संसद में पेश किया गया आम बजट लगातार चर्चा में है. प्रधान मोदी ने इस बजट को, सरकारी खजाना भरने के बजाय जनता की जेब भरने वाला बजट बताया व साथ ही इस बजट को अर्थव्यवस्था का ग्रोथ इंजन भी कहा. मीडिया के बड़े हिस्से ने भी बजट के एक पहलू को उठाकर, मध्यवर्ग को दिए गए टैक्स छूट को ऐतिहासिक कदम बता दिया है.
हालांकि विपक्ष एक गंभीर आलोचना के साथ सामने आया और उसने बजट की दिशा को मूल सवालों से भागने वाला बताया,और आरोप लगाया है कि सरकार अपनी विफलताओं को बजट के जरिए ढंकने की असफल कोशिश करती नज़र आ रही है. पर हमें ये समझना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आज़ जिस तरह के संकट से गुजर रही है,क्या मोदी सरकार द्वारा पेश किया गया 12वां आम बजट इस संकट को संबोधित करता हुआ दिख रहा है.
इसकी शिनाख्त करने के लिए हमें यह समझना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक हालत क्या है. यानि विकास दर कितना है,संगठित व असंगठित क्षेत्र के हालात कैसे हैं,रोजगार उत्पादन की क्षमता कितनी है मुद्रास्फीति कंट्रोल में है या नही, इत्यादि ऐसे ही अनेक सवाल है जिनका जबाब जानना जरूरी है.
अर्थव्यवस्था की वास्तविक हालत क्या है?
अर्थव्यवस्था की सेहत को जब हम समझने की कोशिश करते हैं तो मायुसी हाथ लगती है, क्यों कि सेहत कुछ ज्यादा ही खराब मिलती है, मसलन कोरोना काल के बाद, आज़ सबसे बुरी स्थिति से होकर,हमारी अर्थव्यवस्था गुज़र रही है.हमारा विकास दर बेहद निचले स्तर पर चला गया है,विकास दर का 5.3 फीसदी तक चले जाना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चिंताजनक है.
और यह भी समझना ज़रूरी है कि यह खराब तस्वीर भी अर्थव्यवस्था के बेहद छोटे हिस्से का है,जिसे हम संगठित क्षेत्र कहते हैं, इसे औपचारिक क्षेत्र भी कहा जाता है जो कि पूरी इकोनॉमी का फकत 6 फीसदी है.
94 फीसदी रोजगार तो अनौपचारिक क्षेत्र से आता है,यानि एमसएमई जहां अभी भी 48 फीसदी व कृषि क्षेत्र जहां से 46 फीसदी वर्क फोर्स आता है.
इस अनौपचारिक क्षेत्र, जिसे असंगठित क्षेत्र भी कहा जाता है,की सेहत संगठित क्षेत्र से भी ज्यादा खराब है.
हालांकि सरकार कभी भी जीडीपी में अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से को शामिल ही नही करती.
अनौपचारिक क्षेत्र के हालात का अनुमान भर किया जाता है,और संगठित क्षेत्र के आधार पर ही असंगठित क्षेत्र का आकलन कर लिया जाता है.
नोटबंदी, लाकडाउन, व खराब जीसटी जैसी नीतियों ने इस सेक्टर को लगभग खत्म कर दिया है. और अब वास्तव में अगर ठीक-ठीक आंकड़े जुटाया जाएं तो तय है कि हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था का विकास दर लुढ़क कर 2 फीसदी पर चला आएगा. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी ज्यादा खराब स्थिति है.
इसी तरह आप देखेंगे कि भारत में असमानता भी ख़तरनाक ढ़ग से बढ़ती जा रही है,हर साल अरबपतियों की संख्या भी बढ़ रही है और फिर उसी तरह भुखमरी का भूगोल भी बढ़ता जा रहा है,ये अनायास नही कि 80 करोड़ लोगों को 5 किलों देकर जिलाया जा रहा है. और यह भी कि गरीबों का जो समुंदर विस्तार ले रहा है उसका 90 प्रतिशत दलित,पिछड़ा,आदिवासी व पसमांदा समाज से आता है जिसे इस आर्थिक संकट के चलते ही नए तरह के सामाजिक वर्चस्व को भी सहना पड़ रहा है.
कमजोर होती अर्थव्यवस्था ने महिलाओं को भी कमजोर किया है,लाकडाउन,नोटबंदी या अन्य खराब नीतियों ने महिलाओं की आत्मनिर्भरता को भी संकट में डाल दिया है.
अर्थव्यवस्था का संकट और बजट की दिशा
जब हम इसकी तलाश करते हैं कि क्या 2025-26 का बजट अर्थव्यवस्था के संकटों को संबोधित करने की कोशिश करता दिखता है?या क्या यह सरकार समस्याओं को हल करने के लिए कोई बड़े फैसले लेने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाती नज़र आती है?अफसोस ऐसा कुछ भी होता नही दिखता है.
रोजगार का उत्पादन ही आज़ अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए केंद्रीय प्रश्न बना हुआ है,पर इसी प्रश्न पर आम बजट का कोई ध्यान नही है.रोजगार पैदा करने वाले जितने सेक्टर है,इस आम बजट में भारी उपेक्षा के शिकार हैं.
विनिर्माण क्षेत्र,रोजगार उत्पादन का बड़ा सेंटर हो सकता है,जिसका जीडीपी में योगदान घटता जा रहा है, फिर भी यह क्षेत्र बजट के एजेंडे से बाहर है. ग्रामीण विकास जहां एक बड़ी वर्क फोर्स है,इस मोर्चे पर भी आम बजट ने ध्यान नही दिया है.
मनरेगा जो ग्रामीण इलाके में रोजगार का बड़ा सेंटर हैं, यहां भी पिछले बजट को दुहरा दिया गया है, अब अगर बढ़ती मंहगाई व मुद्रास्फीति के आलोक में देखा जाए तो वास्तव मनरेगा का बजट घटा दिया गया है.
कृषि सेक्टर,जहां आज़ भी कुल रोजगार का 46 फीसदी है,इस आम बजट में बिल्कुल ही उपेक्षा कर दी गई है. किसान आंदोलन से किए वादे तो नही ही माने गए, बल्कि संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिशो को भी मोदी सरकार ने ठुकरा दिया है.
संयुक्त संसदीय समिति ने साफ-साफ कहा था कि किसानों के कर्ज़े माफ़ कर दिए जाने चाहिए, एमएसपी को कानूनी दर्जा मिल जाना चाहिए,और किसान सम्मान निधि को विस्तार दिया जाना चाहिए.पर आम बजट में इसमें से कोई भी मांग नही मानी गई.
इसी तरह शिक्षा व स्वास्थ्य पर खर्च को हमेशा से सभी जनपक्षधर अर्थशास्त्री भी अच्छी अर्थव्यवस्था,रोजगार,व राष्ट्र निर्माण में निवेश के बतौर देखते रहे हैं.
इसी लिए लंबे समय से यह मांग हो रही है कि शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 फीसदी और स्वास्थ्य पर 3 फीसदी खर्च किया जाना चाहिए.
पर मोदी सरकार 11 साल तक शासन करने के बाद भी इस मोर्चे पर लक्ष्य के आस-पास भी कही नही दिखती है.
आम बजट के भटकाव के पीछे की राजनीतिक अर्थशास्त्र क्या है?
हमें यह समझना होगा कि आखिर रोजगार पैदा करने वाले इतने सारे सेक्टरों पर और भारत की श्रमशील जनता व सामाजिक अन्याय झेल रहे तबको पर कोई खर्च करने के लिए सरकार तैयार क्यों नही है.
ऐसा क्यों है कि 12 लाख सालाना कमाने वाले,जो एक हद तक सक्षम लोग है,को टैक्स में छूट देने के लिए और उन पर लगभग 1 लाख करोड़ तक खर्च करने के लिए तो सरकार तैयार है.
पर कृषि क्षेत्र, मनरेगा, ग्रामीण विकास, और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे रोजगार व मांग पैदा करने वाले सेक्टर का बजट बढ़ाने के बजाय उसमें कटौती करने पर आमादा है.
इस संदर्भ में दो बड़ी वज़ह समझ में आती है जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए.
एक तो यह कि मोदी सरकार ने अपने हाथ, पहले की सरकारों से कही ज्यादा,अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बांध रखें है, जिसके चलते उसे नवउदारवादी दायरे में रहते हुए और मंदी से निपटने के लिए उसी के बताए रास्ते पर बढ़ने पर रहा है, जिसके तहत बार-बार सरकार को सप्लाई साइड को ही मदद करनी पड़ती है.
इसी लिए हमने देखा कि कोरोना काल में भी बड़ा पैकेज कारपोरेट को ही दिया गया, पिछले दिनों में कारपोरेट टैक्स को भी माफ़ किया गया,और इसी समझ के तहत हर साल कारपोरेट लोन को माफ़ कर दिया जाता है.
और यह सब इस लिए किया जाता है कि वे बाजार में निवेश करेंगे, डिमांड बढ़ेगी,मंदी से मुक्ति मिलेगी,अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी,पर ऐसा होता नही,वे बाजार में निवेश ही नही करते बल्कि अपना बैलेंस शीट ठीक करने में लग जाते हैं,और वो ऐसा बार-बार करते हैं,हर बड़े पैकेज का यही हस्र होता है.
ठीक इसके विपरित अगर ये सारे पैकेज दलित-पिछड़ा-आदिवासी- अल्पसंख्यक मजदूर किसानों आदि के हिस्से में जाता तो यह हिस्सा बचत करने की स्थिति नही होता है,सारा पैसा बाजार में जाता और अर्थव्यवस्था को गति मिलती. पर ऐसा न कर इस बार भी बजट में डिमांड साइड की उपेक्षा की गई,इसी लिए आप देखेंगे कि ग्रामीण विकास या मनरेगा हो,कृषि शिक्षा स्वास्थ्य हो सब में में कटौती कर दी गई है.
वही पैसा उच्च मध्य वर्ग को दे दिया गया है और यह उम्मीद की गयी है इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी.
जबकि सच्चाई ये है कि यह हिस्सा पहले से ही बाजार में पैसा खर्च कर रहा है,अब वह इस पैसे का इस्तेमाल अपने लोन चुकाने में अपने इएमआई चुकाने में लगा देगा..
बेहद सक्षम होने के बावजूद उच्च मध्य वर्ग को टैक्स में दिए गए छूट के पीछे की बड़ी वजह, संघ-भाजपा को सता रहा एक राजनीतिक डर भी है.
2024 लोकसभा चुनाव में लगे झटके से भाजपा अभी भी उबर नही पा रही है.उस समय सामाजिक न्याय व संविधान,बड़ा प्रश्न बन गया था,सेकुलर व सामाजिक न्याय समर्थक शक्तियों ने हिंदुत्व को नकार दिया था,
भाजपा अभी उस झटके से उबरने की कोशिश में लगी ही थी कि एक और चिंता उसे सताने लगी है.
मध्य वर्ग जो उसका मूल वोटर रहा है,उसके अंदर भी निराशा बढ़ती जा रही है,केवल हिंदुत्व के बल उसे अपने साथ टिकाए रखना भाजपा के लिए मुश्किल होता जा रहा है.
दरअसल टैक्स में छूट देकर इसी राजनीतिक संकट को भी संबोधित करने की कोशिश की गई है.यह कोशिश कितनी सफल होगी यह देखना तो अभी बाकी है पर यह तो तय है कि अर्थव्यवस्था और ज्यादा संकट की तरफ बढ़ेगी.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.