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त्रिपुरा की जनजातीय भाषाओं का डिजिटल दस्तावेजीकरण पूरा, ‘कोकबोरोक’ को मिली विशेष जगह

अगरतला: भारत की भाषाई धरोहर को सुरक्षित रखने की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। भारतीय भाषाओं का केंद्रीय संस्थान (Central Institute of Indian Languages – CIIL) और इंडियन लैंग्वेजेज़ के लिए लिंग्विस्टिक डेटा कंसोर्टियम (Linguistic Data Consortium for Indian Languages – LDC-IL) ने त्रिपुरा की जनजातीय भाषाओं का डिजिटल दस्तावेजीकरण पूरा कर लिया है। इनमें ‘कोकबोरोक’ भी शामिल है, जो राज्य की जनजातीय आबादी के बीच सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।

यह पहल डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत चलाई जा रही है, जिसका उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को डिजिटल रूप में संरक्षित करना और ख़ासकर विलुप्तप्राय जनजातीय भाषाओं को भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित करना है। इस संबंध में जानकारी केंद्रीय जनजातीय कार्य राज्य मंत्री दुर्गा दास उईके ने पूर्वी त्रिपुरा की लोकसभा सांसद कृति देवी सिंह के सवालों के लिखित उत्तर में संसद को दी।

भारतवाणी परियोजना के तहत 121 भाषाओं का संकलन

प्रेस सूचना ब्यूरो (PIB) द्वारा साझा किए गए बयान के अनुसार, भारतवाणी परियोजना, जिसे CIIL ने शुरू किया था, अब तक 121 भारतीय भाषाओं का ज्ञान-भंडार तैयार कर चुकी है। इसमें 22 अनुसूचित भाषाएँ और 99 गैर-अनुसूचित भाषाएँ शामिल हैं। यह भंडार वेब पोर्टल और मोबाइल ऐप दोनों पर उपलब्ध है, जिसमें पाठ, ऑडियो, वीडियो और शैक्षणिक सामग्री एक ही मंच पर उपलब्ध कराई गई है।

त्रिपुरा से जुड़ी प्रमुख भाषाएँ – कोकबोरोक, हालाम, मोग और चकमा – इस प्लेटफ़ॉर्म पर विशेष रूप से शामिल की गई हैं। इन भाषाओं की समृद्ध साहित्यिक परंपराओं को डिजिटल माध्यम से सुरक्षित कर आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना इसका मुख्य उद्देश्य है।

147 भारतीय भाषाओं का ‘मदर टंग कॉर्पस’

इसी क्रम में LDC-IL ने ‘मदर टंग पैरेलल टेक्स्ट कॉर्पस ऑफ इंडिया – वॉल्यूम I’ भी विकसित किया है। इसमें अंग्रेज़ी और 147 भारतीय मातृभाषाओं का संकलन है। कुल 5,332 वाक्यों को 152 व्याकरणिक श्रेणियों में व्यवस्थित किया गया है, जो भारत की भाषाई विविधता की गहरी झलक प्रस्तुत करता है।

इस कॉर्पस में त्रिपुरा का योगदान भी उल्लेखनीय है। यहाँ से कोकबोरोक में 27,063 शब्द, रियांग में 36,123 शब्द, पाइटे में 32,627 शब्द और कुकी में 32,695 शब्द दर्ज किए गए हैं। हालांकि पाइटे और कुकी भाषाएँ मुख्य रूप से मणिपुर में बोली जाती हैं, लेकिन त्रिपुरा में भी इनकी मज़बूत उपस्थिति है।

शोध, शिक्षा और सांस्कृतिक पहचान को बढ़ावा

जारी बयान में यह भी कहा गया कि इन पहलों से न केवल त्रिपुरा की जनजातीय भाषाओं की रक्षा होगी, बल्कि भविष्य के लिए भाषाई शोध, डिजिटल शिक्षा और पाठ्यक्रम विकास की ठोस नींव भी तैयार होगी। इन भाषाओं को राष्ट्रीय डिजिटल अभिलेखागार में शामिल करने से युवाओं में मातृभाषा के प्रति आकर्षण बढ़ेगा और वैश्विक स्तर पर त्रिपुरा की भाषाई धरोहर को पहचान मिलेगी।

राज्यस्तरीय प्रयास और आर्थिक सहयोग

मंत्री के लिखित उत्तर में यह भी बताया गया कि त्रिपुरा का जनजातीय अनुसंधान एवं सांस्कृतिक संस्थान (Tribal Research and Cultural Institute) लंबे समय से जनजातीय भाषाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने में सक्रिय है। इसके तहत किताबों और पत्रिकाओं का प्रकाशन, त्रिपुरा विश्वविद्यालय के साथ मिलकर सेमिनारों का आयोजन और लोक संगीत व परंपराओं का ऑडियो-वीडियो दस्तावेजीकरण किया जा रहा है।

जनजातीय भाषाओं के संरक्षण के लिए राज्य को वित्तीय सहायता भी दी गई है। वर्ष 2021-22 में 5 लाख रुपये और 2024-25 में 8 लाख रुपये की राशि आवंटित की गई। यह धनराशि प्रकाशनों, दस्तावेजीकरण और सांस्कृतिक सेमिनारों व कार्यशालाओं पर खर्च की गई।

इसके अलावा, डारलोंग, रोंगलॉन्ग और उचोई समुदायों की भाषाओं के दस्तावेजीकरण का कार्य भी जारी है, जिससे राज्य की भाषाई विविधता के संरक्षण का दायरा और व्यापक होगा।

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