जातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम

आत्मन्स्त्यागिनाम चैव निवर्तेतोदकक्रिया

पाषंडमाश्रितानाम च चरंतीनाम च कामतः

गर्भ भतृदृर्हाम चैव सुरापीनाम च योषिताम

अर्थात: वर्ण-संकर, संन्यासी व आत्मघाती लोगों की पिण्डोदक क्रिया आवश्यक नहीं. इसी प्रकार उन स्त्रियों की भी पिण्डोदक क्रिया न की जाये, जो पाखंडी सम्प्रदाय का अनुसरण करती हों, स्वेच्छाचारिणी, गर्भपात, पतिघात तथा सुरापान करने वाली हो. इस व्यवस्था के लक्ष्य अन्य के अतिरिक्त निन्मलिखित दो लोग भी बनाये गये है:

1- प्रव्रज्यासु तिष्ठताम, और

2- पाखण्डमाश्रीतानां योषितां

पहला शिकार प्रव्रज्या लेने वाले लोगों से तात्पर्य बौद्ध परिव्राजकों से है, जो गृह-त्याग कर संस्यासी का जीवन व्यतीत करते थे, दूसरी ओर पाखंडी सम्प्रदाय के संकेत से निश्चय ही स्मृतिकार मनु का अभिप्राय बुद्ध-धर्म से है. इस प्रकार एक प्रकार से मनु ने यह प्रबंध कर दिया कि किसी परिवार का जो स्त्री या पुरुष बुद्ध-धर्म का अनुयायी बने, उसकी पिंडोदकक्रिया न की जाये. इसका प्रभाव यह पड़ता था की भयवश कोई स्त्री-पुरुष बुद्ध –धर्म ग्रहण ही नहीं करता और यदि कर लेता, तो परिवार के अन्य सदस्य उसे त्याग देते. स्मृतिकार मनु बुद्ध-धर्म के सबसे बड़े विरोधी थे और उनका विचार था कि यदि घर-घर में बुद्ध –धर्म का प्रवेश रोकना है,तो स्त्री समाज को अपनी मुट्ठी में रखना आवश्यक है. यही कारण है कि उन्होंने स्त्रियों पर इतने अधिक बंधन व अयोग्यताएं थोप दी. इससे सिद्ध हो जाता है कि नारियों के अधो:पतन का उतरदायित्व मनु पर है, न की बुद्ध पर.

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