नई दिल्ली - प्रख्यात अर्थशास्त्री और सामाजिक न्याय विशेषज्ञ प्रोफेसर सुखदेव थोरात ने कहा है कि जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य केवल आरक्षण का आवंटन करना नहीं होना चाहिए, बल्कि इससे विभिन्न समूहों की आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक समस्याओं की पहचान कर उनके लिए विशिष्ट नीतियां बनाने में मदद मिलनी चाहिए। उन्होंने केंद्र सरकार से इस प्रक्रिया को जल्दबाजी में पूरा करने के बजाय विशेषज्ञ समितियों की मदद से सावधानीपूर्वक अंजाम देने का आग्रह किया।
प्रोफेसर थोरात, जो वर्तमान में तेलंगाना की जाति आधारित सर्वेक्षण समीक्षा कर रहे एक विशेषज्ञ पैनल का हिस्सा हैं, ने 'द हिंदू' को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि भारत के पास बड़े पैमाने पर डेटा संग्रह और जनगणना का व्यापक अनुभव है, इसलिए यह कार्य संभव है। उन्होंने कहा, "पिछले प्रयासों, जैसे 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना और बिहार, तेलंगाना व कर्नाटक के सर्वेक्षणों से सीख लेकर इस प्रक्रिया को बेहतर बनाया जा सकता है। गलतियां पहले ही पहचानी जा चुकी हैं, इसलिए समस्याओं का समाधान संभव है।"
उन्होंने बताया कि जाति व्यवस्था के स्तरीकृत स्वरूप के कारण आरक्षण की मांगें उठती हैं। "ब्राह्मणों को छोड़कर हर जाति भेदभाव का शिकार होती है, इसलिए आरक्षण की मांग स्वाभाविक है। लेकिन सभी जातियों की स्थिति एक जैसी नहीं है," उन्होंने समझाया।
प्रोफेसर थोरात ने जोर देकर कहा कि जाति जनगणना में भेदभाव के आंकड़ों को भी व्यवस्थित तरीके से एकत्र किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि संवैधानिक और कानूनी ढांचे, जैसे नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, में भेदभाव की 20-30 श्रेणियां पहले ही परिभाषित हैं, जिनके आधार पर डेटा जुटाया जा सकता है।
उनका मानना है कि जाति जनगणना से सामाजिक न्याय की दिशा में सटीक नीतियां बनाने में मदद मिलेगी, जिसमें कुछ समूहों को आरक्षण की जरूरत होगी, जबकि अन्य को आर्थिक या शैक्षणिक सहायता की आवश्यकता हो सकती है।
थोरात ने कहा है कि भले ही जाति आधारित जनगणना को अंजाम देने में कई चुनौतियां हैं, लेकिन भारत इसके लिए तकनीकी और प्रशासनिक रूप से पूरी तरह सक्षम है। उन्होंने देश के पास बड़े पैमाने पर डेटा संग्रह और जनगणना संचालन के व्यापक अनुभव का हवाला देते हुए इस प्रक्रिया को विशेषज्ञों की समीक्षा और तकनीकी तैयारी के साथ पूरा करने पर जोर दिया।
प्रोफेसर थोरात ने कहा कि भारत ने पहले भी बृहद स्तर पर जनगणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किए हैं, इसलिए जाति आधारित गणना को लेकर आशंकाओं की कोई वजह नहीं है। हालांकि, उन्होंने साफ किया कि इस कार्य को सावधानीपूर्वक और व्यवस्थित तरीके से अंजाम देना होगा ताकि डेटा की विश्वसनीयता बनी रहे।
दलित पहचान के कारण कई बार अपमानित हुए थोरात
सुखदेव थोरात अर्थशास्त्री , शिक्षाविद् और लेखक हैं। वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं । वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं । वह 1992 से वाशिंगटन डीसी स्थित अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान में अनुसंधान सहयोगी रहे हैं। जनवरी 2003 से फरवरी 2006 तक वह भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली के निदेशक रहे। उन्होंने 2006-2011 तक यूजीसी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
थोरात का पालन-पोषण बंबई (मुंबई) के उत्तर-पूर्व में महाराष्ट्र राज्य में महार दलित समूह के सदस्य के रूप में साधारण परिस्थितियों में हुआ। अपने आत्मकथात्मक निबंध, "पैसेज टू एडल्टहुड" में थोरात ने अपने गृह गांव में महारों के साथ होने वाले दैनिक अपमान का वर्णन किया है। वह 1950 के दशक में भारत के संविधान के निर्माता और खुद महार बीआर अंबेडकर के प्रेरणादायक नेतृत्व में अपने और दूसरों के लिए एक सामाजिक जागृति की शुरुआत के बारे में भी बताते हैं।
बचपन में सुखदेव थोरात को अपमान का अहसास हुआ जब एक ऊंची जाति के बच्चे ने अनजाने में सामुदायिक कुआं छूने पर उनके चेहरे पर थप्पड़ मारा। किशोरावस्था में उन्हें गुस्सा आया जब उन्हें और अन्य स्थानीय दलितों को सभाओं में अपमानित किया गया या सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया गया और धार्मिक मंदिरों में जाने से रोका गया।
थोराट ने 1970 के दशक में अपने आर्थिक शोध को लेकर बताया कि उनके द्वारा शुरू में प्रस्तावित पीएचडी थीसिस विषय, अस्पृश्यता और व्यावसायिक संबंधों पर थी जिसे जेएनयू के अर्थशास्त्र विभाग द्वारा 'मुख्यधारा से बहुत दूर' बताते हुए स्वीकार्य नहीं किया गया।
बाद में उन्हें जेएनयू के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में कृषि अर्थशास्त्र में एक पारंपरिक विषय पर अध्ययन के लिए डॉक्टरेट के लिए प्रवेश मिला। वे कहते हैं, "मैंने उस केंद्र में प्रवेश लिया, लेकिन मैं उन मुद्दों पर शोध नहीं कर पाया जिन पर मैं काम करना चाहता था... इसलिए, मैंने 10 साल खो दिए"