महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा मूल रूप से मराठी में लिखी गई प्रसिद्द किताब “गुलामगिरी” में फुले जिस काल्पनिक पात्र से बात करते हुए तत्कालीन भारत में व्याप्त छुआछूत, अन्धविश्वास और आडम्बरों पर प्रहार किया है वह बेहद दिलचस्प है. फुले ने इस किताब में एक काल्पनिक पत्र — धोंडीराव — के ऐसे सवालों के जवाब, जिनपर आज भी लोगों में बोलने-कहने में हिचकिचाहट होती है, उसपर बेहद तार्किक जवाब दिया है.
महात्मा फुले पूरी किताब में अपने काल्पनिक पत्र धोंडीराव के सवालों का जवाब देते हैं. धोंडीराव उस समय के भारत में ब्राह्मणवाद, ऊँच-नीच, शिक्षा, वर्ण-व्यवस्था पर सवाल पूछते हैं, और महात्मा फुले जवाब में वह सब कह डालते हैं जिसपर आज भी बड़े-बड़े विद्वानों के बोलने की हिम्मत नहीं होती. महात्मा फुले के जवाब इतने रोचक और तर्कसंगत होते हैं कि पाठक किताब को चाहकर भी बिना पूरा पढ़े बंद नहीं करना चाहेगा.

किताब के हिंदी अनुवाद वाले संस्करण में महात्मा ज्योतिराव फुले ने भक्ति का दिखावा, जप, चारों वेद, ब्रम्ह्जाल, नाराद्शाही, शूद्रों के पढ़ने लिखने पर पाबन्दी, भागवत और मनुसंहिता पर धोंडीराव को जो जवाब दिया है वह पाठकों को बेहद आकर्षित करती है.
किताब के परिच्छेद नौ में महात्मा फुले बताते हैं कि, ब्राह्मणों के पूर्वजों ने इस देश में आने के बाद बंगाल में सबसे पहले बस्ती बसाई होगी. उसके बाद उनकी जादू मानता विद्या यहां से चारों ओर फैली होगी. इसलिए इस विद्या का नाम बंगाली विद्या पड़ा होगा. इतना ही नहीं, बल्कि आर्यों के पूर्वज आज के अनपढ़ लोगों की तरह अलौकिक (चमत्कार) शक्ति का (देवघर घुमाने) प्रदर्शन करने वाले भी थे.
उस समय में उन लोगों में अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन करने वाले भी थे. प्रदर्शन करने वाले लोगों को ब्राह्मण कहा जाता था. ब्राह्मण पुरोहित सोमरस नाम की शराब पीते थे और उस शराब के नशे में बडबडाते थे. वह कहते थे कि हम लोगों के साथ ईश्वर बात करता है. उनके इस तरह कहने पर अनाड़ी लोगों को विश्वास हो जाता था, श्रद्धा उत्पन्न होती थी व थोड़ा डर भी उत्पन्न होता था. वे इन अनाड़ी लोगों को डराकर लूटते थे.
इस तरह की बातें उनके ही वेद-शास्त्रों से सिद्ध होती हैं. उसी अपराधी विद्या के आधार पर आज के आधुनिक युग में ब्राह्मण-पुरोहित अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए जप, अनुष्ठान, जादूमंत्र विद्या के द्वारा अनाड़ी माली, कुनबियों को जादू का धागा बांधकर उनको लूटते हैं. फिर भी इन अनाड़ी अभागे लोगों को उन पाखंडी, धूर्त मदारियों की (ब्राहमण-पंडित-पुरोहितों की) जालसाजी को पहचानने के लिए समय कहां मिल रहा है? ये अनाड़ी लोग दिन भर अपने-अपने खेतों में काम में जुटे रहते हैं और अपने बालबच्चों का पेट पालते हुए सरकार को लगान देते वक्त उनके नाम में दम चढ़ जाता है.
धोंडीराव आगे पूछते हैं कि — मतलब, जो ब्राहमण शेखी मारते हैं कि ब्रह्मा के मुहं से चार वेद निकले हैं, वे स्वयंभू हैं. उनके कहने में और आपके कहने में कोई तालमेल नहीं है?
महात्मा फुले जवाब देते हैं — दरअसल इन ब्राह्मणों का यह मत पूरी तरह से मिथ्या है. यदि उनका कहना सही मान लिया जाए, तब ब्रह्म के मरने के बाद ब्राह्मणों के कई ब्रह्मऋषियों या देवऋषियों द्वारा रचे गए सूक्त ब्रह्मा के मुहं से निकले हुए वेदों में क्यों मिलते हैं? उसी प्रकार चार वेदों की रचना एक ही कर्ता द्वारा एक ही समय में हुई, यह बात भी सिद्ध नहीं होती है. इस तरह मत कई यूरोपियन परोपकारी ग्रंथकारों ने सिद्ध करके दिखाया है.
धोंडीराव पूछते हैं कि — क्या भागवत पुराण भी उसी समय में लिखा गया होगा?
महात्मा फुले जवाब देते हैं — भागवत भी उसी समय लिखा गया होता, तो उसमें सबसे पीछे हुए अर्जुन जन्मेजय नाम के पडपोते की हकीकत कभी न आई होती.
धोंडीराव — आपका कहना सही है, क्योंकि उसी समय भागवत में कई कल्पित व्यर्थ की पुराणकथाएं ऐसी मिलती हैं कि उससे इसापनीति को हजारों गुना अच्छा मानना पड़ेगा. इसापनीति में बच्चों के दिलों-दिमाग को भ्रष्ट करने वाली एक भी बात नहीं मिलेगी.
महात्मा फुले — उसी तरह मनुस्मृति भी भागवत के बाद में लिखी गई होगी. यह सिद्ध किया जा सकता है.
धोंडीराव — इसका मतलब यह कैसे होगा कि मनुस्मृति भागवत के बाद में लिखी गई होगी?
महात्मा फुले — भागवत में वशिष्ठ ने इस तरह की शपथ ली है कि, “मैंने हत्या नहीं की है.” सुदामन राजा के सामने शपथ लेने की उपमा मनु ने ग्रन्थ के 8वें अध्याय के 110वें श्लोक में कैसे दी है? उसी प्रकार विश्वामित्र ने आपतकाल में कुत्ते का मांस खाने के सम्बन्ध में उसी ग्रन्थ के 10वें अध्याय के 108वें श्लोक में क्यों लिखा है? इसके अलावा भी इसी मनुसहिंता में कई असंगत बातें मिलती हैं.