2024 के आम चुनावों में पूर्ण बहुमत से वंचित रहने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली में अप्रत्याशित बदलाव दिखाई दे रहा है। 240 सीटों पर सिमटी बीजेपी पहली बार बैसाखियों के सहारे केंद्र में सरकार चला रही है। यह स्थिति खुद प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक छवि के लिए भी एक चुनौती बन गई है।
चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार ने जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे पर रुख अपनाया है—एक ऐसा एजेंडा, जिसे राहुल गांधी लंबे समय से आगे बढ़ाते रहे हैं और जिस पर कांग्रेस के भीतर भी मतभेद रहा है। अब जब सरकार ने जाति जनगणना पर विचार करने की बात कही है, तो यह स्पष्ट संकेत है कि केंद्र में बैठी सत्ता विपक्ष के दबाव में आकर उसकी ज़मीन पर खेलने को मजबूर हो रही है।
राहुल गांधी लगातार जाति जनगणना की मांग करते रहे हैं। उनकी भारत जोड़ो यात्रा हो या संसद के भाषण, हर मंच पर उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति को केंद्र में लाने की कोशिश की है। वहीं, नरेंद्र मोदी की सरकार लंबे समय तक इस मांग से किनारा करती रही। लेकिन अब जिस तरह जाति जनगणना की घोषणा की गई है, वह एक अहम राजनीतिक मोड़ की ओर इशारा करता है।
कांग्रेस इस फैसले को अपनी वैचारिक जीत मान रही है। पार्टी के भीतर भी राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ी है—वे नेता जिन्होंने संगठन के भीतर विरोध के बावजूद जाति आधारित गणना की हिमायत की। आज वही मुद्दा राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है, और खुद प्रधानमंत्री मोदी को उस पर सहमत होना पड़ा है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ एक चुनावी रणनीति है? क्या जाति जनगणना का यह ऐलान सिर्फ बिहार जैसे अहम राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए किया गया है?
बिहार में जातिगत आंकड़े हमेशा से एक बड़ा चुनावी मुद्दा रहे हैं। लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव ने इसे अपनी राजनीति का आधार बनाया है। अब जब केंद्र सरकार ने भी इस मुद्दे पर कदम बढ़ाया है, तो इसमें महागठबंधन की चिंता और बीजेपी की रणनीति—दोनों के संकेत छिपे हैं। चिराग पासवान जैसे सहयोगी नेताओं ने भी इसका स्वागत किया है।
हालांकि कांग्रेस और विपक्षी दल अब यह सवाल उठा रहे हैं कि जनगणना के लिए फंड कहां है? कब तक होगी यह जनगणना? क्या इसके आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाएगी? सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के चलते 50 प्रतिशत की सीमा पहले से तय है। ऐसे में क्या जाति जनगणना महज एक प्रतीकात्मक राजनीतिक हथकंडा बनकर रह जाएगी?
दूसरी ओर, सुरक्षा और राष्ट्रवाद के मोर्चे पर सरकार को नए संकटों का सामना करना पड़ रहा है। पहलगाम में हुए हमले के बाद विपक्ष ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के साथ मिलकर काम करने की सलाह ने सरकार की ‘सख्त छवि’ को चुनौती दी है।
राहुल गांधी ने इस अवसर पर दोहरा मोर्चा खोल दिया है—एक ओर वे जातिगत न्याय की मांग कर रहे हैं, दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सरकार से जवाब मांग रहे हैं। सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी अब इन मुद्दों पर निर्णायक कदम उठा पाएंगे, या फिर वे केवल वक्त को टालने की रणनीति अपना रहे हैं?
राजनीति के जानकार मानते हैं कि यह वही क्षण है, जब ‘कमंडल बनाम मंडल पार्ट-2’ की शुरुआत हो सकती है। जाति आधारित जनगणना, सामाजिक प्रतिनिधित्व की मांग और आरक्षण पर बहस भारत की राजनीति को एक नई दिशा दे सकती है।
लेकिन असली परीक्षा तब होगी, जब सरकार इस घोषणा को ज़मीनी हकीकत में बदलेगी। क्या जातिगत जनगणना के बाद आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाएगा? क्या आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाएगी? या फिर यह मुद्दा भी लोकपाल की तरह महज़ एक चुनावी शिगूफा साबित होगा?
प्रधानमंत्री मोदी को अब स्पष्टता के साथ देश को बताना होगा कि वे जाति जनगणना के बाद क्या ठोस कदम उठाएंगे। और अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह मुद्दा राहुल गांधी और विपक्ष के लिए एक स्थायी हथियार बन सकता है।
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