नई दिल्ली - हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का एक चौंकाने वाला फैसला आया है जिसमें पीड़िता और आरोपी के बीच समझौता होने के बाद बलात्कार केस (IPC धारा 376) को खारिज कर दिया गया। यह फैसला कानूनी हलकों में बहस का विषय बन गया है - क्या वाकई दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध में समझौता हो सकता है?
कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) के तहत लगे गंभीर आरोपों को स्वीकार करते हुए भी कहा कि इस मामले की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए केस को खारिज करना ही न्यायसंगत है।
कोर्ट ने कहा कि पीड़िता के स्पष्ट रूप से मामला वापस लेने और एफआईआर के प्रतिक्रियास्वरूप दर्ज किए जाने की आशंका को देखते हुए केस चलाने का कोई औचित्य नहीं है। जस्टिस विक्रम नाथ और संजय कुमार की पीठ ने 14 जुलाई को यह निर्णय सुनाया।
एक व्यक्तिगत विवाद से उपजे दो एफआईआर
यह कानूनी लड़ाई नवंबर 2023 में महाराष्ट्र के जलगांव स्थित मेहुनबारे पुलिस स्टेशन पर दर्ज दो एफआईआर से शुरू हुई। पहली एफआईआर (संख्या 302/2023) 19 नवंबर को मधुकर और अन्य के खिलाफ दंगा, हमला और आपराधिक धमकी (आईपीसी की धाराएं 324, 143, 147, 452) के तहत दर्ज की गई थी। शिकायत में आरोप लगाया गया था कि आरोपियों ने एक तलाक के मामले को लेकर शिकायतकर्ता और उसके परिवार पर हमला किया था।
मात्र दो दिन बाद, दूसरी एफआईआर (संख्या 304/2023) पीड़िता के पिता प्रभाकर के खिलाफ धारा 376 (बलात्कार), 354-ए (यौन उत्पीड़न) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत दर्ज की गई। इसमें आरोप लगाया गया था कि प्रभाकर ने पीड़िता का यौन शोषण किया, अश्लील वीडियो बनाए और उसकी शादी में बाधा डाली।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने गंभीर अपराधों में समझौते से कर दिया था इंकार
आरोपियों ने दोनों एफआईआर को खारिज करने की मांग करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) का दरवाजा खटखटाया। मार्च 2024 तक पीड़िता ने एक हलफनामा दायर कर स्पष्ट किया कि:
उसने मामला सुलझा लिया है और 5 लाख रुपये की मदद ली है।
वह अब केस नहीं लड़ना चाहती और आरोपियों को जमानत देने में कोई आपत्ति नहीं है।
हालांकि, 7 मार्च 2025 को हाईकोर्ट ने यह याचिका खारिज करते हुए कहा:
"आईपीसी की धारा 376 के तहत का अपराध गंभीर और गैर-समझौता योग्य है, इसे केवल समझौते या मौद्रिक मुआवजे के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।"
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि बलात्कार सिर्फ व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि समाज के खिलाफ अपराध है, इसलिए इसे निजी समझौतों से नहीं निपटाया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: केस क्यों खारिज किया गया?
जस्टिस विक्रम नाथ और संजय कुमार की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर जोर दिया:
पीड़िता का स्पष्ट रुख
कोर्ट ने नोट किया कि पीड़िता, जो अब विवाहित है, लगातार कह रही है कि वह केस नहीं चाहती। उसे गवाही देने के लिए मजबूर करना उसके लिए दोबारा आघात होगा।
"मुकदमा चलाने से उसके निजी जीवन में और अशांति होगी... उसे अब आरोपों का समर्थन नहीं करना है।"
फटाफट हुई दूसरी एफआईआर
कोर्ट ने देखा कि बलात्कार के आरोप पहली एफआईआर के तुरंत बाद लगाए गए, जो प्रतिशोध की मंशा दिखाता है। कोर्ट ने माना, " "घटनाक्रम से लगता है कि दूसरी एफआईआर प्रतिक्रियास्वरूप दर्ज की गई हो सकती है।"
मुकदमा चलाने का कोई फायदा नहीं
चूंकि पीड़िता सहयोग नहीं कर रही, कोर्ट ने माना कि ट्रायल समय और संसाधनों की बर्बादी होगी। कोर्ट ने कहा, " "मुकदमा चलाने से कोई सार्थक परिणाम नहीं निकलेगा... यह सिर्फ पीड़ा को लंबा करेगा।"
क्या यह निर्णय बलात्कार कानूनों को कमजोर करेगा?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने देश में नयी बहस छेड दी है। यह फैसला विवादों में घिर गया है:
समर्थकों का कहना है कि यह कानून के दुरुपयोग को रोकता है और पीड़िता की इच्छा का सम्मान करता है।
आलोचकों को डर है कि इससे संवेदनशील मामलों में दबाव बढ़ेगा और अपराधियों को संदेश जाएगा।
कानूनविदों का कहना है कि यह फैसला विशेष मामले पर आधारित है, न कि हर बलात्कार केस के लिए। कोर्ट ने तथ्यों की विशिष्टता पर जोर देकर स्पष्ट किया है कि ऐसे फैसले सामान्य नहीं, बल्कि अपवादस्वरूप होंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों एफआईआर और संबंधित कार्यवाही (सेशन केस नंबर 29/2024) को खारिज कर दिया। यह फैसला दिखाता है कि हालांकि बलात्कार एक जघन्य अपराध है, लेकिन जब न्याय का कोई सार्थक उद्देश्य पूरा न हो, तो व्यवहारिकता भी देखनी होगी।