जाति जनगणना के शरण में क्यों आना पड़ा भाजपा को?

02:07 PM May 05, 2025 | Manish Sharma

अंततः सरकार को जाति जनगणना कराने का फैसला लेना पड़ा है. इस निर्णय के पीछे सरकार की असली मंशा क्या है, इसका तो केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है, अभी केवल एक सामान्य सी घोषणा कर दी गई है कि जाति जनगणना कराई जाएगी, पर पूरी योजना क्या है,यह अभी स्पष्ट होना बाकी है. या तो खुद सरकार या जनगणना आयुक्त द्वारा अधिसूचना जारी होने के बाद ही सब कुछ ठीक-ठीक पता चलेगा, पर अभी इतना हुआ है कि सरकार को अपना पुराना स्टैंड बदलना पड़ा है, और कम से कम एक मोटी बात मोदी सरकार को माननी पड़ी है, कि जाति जनगणना होनी चाहिए.

अन्यथा भाजपा तो अब तक जाति जनगणना को, जातिवाद बढ़ाने की योजना बता रही थी, समूचे विपक्ष को देश को अराजकता की ओर ले जाने वाला बताया जा रहा था, मुल्क को पीछे ले जाने वाली सियासत करने का इल्ज़ाम भी बार-बार विपक्ष पर लगाया जा रहा था.

हालांकि जाति जनगणना को कैबिनेट द्वारा मंजूरी दिए जाने की टाइमिंग भी तमाम सवालों के घेरे में है.

पहलगाम पर चरमपंथियों द्वारा निर्मम हमले के बाद तमाम कोशिशों के बावजूद मोदी सरकार घिरती जा रही थी, मुल्क का बड़ा हिस्सा,इस हमले को मोदी सरकार की बड़ी विफलता की तरह देखने लगा था, इस मसले को भी हिंदू-मुस्लिम मसला बना देने की कोशिश को, इस बार जम्मू-कश्मीर की जनता ने सड़क पर आकर, नाकाम कर दिया, मोदी सरकार के कोर समर्थक भी अब निराशा की तरफ़ बढ़ रहे थे, जिन्हें बार-बार ये बताया गया था कि नोटबंदी द्वारा आतंकियों की कमर तोड़ दी गई है, यानि उनकी आर्थिकी नष्ट कर दी गई है, उनके बीच यह भी बहुप्रचारित किया जाता रहा कि अनुच्छेद 370 ही सारे फ़साद की जड़ है, चरमपंथ को ताकत व संरक्षण यही से मिलता है, इसका खात्मा ही चरमपंथ का खात्मा है, पर ये रेडिमेड समाधान भी बेअसर हो गया.

अब फिर से संघ-भाजपा का कोर जनाधार, युद्ध या उस जैसा ही कोई समाधान चाहता था, जो अभी ख़ास अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते, भाजपा के लिए आसान नही था.ऐसे में भाजपा, अपने द्वारा ही निर्मित ट्रैप में फंसती जा रही थी, इसके चलते भी उसे फिर से सामाजिक न्याय वाले पिच पर आना पड़ा है, और जाति जनगणना को आम जनगणना के साथ ही कराने की घोषणा करनी पड़ी है.

इस घोषणा के पीछे बिहार चुनाव भी एक बड़ी वज़ह है. 2015 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कह दी थी, फिर क्या बिहार में भूचाल मच गया था, इस सवाल को उस समय गठबंधन का नेतृत्व कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार चुनाव का केंद्रीय सवाल बना दिया, और भाजपा को बहुत नुकसान झेलना पड़ा.

अब जब की एक बार फिर बिहार चुनाव में भाजपा को उतरना है,जहां वह बुरी तरह फंसी हुई है. ऐसे समय में सामाजिक न्याय विरोधी छवि लेकर भाजपा वहां बिल्कुल ही नही जाना चाहती है.

पर सामाजिक न्याय की तरफ तथाकथित शिफ्टिंग की सबसे बड़ी वज़ह है 2024 का लोकसभा चुनाव है, जब 400 पार का नारा दिया गया,जो सबसे पहले मोदी ज़ी ने ही दिया, जिसे भाजपा के कई सांसद प्रत्याशियों द्वारा संविधान बदलने से जोड़ दिया गया, फिर जनता के बड़े हिस्से में बेहद मजबूती से यह बात चली गई कि भाजपा आरक्षण खत्म करना चाहती है. संविधान को बदल देना चाहती है. ये बात इतनी गहराई तक चली गई कि राम मंदिर का भव्य उद्घाटन भी फेल कर गया, भाजपा अयोध्या सीट भी हार गई, उत्तर प्रदेश जो हिंदुत्व का गढ़ माना जा रहा था वह भी ढह गया.

पहले तो लगा कि भाजपा के लिए यह झटका, तात्कालिक क़िस्म का है, पर बाद में भाजपा द्वारा लगातार जाति जनगणना का विरोध करना और संसद में अमित शाह द्वारा बाबासाहेब को लेकर दिए गए हिकारत भरें वक्तव्य और समूचे विपक्ष द्वारा अनवरत सामाजिक न्याय को केंद्रिय एजेंडा बनाए रखने के चलते, आज़ भाजपा की सामाजिक न्याय विरोधी छवि ने स्थायी स्थाई रूप ग्रहण कर लिया है, और इसी छवि को बदल पाना भाजपा के लिए चुनौती बनता जा रहा है. जाति जनगणना की घोषणा के पीछे यह छटपटाहट ही सबसे बड़ी वज़ह है.

संकट क्या है और सावधानी क्या बरतनी है?

एक बात तो बिल्कुल साफ है कि संघ-भाजपा की मंशा साफ नही है, पहले संघ ने और अब मोदी सरकार ने तमाम किंतु-परंतु के बाद जाति जनगणना के लिए हांमी भर दी है. यहां यह स्पष्ट रहना चाहिए की सामाजिक न्याय का पिच, संघ-भाजपा के लिए स्वाभाविक पिच नही है, जहां उसे अनमने ढंग से बैटिंग करनी पड़ रही है. सो आने वाले समय में भाजपा की ये हरदम कोशिश रहेगी कि इस पिच को, और इस मैदान को कैसे बदल दिया जाए, या डायल्यूट कर दिया जाए. ऐसे में तमाम सामाजिक न्याय पक्षधर ताकतों को कई तरह की सावधानियां बार-बार बरतनी होगी. यानि कि हर मोड़ पर कोई बड़ी लकीर खींचनी होगी, और धीरे-धीरे बहुजन वैचारिकी से जुड़े हर मोर्चे को खोल देना होगा. पर सबसे पहले कुछ मोटी बातों पर विशेष ध्यान देना होगा.

पहली बात तो ये कि क्या जाति जनगणना आम जनगणना के साथ ही की जाएगी या कोई चोर रास्ता फिर निकाल लिया जाएगा,जैसे कि 2011 में जाति जनगणना को सामाजिक-आर्थिक सर्वे में बदल दिया गया था.

इस बात पर भी नज़र रखनी जरूरी है कि कही जाति जनगणना को कुछ जातियों को गिनने तक ही कही सिमित तो नही कर दिया जाएगा.

यानि कि एससीएसटी जातियों को जैसे गिना ही जाता है, उसी तरह कहीं इसमें थोड़ा परिवर्तन करके एससीएसटी के साथ पिछड़ों की गिनती तक ही सिमित तो नही कर दिया जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो जाति जनगणना का महत्व ही लगभग खत्म हो जाएगा.

सो इस पर जोर बनाए रखना जरूरी होगा कि हर हाल में सभी जातियों की जनगणना की गारंटी की जाए, विशेषाधिकार प्राप्त जातियों सहित सभी जातियों की गणना के बाद ही भारतीय समाज की सही तस्वीर सामने आ पाएगी.

जनगणना के जरिए, इस बात की भी गारंटी की जानी चाहिए कि सभी तरह के संसाधनों पर किसका कब्जा है, इसकी ठीक-ठीक तश्वीर आ जाए, यानि प्राइवेट सेक्टर, कारपोरेट सेक्टर, सरकारी सेक्टर के साथ-साथ जमीन पर किसकी कितनी हिस्सेदारी-भागीदारी बनी हुई है, साथ ही संगठित व असंगठित क्षेत्र में कौन काबिज है, सब कुछ स्पष्टता से सामने आ जाना चाहिए. तभी कोई आगे के लिए मुकम्मल योजना बनाई जा सकती है.

हालांकि जाति जनगणना के बाद ही ठीक-ठीक समझ बन पाएगी कि वास्तव में कहां-कहां क्या-क्या करने की जरूरत है,

पर यह देखना होगा कि लंबे समय से सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के लोकप्रिय नारे "जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी" से सरकार, सैद्धांतिक रूप से कितनी सहमत होती हुई दिखती है, या आरक्षण की 50 फीसदी की दीवार को तोड़ देने के प्रति वह कितनी तैयार है. और इसके साथ यह जानना भी बेहद ज़रूरी है कि प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की सांविधानिक मांग के प्रति आगामी दिनों में सरकार का क्या रवैया होता है.

कुल मिलाकर, तमाम आंदोलनों को सवाल पर सवाल उठाते रहना होगा, किसी भी क़िस्म की खुशफहमी से परे रहना होगा.

पर सबसे ज़रूरी सवाल ये है कि ढेर सारे किंतु-परंतु के साथ, सामाजिक न्याय के मैदान में अब भाजपा भी आ गई है, तो इसका सीधा मतलब ये है कि अब विपक्ष इस मैदान में, किंतु-परंतु के साथ रहते हुए इस नए जंग का मुकाबला नही कर सकती है, कांग्रेस जो अभी इस मैदान में उतरी है, जो अभी भी द्वंद में है, उसे अब साफ़ लाइन लेनी होगी, लेफ्ट जो शुरू से इस मसले को बुनियादी प्रश्न भी नही मानती रही है, उसे भी किंतु-परंतु से बाहर आना होगा, और सामाजिक न्याय की जो ताकतें A To Z की राजनीति की तरफ बढ़ गईं थी, उन्हें भी अपने आप को अब बदलना होगा, और बीच का रास्ता छोड़ना होगा. तभी शायद नए दौर का ठीक-ठीक मुकाबला करना संभल होगा.