डोनाल्ड ट्रम्प ने एक साथ 100 देशों पर भारी टैरिफ का ऐलान कर दिया है.अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस दिन को मुक्ति दिवस घोषित कर दिया है.यह नयी युक्ति संभवतः किसी दौर में सामराजी हितों को ही साधने के लिए बनाए गए डब्लुटीओ से पूर्णतः मुक्ति के ऐलान जैसा है.
हालांकि ज्यादातर देशों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है,और अपनी अर्थव्यवस्था की सुरक्षा को लेकर नये सिरे से सोचना शुरू कर दिया है. जिन देशों के खिलाफ ट्रंप ने टैरिफ वार छेड़ा है,ज्यादातर देशों ने उसी अंदाज में जबाब दिया है.पर चीन ने कुछ ज्यादा ही कड़ा रुख अपनाया है.
उदाहरण के लिए अमेरिका ने धमकाया तो चीन ने हर तरह से हर जंग को अंत तक लड़ने की चुनौती दे डाली,एक टिप्पणी में चीन ने जोर देकर कहा है कि अमेरिकी टैरिफ धौंस के बरक्स हमारे पास दबाव झेलने की मजबूत क्षमता है.और हम जानते है कि हमले से कैसे निपटा जा सकता है.इसी क्रम में ज्यों ही चीन ने जवाबी कार्रवाई करते हुए, सभी अमेरिकी वस्तुओं पर 34 फीसदी टैरिफ लगाया,अमेरिकी स्टाक मे भारी गिरावट देखी गई है.हालाकि ट्रंप ने अब कहा है कि हम डील करने के लिए तैयार है,पर चीन के साथ व्यापार घाटा बहुत बड़ा है उसे हल करना पड़ेगा.
फ्रांस ने तो साफ-साफ कह दिया कि हमारा भविष्य न्यूयार्क या मास्को नहीं तय कर सकता है, कनाडा ने ट्रंप के फैसले को ही बेवकूफी भरा बता दिया. यहा तक कि जेलेंस्की भी ट्रंप के सामने अपने स्वाभीमान को बचाए रखने में सफल रहे.
ट्रंप द्वारा मनमाना टैरिफ थोपने के बाद हर तरफ अराजकता भरा माहौल फैलता ही जा रहा है.दुनिया भर में और अमेरिकी शेयर मार्केट भी धड़ाम-धड़ाम गिरने लगा हैं. अमेरिकी सामराजी पूंजी व उनके चहेते प्रतिनिधि डोनाल्ड ट्रम्प ने पूरी दुनिया को अनिश्चितता की ओर ढकेल दिया है.
यूरोपीय संघ की उर्सुला वांन डेयर ने चेतावनी दी है कि यूरोपीय संघ, ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए अमेरिकी टैरिफ का जवाब देने के लिए तैयार है, जर्मनी ने भी ट्रंप के व्यापार उपायों की तीखी आलोचना की है.यूरोपीय संघ के व्यापार प्रमुखों ने अमेरिका के साथ बातचीत का रास्ता खोल रखा है पर कोई उचित समझौता न होने पर,चुपचाप न बैठने का ऐलान भी कर दिया है.
हालांकि ट्रंप के तमाम अराजक कार्रवाइयों के बावजूद लगभग 50 मुल्कों ने अमेरिका से बातचीत करने का रास्ता भी खोल रखा है
स्पेन ने अमेरिकी टैरिफ से अपने देश को बचाने के लिए 14.1 बिलियन डॉलर के पैकेज की घोषणा भी कर डाली है,और अमेरिकी टैरिफ वार की तुलना 19वीं सदी के संरक्षणवाद से कर डाली है.
उसी तरह जापान ने भी टैरिफ को अत्यंत खेदजनक बताया है और इसका जबाब देने के लिए सभी विकल्प आजमाने का निर्णय लिया है..
शेयर मार्केट के रिकार्ड गिरावट के मायने
डोनाल्ड ट्रम्प के जबाबी टैरिफ से उपजे अनिश्चिताओं व आशंकाओं के चलते सबसे पहले तो अमेरिकी शेयर मार्केट में ही रिकार्ड गिरावट लगातार ज़ारी है.एस एंड पी 500 में 5.79 फीसदी,डॉव में 2231 अंक 5.5फीसदी तक की गिरावट आ गई, नैस्डेक तो 2022 के रिकार्ड स्तर तक नीचे गिर कर अपने उच्च स्तर से 20 फीसदी कम पर बंद हुआ.यह भी पहली बार है जब डॉव में कोई गिरावट दर्ज की गई.
एशियाई बाजार का भी बुरा हाल है, हांगकांग हैंगसेग लगभग 11 फीसदी गिर गया.टोकियो शेयर मार्केट में भारी गिरावट दर्ज की गई है,वहां पर निक्केई 7 फीसदी नीचे गिरा है शंघाई इंडेक्स में 6 फीसदी की और कोरिया के कोस्पु इंडेक्स में भी 5 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
ठीक यही हाल भारत का भी है सेंसेक्स के सभी शेयर,लाल निशान पर कारोबार कर रहे हैं.टाटा मोटर्स,एचसीएल टेक महिंद्रा इंफोसिस से लेकर रिलायंस इंडस्ट्रीज तक,सभी भारी गिरावट का सामना कर रहे हैं, घरेलू निवेशकों ने एक ही दिन में 19 लाख करोड़ खो दिया है.
ये जो दुनिया भर के शेयर मार्केट, धड़ाम-धड़ाम गिरने लगे हैं,उसकी एक बड़ी वज़ह चौतरफ़ा भारी अनिश्चितता का फैल जाना है. हालांकि कीमतों में गिरावट का मतलब हमेशा यह नहीं होता कि अनिवार्य तौर आर्थिक संकट बढ़ने वाला है,लेकिन बैंक जो अर्थव्यवस्था के प्रतिनिधि माने जाते हैं,वहा पर गिरावट,या तेल व तांबें जो आर्थिक स्वास्थ्य के मानक माने जाते हैं वहा भी 15 फीसदी की गिरावट से इस आशंका को बल मिलता है कि और मंदी की तरफ़ दुनिया बढ़ सकती है,और सप्लाई चेन फिर से बंद या मंद पड़ने के चलते कोविड जैसे भयावह दौर फिर से आ सकते है.
अमेरिका क्या हासिल करना चाह रहा है?
ट्रंप की नीतियों के खिलाफ अमेरिका में लाखों लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, एक नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार 54 फीसदी उत्तरदाता नए टैरिफ के खिलाफ है,पर ट्रंप अभी भी अड़े हुए हैं और खुलेआम कह रहे हैं कि चीजों को ठीक करने के लिए दवा लेनी पड़ती है.
एक और सर्वेक्षण के अनुसार 60 फीसदी उत्तरदाताओं ने ट्रंप सरकार द्वारा दुनिया भर के देशों से निपटने के तरिकों से असहमति व्यक्त की है,50 से ज्यादा देशों ने अमेरिकी सरकार से वार्ता का प्रस्ताव रखा है पर इस प्रस्ताव को भी यह कह कर नकार दिया जा रहा है कि यह राष्ट्रीय आपातकाल व्यापार घाटे पर केंद्रित है, हमारे साथ लंबे समय से धोखा हो रहा है,इस लिए जब तक व्यापार अधिशेष का सवाल हल नहीं होगा तब कोई और समझौता नहीं हो सकता है.
ट्रंप का समर्थन आधार अपने ही देश में लगातार घटता जा रहा है, बावजूद इसके वो इतना बड़ा जुआ क्यों खेले जा रहे हैं.
जब इसकी पड़ताल में जाएंगे तो पाएंगे की बात सिर्फ व्यापार घाटे का नहीं, बल्कि ज्यादा बड़ी बात ये है कि अमेरिकी सामराजी पूंजी 2008 की मंदी से अभी तक उबरने के बजाय असल में और डूबती ही जा रही है.
जब ट्रंप,ग्रेट अमेरिका अगेन का ऐलान करते हैं,या अमेरिका फर्स्ट की बात करते हैं तो असल में वो अमेरिकी जनता को नहीं,अमेरिकी पूंजी को संबोधित कर रहे होते हैं,जिसे हर हाल में अपनी साख व अपनी ताकत फिर से हासिल करनी है,जो आज के समय में उत्पादन का केंद्र तो नहीं ही रहा, तकनीक पर वर्चस्व भी उसने खो दिया है.ये संकट इतना बड़ा है कि अपने हितों के लिए बनाए गए तथाकथित वैश्विक संगठन डब्ल्यूटीओ जैसे तमाम वैश्विक संगठनों को भी अमेरिकी पूंजी ने अप्रासंगिक बना दिया है,बराबरी का रहा-सहा खोल भी उतार फेंका है,और अमेरिका, आदिम संचय के क्रूर व खुंखार रास्ते पर चल पड़ा है.बावजूद इसके ज्यादातर अर्थशास्त्री इस तरह के पहल को समाधान नहीं,संंकट और बढ़ाने वाला व अमेरिका व पूरी दुनिया को और ज्यादा मंदी,महंगाई और बेरोजगारी की तरफ ढकेल देने वाला बता रहे हैं..
भारत की चुप्पी के मायने क्या हैं?
भारत की चुप्पी को सत्ता समर्थक व उदार हिस्सा रणनीतिक चुप्पी या स्मार्ट मूव के बतौर देखने की कोशिश कर रहा है, इसके पीछे ये समझ बनी हुई है कि तुर्की-ब-तुर्की जबाब देने से ट्रंप और ज्यादा नाराज हो जाएंगे व टैरिफ वार को और ज्यादा तेज कर देंगे.
हालांकि भारत के चुप्पी साधने के बावजूद, अमेरिकी प्रशासन द्वारा, भारतीय प्रवासियों को विधिवत हथकड़ी व पैरों में बेड़ी डाल कर,सैनिक विमान से भारत की भूमि पर भेजा गया.जबकि और देशो ने आपत्ति दर्ज की,बातचीत की तो वहा के नागरिकों को बनिस्बत सम्मान पूर्वक उनके देश में भेजा गया.
अमेरिकी टैरिफ वार के मसले पर भी भारत को छोड़कर लगभग हर देश ने प्रतिवाद किया, आपत्ति दर्ज़ की व बातचीत का भी रास्ता खोले रखा, लेकिन भारत की तरह किसी ने भी चुप्पी नहीं साधी.
ये बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि अमेरिकी पूंजी भारी संकट में है,ऐसे में उसे न केवल व्यापार घाटा खत्म करना है, बल्कि हर हाल में दुनिया भर के बचे संसाधनों पर नये सिरे से क़ब्ज़ा भी करना है,और इस पूरी प्रक्रिया में नीजी दोस्ती-दुश्मनी का कोई मायने नहीं है. उसे हर हाल में अपनी खोई हुई ताक़त फिर से हासिल करनी है.
अमेरिका में ट्रंप के फिर से उदय को इसी कोशिश की उपज के बतौर देखना चाहिए,और ट्रंप की भाषा-बोली और दोस्तों व तथाकथित दुश्मनों के साथ एक ही तरह के व्यवहार को भी इसी संदर्भ से ही पकड़ना चाहिए.
इसीलिए आप देखेंगे कि अमेरिकी पूंजी के चरम संकट के चलते ही उसके राजनीतिक नेतृत्व,यानि ट्रंप के पास बहुत सारा विकल्प मौजूद नहीं है,इन्ही वजहों के चलते जब 50 से ज्यादा देशों ने बातचीत का प्रस्ताव डाला तो अमेरिकी शासन ने साफ-साफ कह दिया कि अधिशेष का सवाल, यानि व्यापार घाटा हल किए बग़ैर, बातचीत से क्या हासिल होगा.
इसी लिए सारी मान-मनौव्वल व चुप्पी,या अपमानजनक भाषा सहने के बावजूद, चूंकि ट्रंप के पास एक ही रास्ता था कि भारत पर औसतन 3-4 फीसदी टैरिफ को बढ़ा कर 27 फीसदी कर दी जाए, और वही हुआ भी.और भारत इसका प्रतिवाद भी नहीं कर पाया.
और यह सब तब हुआ जब अमेरिका द्वारा नया टैरिफ थोपे जाने से पहले ही,भारत ने अमेरिका से आयातित वस्तुओं पर से पहले ही टैरिफ हटा लिया था.
ऐसे में हक़-हधिकार व राष्ट्र के स्वाभिमान के लिहाज़ से तो यही सही था कि भारत अमेरिकी अन्याय का प्रतिवाद करता, अपने राष्ट्रीय हितों को खुलकर रखता, और तमाम बातचीत के बावजूद अगर अमेरिका नहीं मानता तो स्वतंत्र रूप से नए विकल्पों को शिद्दत से तलाशने में लग जाता,और नयी वैश्विक गोलबंदी की तरफ बढ़ जाता, और अमेरिका को अलगाव में डालकर,उसके अन्यायपूर्ण पहलकदमियों का ठीक-ठीक जबाब देता. लेकिन भारत ऐसा कुछ भी करता हुआ नहीं दिख रहा है,वह ट्रंप से थोड़ा भी राहत मिल जाए इस इंतज़ार में है.
इस पूरे घटनाक्रम से आप ये अंदाजा भी लगा सकते हैं कि अमेरिकी सामरजी पूंजी के सामने भारतीय पूंजी की वास्तविक हालत क्या है,वह कितना स्वतंत्र है,या कितने दबाव में है,या आज़ादी के बाद से उसने अगर उत्तरोत्तर कोई स्वायत्तता हासिल की भी है तो कितनी हासिल की है.और फिर इन्ही संदर्भों के आलोक में मोदी सरकार की लाचारगी या तथाकथित रणनीतिक चुप्पी को भी समझने की कोशिश करती चाहिए.