संभल में जिस तरह से हिंसा का तांडव रचाया गया, उससे एक बात बेहद स्पष्टता से सामने आ गई कि योगी सरकार की आगामी योजना क्या है, इस योजना के पीछे की मंशा क्या है, और यह भी कि हिंसा की इस नयी परियोजना पर काम करने के पीछे, संघ-भाजपा का बढ़ता संकट है या बढ़ती ताकत.
संघ-भाजपा की इस तथाकथित सर्वे परियोजना का विस्तार कहां तक होने जा रहा है,इसे भी समझना जरूरी है, खासकर यह समझना कि देखते ही देखते मुख्यधारा की मीडिया,सत्ता के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तंत्र में कैसे बदलता गया है, या अदालतों का सत्ता के साथ बढ़ता रिश्ता भविष्य में क्या संकट पैदा कर सकता है.सवाल है कि अदालतों का सत्ता के साथ कदमताल की मूल वजहें क्या है? ऐसे बहुत सारे सवालों का समय रहते हल करना, समझना ज़रूरी होता जा रहा है; जैसे भारतीय स्टेट मशीनरी का, मसलन पुलिस, सैन्य बल, नौकरशाही आदि का, अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया बेहद ख़तरनाक स्तर पर कैसे पहुंच गया.
इन सारे परिवर्तनों को विस्तार से समझने के लिहाज़ से,संभल व शाही जामा मस्जिद सबसे ताजा उदाहरण है, जिसके जरिए न केवल भारत, खासकर उत्तर भारत में बदलती राजनीति व संघ-भाजपा के अंदरूनी किंतु-परंतु को भी देखा-पढ़ा जा सकता है.
सत्ता और अदालतों का संभावित कदमताल व बढ़ता सांप्रदायिक तनाव
प्लेसेस आफ़ वर्शिप एक्ट 1991, साफ-साफ कहता है कि 1947 के बाद किसी भी धर्म स्थल के स्वरूप में कोई भी परिवर्तन नही किया जा सकता है,यानि यथास्थिति को हर हाल में बरकरार रखा जाएगा. केवल बाबरी मस्जिद को इस एक्ट से अलग रखा गया, अन्यथा अन्य किसी भी पूजा स्थल के मामले में अगर कोई याचिका किसी अदालत में डाली भी जाती है,तो वह अपने आप ही खत्म हो जाएगी. क्लाज 4 में तो यह भी प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति या संस्था इस कानून का उलंघन करने की कोशिश करता पाया गया तो जुर्माने के साथ 3 साल की सजा भी हो सकती है. बावजूद इसके, लोकल अदालतें, प्लेसेस आफ़ वर्शिप एक्ट 1991 का बार-बार उलंघन करने पर आमादा दिख रही हैं.
ज्ञानवापी मस्जिद को विश्वंभर भगवान का मंदिर बता कर ज्यों ही दावा किया गया,लोकल अदालत ने तुरंत ही स्वीकार कर लिया और आनन-फानन में सर्वे का आदेश भी दे दिया गया. कायदे से लोकल अदालत को प्लेसेस आफ़ वर्शिप एक्ट 1991 को ध्यान में रखते हुए, इस याचिका को स्वीकार ही नही करना चाहिए थी, पर न केवल लोकल कोर्ट में ऐसा नही हुआ, बल्कि हाईकोर्ट ने भी इस मुकदमे की हो रही सुनवाई पर रोक लगाने से इंकार कर दिया. हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के, डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली बेंच ने, वर्शिप एक्ट की एक ऐसी मौखिक व्याख्या कर डाली जो बेहद ख़तरनाक साबित हुई.
कोर्ट ने कहा कि किसी भी पूजा स्थल का स्वरूप तो नही बदला जा सकता,पर शैक्षणिक दृष्टिकोण से सर्वे कर, संबंधित पूजा स्थल का वर्तमान में क्या कैरेक्टर है,ये ज़रूर जाना जा सकता है.जस्टिस चंद्रचूड़ के इस एक वाक्य के ज़रिए, पूरे देश को आज भारी तनाव की ओर ढकेल दिया गया है. जाने-अनजाने किसी चीफ़ जस्टिस द्वारा, संघ-भाजपा की घृणा राजनीति को बढ़ाने-भड़काने के लिए भारी मात्रा में ईंधन मुहैय्या करा दिया गया है.दुःखद ये है कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने भी जस्टिस चंद्रचूड़ की ग़लत व्याख्या को करेक्ट करने कोई भी कोशिश अभी तक नही की है, बल्कि उसी आदेश के आलोक में ही फ़ैसले लेते नज़र आ रहे हैं.
अदालतों का सत्ता के साथ संभावित कदमताल, संघ-भाजपा को सूट करने लगा है, अनान्य अदालती कार्यवाहियों के जरिए संघ-भाजपा की घृणा राजनीति को विस्तार देने की संभावनाओं पर काम किया जाने लगा है. फिलहाल सर्वे राजनीति भाजपा के लिए ज्यादा सुरक्षित और असरकारी साबित हो रही है. जो ज्ञानवापी से शुरू होकर मथुरा, संभल होते हुए अजमेर शरीफ़ आ पहुंची है.
संघ-भाजपा की लिस्ट भी अभी बहुत लंबी है.लगभग 40 हजार मस्जिदों के मंदिर होने का दावा किया जाना अभी बाकी है. आप कल्पना नही कर सकते हैं कि आने वाले समय में लोकल व उच्चतम अदालतों के माध्यम से देश को कितनी बड़ी अराजकता की ओर ढकेलने की तैयारी चल रही है. यह समझना आज़ जरूरी है कि फ़ासिज़्म जनता को ही जनता के एक हिस्से के खिलाफ खड़ा करके आगे बढ़ता रहा है. पर यह भी जानना बेहद जरूरी है कि फासिस्ट परियोजनाएं सत्ता के अलग-अलग संस्थानों की स्वायत्तता को अंदर से भंग करके उसे अपने जनसंगठन में तब्दील करके भी आगे बढ़ती हैं.ऐसे में यह देखना-परखना जरूरी हो जाता है कि ईडी, सीबीआई, पुलिस, नौकरशाही के साथ -साथ आज़ न्याय तंत्र की स्वतंत्रता भी कितनी शेष रह गई है.
हिंदुत्व की राजनीति का बढ़ता संकट
यह सच है कि संघ-भाजपा का केंद्रीय विचार हर हाल में हिंदुत्व ही है. इसी के इर्द-गिर्द सारा का सारा ताना-बाना रचा जाता है. यह भी सच है कि विचार के मोर्चे पर हिंदुत्व, महिला विरोधी है,सामाजिक न्याय विरोधी है, ब्राह्मणवाद का पोषक है, अनान्य आधुनिक मुल्यों से लैस संविधान को मनुवादी दिशा में ले जाना चाहता है, व घनघोर कारपोरेट समर्थक है. इन सभी बिंदुओं को सही दिशा में समग्रता में समेटने के लिए, एंटी मुस्लिम कैम्पेन को सेंटर में रखता है.
इतिहास के अलग-अलग दौर में संघ-भाजपा को, विचारधारात्मक पहलुओं को तत्कालीन राजनीतिक वजहों से थोड़ा धीमा करना पड़ा है. 2014 बाद इसी रणनीति को भाजपा ने राजनीति के केंद्र में रखा, दो क़दम आगे बढ़ने के लिए एक क़दम पीछे जाने की नीति पर काम किया। इसी रणनीति के तहत थोड़ा महिला पक्षधर होने का स्वांग रचा गया, राशन राजनीति को संबोधित किया गया,राष्ट्रवाद का छौंका लगाया गया, 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की बात की गई.
2024 में यह रणनीति फेल कर गई,सामाजिक अन्याय का तोहमत भाजपा पर जोर से चस्पा हो गया, महिला, दलित, पिछड़ा व आदिवासी समाज अपने अधिकारों को लेकर बेहद चिंता में चला गया. नतीजन संविधान की रक्षा का प्रश्न इन सभी तबकों के लिए केंद्रीय प्रश्न बन गया, जिसके चलते भाजपा ने हिंदुत्व के अपने मुख्य गढ़, उत्तर प्रदेश को खो दिया,और नरेंद्र मोदी भी ब्रांड नही रह गए, राम मंदिर का मुद्दा भी अप्रासंगिक सा हो गया. यही वजह है कि आज संघ-भाजपा को घोर सांप्रदायिकता को सेंटर में लाना पड़ा है,चुनाव के बाद मांब लिंचिग की बाढ़ आ गई है, बहराइच माडल की हिंसा बढ़ गई है, और अब सर्वे राजनीति के माध्यम से, कई-कई संभल रचाने की योजना को परवान चढ़ाया जा रहा है.
संघ-भाजपा का फासिस्ट हिंसा की तरफ़ बढ़ना, उसे राजनीति के केंद्र में लाना, नफरती राजनीति के अपने चरमोत्कर्ष पर ले जाना. उसकी किसी मजबूती का लक्षण नही है बल्कि भारी कमजोरी का लक्षण है.संकटकालीन व संक्रमणकालीन लक्षण है,अभी जिसे हल करने की स्थिति में भाजपा अपने आप को बिल्कुल ही नही पा रही है.हालांकि जनता ज्यादा परिपक्वता के साथ भाजपा की संक्रमणकालीन संकट को समझने लगी है,और उसी अनुरूप,अलग-अलग राज्यों में बेहद परिपक्वता से फैसले भी ले रही है। पर यह देखना अभी बाकी है कि समूचा विपक्ष इस बदलते समय को कितना पहचान पा रहा है?
भाजपा नयी सांप्रदायिक रणनीति के मुकाबले विपक्ष क्या कर रहा है
2024 में मिले झटके ने भाजपा को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है. झारखंड का चुनाव अब तक का सबसे जहरीला चुनाव साबित हुआ है, यूपी उपचुनाव में खुलेआम मुसलमानों को राज्य मशीनरी के बल पर वोट डालने से ही रोक दिया गया, और संभल में भी सत्ता के बल पर मस्जिद और मुसलमानों को लिंच किया गया. भाजपा की बदली हुई रणनीति के बावजूद ज्यादातर विपक्ष, पुरानी रणनीति पर ही क़ायम दिखता है. यानि मुस्लिम शब्द से परहेज़ करो, ज्यादातर समय उन्हें मुस्लिम की जगह अल्पसंख्यक बोलो, मुस्लिम अधिकारों से जुड़े सवालों को नजरंदाज करों, धीमी आवाज़ में बोलो या चुप्पी साधे रहो.
आज़ जब कि बात बदल गई है,जनता के बड़े हिस्से में यानि पिछड़े दलित आदिवासी समाज व महिलाओं में, मुस्लिम विरोधी भावना बेहद कमजोर हुई है.
इसे आप लोक सभा चुनाव से लेकर झारखंड चुनाव तक साफ-साफ देख सकते हैं. इसका मतलब यह है कि लंबे समय बाद ऐसा समय आया है जब जनता के बड़े हिस्से ने घृणा व नफरत की राजनीति को ठीक-ठीक समझना शुरू किया है. यही वह समय है जब विपक्ष को हर तरह की नफरती राजनीति का सामने से आकर मुकाबला करने की रणनीति को राजनीति के केंद्र में लाना चाहिए, ताकि फासिस्ट परियोजनाओं को परिपक्व हो रही जनता के बीच में और ज्यादा एक्सपोज़ किया जा सके.
अगर एक स्तर पर,यूपी उपचुनाव,बहराइच और संभल मामले में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की पहलकदमियों को छोड़ दिया जाए,जिन्होंने इन सभी मामलों में सामने से आकर मुकाबला करने की लंबे समय बाद एक गंभीर कोशिश की है, तो समूचा विपक्ष और खासकर कांग्रेस, बदलते समय को न पहचान पाने की वज़ह के चलते, अभी भी अल्पसंख्यक प्रश्न पर पुराने राग को ही अलापती दिख रही है. ये जरूर है कि राहुल गांधी देर से ही सही संभल जाने की कोशिश कर रहे हैं. पर बहराइच से संभल तक की हिंसा व हिमाचल से तेलंगाना तक की लिंचिग पर उनकी चुप्पी के बाद की यह संभल यात्रा,रश्म अदायगी ज्यादा लग रही है, यानि पुरानी रणनीति में कोई बदलाव होता अभी भी नही दिख रहा है, जो कि इस बदलते समय में देश व समाज के लिए, बेहद चिंता का बिषय होने वाला है.
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