भोपाल। मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के संगठनात्मक चुनावों की सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। इस बार की सबसे बड़ी चर्चा यह है कि क्या प्रदेश की कमान किसी आदिवासी या दलित नेता के हाथों सौंपी जाएगी, या फिर हमेशा की तरह सवर्ण चेहरे ही बाजी मारेंगे। राजनीतिक गलियारों में गहमागहमी के बीच पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा, अरविंद सिंह भदौरिया, रीति पाठक और वीडी शर्मा जैसे बड़े सवर्ण नामों के साथ-साथ एससी/एसटी समुदाय से फग्गन सिंह कुलस्ते, सुमेर सोलंकी, भूपेंद्र आर्य और लाल सिंह आर्य जैसे नेताओं के नाम भी चर्चा में हैं। क्या इस बार बीजेपी सामाजिक समरसता की ओर कदम बढ़ाएगी, या परंपरा को बरकरार रखेगी?
'सबका साथ, सबका विकास' का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि पिछले 24 वर्षों में पार्टी ने मध्य प्रदेश में किसी दलित या आदिवासी को निर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी नहीं सौंपी। यह स्थिति उस राज्य में है, जिसे 'आदिवासी प्रदेश' कहा जाता है, जहां 21 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है और 16 प्रतिशत दलित समुदाय की संख्या है। इतनी बड़ी सामाजिक हिस्सेदारी के बावजूद, इन समुदायों को प्रदेश अध्यक्ष के पद पर प्रतिनिधित्व का अवसर अब तक नहीं मिला है।
सभी वर्गों को राजनीति में समान भागीदारी देने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने बीते 24 वर्षों में प्रदेश अध्यक्ष के पद पर केवल ब्राह्मण, ठाकुर और ओबीसी नेताओं को ही मौका दिया है। यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक न्याय का सिद्धांत, जिसके दम पर पार्टी चुनावी वादे करती है, उसकी गाइडलाइनों में कहीं जगह नहीं पाता। बीजेपी का यह ट्रेंड न सिर्फ आदिवासी और दलित समुदाय की अनदेखी को दर्शाता है, बल्कि 'सबका साथ, सबका विकास' के दावे पर भी सवाल खड़े करता है।
कब कौन रहा? 'प्रदेश अध्यक्ष'
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना 6 अप्रैल, 1980 को हुई। तब से लेकर अब तक मध्य प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व सवर्ण वर्ग के नेताओं के हाथों में रहा है। 44 वर्षों के इतिहास में केवल एक आदिवासी नेता और एक दलित नेता को प्रदेश अध्यक्ष पद तक पहुंचने का मौका मिला, वह भी सीमित अवधि के लिए।
शिवराज सिंह चौहान ने 29 नवंबर 2005 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन इससे पहले, मई 2005 में उन्हें भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष चुना गया था। उनके बाद डॉ. सत्यनारायण जटिया को फरवरी 2006 में अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि, यह नियुक्ति मनोनयन द्वारा हुई थी, और एक वर्ष के भीतर ही जटिया को पद छोड़ना पड़ा।
2006 से 2020 तक, भाजपा ने नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा, नंदकुमार सिंह चौहान और राकेश सिंह जैसे सवर्ण और ओबीसी नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। 2020 में वीडी शर्मा को अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जो अब भी इस पद पर बने हुए हैं, हालांकि उनका कार्यकाल 2023 में समाप्त हो चुका है।
आदिवासी अध्यक्ष: सिर्फ एक बार
मध्य प्रदेश से 16 जिलों को अलग कर 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। इससे पहले, 1997 से 2000 तक नंदकुमार साय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे। वे इकलौते आदिवासी नेता थे जिन्हें इस पद पर चुना गया। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद, भाजपा ने मध्य प्रदेश में कभी किसी आदिवासी नेता को अध्यक्ष नहीं बनाया।
दलित नेतृत्व का भी अभाव
सत्यनारायण जटिया, जो दलित वर्ग से आते हैं, को फरवरी 2006 में मनोनीत किया गया। यह कार्यकाल मात्र 9 महीने का था। इसके बाद भाजपा ने दलित समाज से किसी को भी अध्यक्ष पद के लिए नहीं चुना।
सवर्ण वर्चस्व का सिलसिला
मध्य प्रदेश भाजपा के गठन से लेकर अब तक अधिकांश प्रदेश अध्यक्ष सवर्ण वर्ग से रहे हैं। सुंदरलाल पटवा लक्ष्मीनारायण पांडेय, नरेन्द्र सिंह तोमर, प्रभात झा, राकेश सिंह, वीडी शर्मा जैसे नेताओं ने नेतृत्व संभाला।
जनसंघ और जनता पार्टी में भी समान स्थिति रही
1951 में स्थापित भारतीय जनसंघ ने भी नेतृत्व में आदिवासी और दलित समुदायों को ज्यादा अवसर नहीं दिए। 1951 से 1977 तक जनसंघ ने मध्य प्रदेश में 9 अध्यक्ष बनाए, जिनमें से एक भी आदिवासी या दलित नहीं था।
1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ और जनसंघ का इसमें विलय हो गया। लेकिन जनता पार्टी के समय भी यह स्थिति नहीं बदली।
संगठनात्मक ढांचा
भारतीय जनता पार्टी का पूरा संगठन राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक तकरीबन सात भागों में बंटा है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिषद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी, प्रदेश स्तर पर प्रदेश परिषद और प्रदेश कार्यकारिणी होती हैं। इसके बाद क्षेत्रीय समितियां, जिला समितियां, मंडल समितियां होती हैं। फिर ग्राम और शहरी केंद्र होते हैं और स्थानीय समितियों का भी गठन होता है। स्थानीय समिति पांच हजार से कम की जनसंख्या पर गठित होती है।
भाजपा के संविधान और नियम की धारा 21 के मुताबिक कोई भी व्यक्ति तीन-तीन वर्ष के दो कार्यकाल तक ही अध्यक्ष रह सकता है। प्रत्येक कार्यकारिणी, परिषद, समिति और उसके पदाधिकारियों तथा सदस्यों के लिए भी तीन वर्ष की अवधि तय की गई है।