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मां SC और पापा जनरल कैटेगरी से तो क्या बच्चे को मिलेगा आरक्षण? जानिये क्या कहता है Bombay High Court का ये लेटेस्ट आदेश

मुंबई- बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक छात्र की ‘Chambhar’ 'चमार' (अनुसूचित जाति) जाति के दावे को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि छात्र ने यह साबित नहीं किया कि उसने अपनी माँ के जाति के कारण किसी भेदभाव या वंचिता का सामना किया है।

पीठ ने यह फैसला सुजल मंगला बिरवाडकर (मूल नाम: सुजल संतोष मोकल) की याचिका पर सुनाया, जिसने रायगढ़ जिला जाति प्रमाणपत्र सत्यापन समिति के 15 अप्रैल 2024 के आदेश को चुनौती दी थी। सुजल का दावा था कि वह अपनी माँ के कारण 'चमार' (अनुसूचित जाति) समुदाय से संबंध रखता है, हालाँकि उसके पिता 'हिंदू कृषक' (सामान्य जाति) से हैं।

क्या था विवाद?

मामले की पृष्ठभूमि के अनुसार सुजल के पिता संतोष महादेव मोकल हिंदू कृषक ' (सामान्य जाति) से तथा माँ मंगला 'चमार' (अनुसूचित जाति) समुदाय से संबंध रखती हैं। दोनों केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में कार्यरत हैं, जिनका विवाह 2004 में हुआ था, किंतु 2016 में अलीबाग की एक अदालत ने उनके तलाक को मंजूरी दे दी। सुजल की कस्टडी माँ को मिली। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान सुजल का जाति प्रमाणपत्र पिता की जाति के रूप में दर्ज था, लेकिन तलाक के बाद माँ ने उसका नाम बदलकर 'सुजल मंगला बिरवाडकर' करवा दिया और केंद्रीय विद्यालय, नासिक में दाखिले के समय उसकी जाति 'चमार' दर्ज करा दी।

2023 में, नवनीत जूनियर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान, सुजल की माँ ने उसके लिए 'चमार' जाति का प्रमाणपत्र बनवाया, जिसके बाद कॉलेज प्रशासन ने इसकी जाँच के लिए रायगढ़ जिला सत्यापन समिति को भेजा। समिति ने विजिलेंस सेल द्वारा की गई तीन जाँचों के आधार पर पाया कि सुजल ने कभी भी अपनी माँ के जाति के कारण किसी भेदभाव या सामाजिक वंचिता का सामना नहीं किया। समिति ने विशेष रूप से इस तथ्य पर ध्यान दिया कि सुजल की माँ एक सरकारी नौकरी में थीं और उन्होंने तलाक के बाद पति से कोई गुजारा भत्ता नहीं माँगा, जो उनकी आर्थिक स्थिरता को दर्शाता है।

मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस डॉ. नीला गोखले की पीठ ने कहा, "जब तक यह साबित नहीं होता कि बच्चे ने माँ के जाति के कारण सामाजिक या आर्थिक भेदभाव झेला है, तब तक उसे अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता।

अदालत ने अपने निर्णय में कहा, "याचिकाकर्ता ने यह साबित करने में विफल रहा है कि उसने अपनी माँ के जाति के कारण किसी प्रकार की हीन भावना, सामाजिक बहिष्कार या शैक्षणिक अवसरों से वंचित होने जैसी स्थितियों का सामना किया हो। उसकी शिक्षा केन्द्रीय विद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई है और उसके जीवन स्तर से स्पष्ट है कि उसे किसी प्रकार की विशेष कठिनाई नहीं झेलनी पड़ी।" पीठ ने आगे कहा, "माता-पिता के अलग-अलग जातियों से संबंधित होने की स्थिति में, यह सिद्ध करना आवश्यक है कि बच्चे ने अनुसूचित जाति के सदस्य के रूप में सामाजिक पिछड़ेपन का अनुभव किया हो। केवल जन्मजात संबंध ही पर्याप्त नहीं है।"

इस निर्णय के साथ ही अदालत ने सुजल की याचिका को खारिज कर दिया और सत्यापन समिति के आदेश को बरकरार रखा। यह मामला उन तमाम मामलों में एक और उदाहरण है, जहाँ अदालतें जाति प्रमाणपत्र जारी करने से पहले सामाजिक पिछड़ेपन के ठोस सबूतों की माँग करती हैं। विधिक विशेषज्ञों के अनुसार, यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है, जहाँ माता-पिता की अलग-अलग जातियों के कारण बच्चे की जाति निर्धारण को लेकर विवाद उत्पन्न होता है।

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