MP के आदिवासी गांवों में पसरा सन्नाटा! रोजगार की कमी के कारण पलायन शुरू, स्टाम्प पेपर पर हो रहे मजदूरी समझौते

01:45 PM Nov 03, 2025 | Ankit Pachauri

भोपाल। मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य खंडवा जिले के खालवा ब्लॉक में अब पलायन एक स्थायी सामाजिक संकट बन गया है। कभी कुपोषण से जूझने वाला यह इलाका अब रोजगार की कमी से त्रस्त है। यहां के लोग मजबूरी में महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोवा जैसे राज्यों में मजदूरी करने जा रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि यह पलायन अब “स्टाम्प पेपर” पर किए गए एग्रीमेंट के जरिए हो रहा है, जिससे मजदूरों की मजदूरी और अवधि तय की जाती है।

दिवाली के बाद गांव खाली, बुजुर्गों के भरोसे घर

दिवाली के बाद जब अधिकांश लोग अपने घरों में खुशियां मनाते हैं, तब खालवा के सैकड़ों गांवों के लोग अपने घरों को ताला लगाकर निकल पड़ते हैं। सोयाबीन की कटाई खत्म होते ही यहां के खेत सूने हो जाते हैं और लोग गन्ना कटाई, निर्माण कार्य और अन्य मजदूरी के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और गुजरात की ओर पलायन करते हैं। गांवों की हालत यह है कि ज्यादातर घरों में ताले लटके रहते हैं। केवल बुजुर्ग और छोटे बच्चे गांवों में रह जाते हैं, जो न तो काम कर सकते हैं और न ही सुरक्षा दे सकते हैं।

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90 फीसदी गांवों से हो रहा पलायन

स्थानीय लोगों के मुताबिक, खालवा ब्लॉक के लगभग 90% गांवों से लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं। ब्लॉक की कुल आबादी करीब 2.5 लाख है, जिसमें 86 ग्राम पंचायतें और 147 गांव शामिल हैं। खालवा, आशापुर, खार और सावलीखेड़ा जैसे कुछ गांवों को छोड़ दें तो बाकी लगभग हर गांव से लोग बाहर जा रहे हैं।

भौगोलिक दृष्टि से खालवा ब्लॉक हरदा, बैतूल, बुरहानपुर और महाराष्ट्र की सीमाओं से घिरा है। यह स्थिति इसे एक “ट्रांजिट जोन” बना देती है, जहां से मजदूर आसानी से पड़ोसी राज्यों में काम की तलाश में निकल जाते हैं।

स्थानीय समाचार पत्र दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार के मुताबिक खालवा ब्लॉक के आड़ाखेड़ा गांव के हीरालाल काजले ने महाराष्ट्र के सोलापुर निवासी लिंगेश्वर ने शिंदे के साथ एक समझौता किया।

इस एग्रीमेंट के तहत हीरालाल के परिवार के 10 जोड़े यानी कुल 20 लोग गन्ना काटने के लिए कर्नाटक और महाराष्ट्र जाने को तैयार हुए। प्रत्येक जोड़े को 50-50 हजार रुपये अग्रिम भुगतान किया गया। यानी कुल 5 लाख रुपये का समझौता हुआ।

हरसूद बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ वकील जगदीश पटेल बताते हैं कि उनके पास हर साल लगभग 200 ऐसे मामले आते हैं। उनका अनुमान है कि पूरे क्षेत्र में लगभग 2,000 तक समझौते हर साल होते हैं, जिनमें प्रत्येक में 20 से लेकर 150–200 तक मजदूर शामिल रहते हैं।

कोरकू जनजाति कर रही पलायन

पलायन करने वाले ज्यादातर लोग कोरकू जनजाति से हैं। राजनीतिक दृष्टि से यह क्षेत्र हरसूद विधानसभा में आता है, जहां के विधायक विजय शाह पिछले 40 वर्षों से लगातार चुनाव जीत रहे हैं और इस समय प्रदेश के जनजातीय कार्य मंत्री हैं। वहीं, क्षेत्र के सांसद दुर्गादास उईके भी केंद्र सरकार में जनजातीय कार्य मंत्री हैं। इसके बावजूद, यह क्षेत्र लगातार पलायन और कुपोषण की समस्याओं से जूझ रहा है।

गन्ना काटने के काम में पूरे परिवार को एक साथ रोजगार मिल जाता है। ठेकेदार उन्हें अग्रिम भुगतान करते हैं, जिससे वे साल भर की आर्थिक जरूरतें पूरी करने की उम्मीद में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। हालांकि, कई बार इन्हीं समझौतों के चलते आदिवासी परिवार बंधुआ मजदूरी के जाल में फंस जाते हैं। बाहरी राज्यों में अत्याचार, महिलाओं के साथ यौन हिंसा और हत्या जैसे अपराधों की घटनाएं भी सामने आई हैं।

प्रशासन के प्रयास

जिला पंचायत सीईओ डॉ. नागार्जुन बी गौड़ा का कहना है कि खालवा क्षेत्र में मनरेगा के तहत 150 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है, जबकि अन्य ब्लॉकों में 100 दिन का प्रावधान है। लेकिन मजदूरी दर केवल 261 रुपये प्रतिदिन है, जबकि महाराष्ट्र और कर्नाटक में यही मजदूर 800 से 1000 रुपये प्रतिदिन कमा लेते हैं।

प्रशासन अब “एक बगिया, मां के नाम” योजना के तहत किसानों को जोड़ने का प्रयास कर रहा है, जिससे खेती के साथ उन्हें नियमित मजदूरी भी मिल सके। जिले के लगभग 300 किसानों को इस योजना से जोड़ने की कोशिश की जा रही है।

जंगलों से बेदखली के कारण बढ़ा पलायन

द मूकनायक से बातचीत में आदिवासी एक्टिविस्ट एडवोकेट सुनील आदिवासी ने कहा कि खालवा और इसके आसपास के इलाकों में पलायन की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है।

उन्होंने बताया, “रोजगार की कमी और जंगलों पर आदिवासियों की पारंपरिक निर्भरता को खत्म कर देने के कारण आज हालात इतने बिगड़ गए हैं कि आदिवासी समाज हर दिन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पहले वे जंगल से लकड़ी, महुआ, तेंदूपत्ता, औषधीय पौधों और लघु वन उपज के जरिए जीवनयापन कर लेते थे, लेकिन अब वन विभाग के प्रतिबंधों और सरकारी नीतियों ने उनके जीवन के इस सहारे को छीन लिया है। जब जंगलों से रोज़गार छिन गया और गांव में कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं बनी, तो लोगों को मजबूरी में पलायन करना पड़ा।”

उन्होंने कहा, “सरकार वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने में विफल रही है। आज भी सैकड़ों गांवों में आदिवासियों को अपने ही जंगलों पर अधिकार नहीं मिले हैं। अगर उन्हें वन भूमि और वन उपज पर अधिकार दिए जाएं, तो वे अपने गांवों में ही सम्मानजनक जीवन जी सकते हैं, पलायन की जरूरत नहीं पड़ेगी।”

सुनील आदिवासी ने यह भी कहा कि यह पलायन आने वाले समय में सांस्कृतिक विस्थापन का कारण बनेगा। जब आदिवासी अपनी भूमि और परंपराओं से कट जाएंगे, तो उनके त्योहार, बोली और लोकजीवन भी धीरे-धीरे मिटने लगेंगे।

पलायन एक सामाजिक अन्याय

संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और आजीविका का अधिकार एक मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षित है। खालवा के आदिवासियों का यह पलायन बताता है कि जब स्थानीय स्तर पर समान अवसर और सम्मानजनक जीवन की गारंटी नहीं होती, तब लोग अपनी जड़ों से दूर होने को मजबूर हो जाते हैं। यह न केवल आर्थिक असमानता की नहीं, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक विफलता का प्रतीक भी है।