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लेबर डे पर हिंदी सिनेमा के जोशीले डायलॉग्स, जिसमें झलकता है मेहनतकशों का जलवा!

मुंबई। जब हम ये शब्द सुनते हैं 'हीरो'... तो हमारे दिमाग में तमाम बड़े एक्टर्स की तस्वीरें आने लगती हैं। बॉलीवुड में हीरो को आखिर में जीतता हुआ दिखाया जाता है, लेकिन असल जिंदगी में हीरो वो होता है जो हर रोज हार कर भी अगली सुबह फिर काम पर लौटता है। जिनके हाथों में गिटार नहीं होता, उनमें काम करने वाला औजार होता है। जो अपनी कहानी को किसी बड़ी इमारत के बुनियाद में छोड़ जाते हैं। असल जिंदगी में इनके अनदेखे किरदार को दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ बच्चन तक, ज्यादातर अभिनेताओं ने पर्दे पर उतारा है। साथ ही ऐसे डायलॉग्स भी बोले, जो उनके संघर्ष और आत्म-सम्मान की कहानी को बखूबी बयां करते हैं और जोश भरने का भी काम करते हैं।

'ये मजदूर का हाथ है, कातिया, लोहा पिघलाकर उसका आकार बदल देता है'... फिल्म 'घातक' में जब सनी देओल ने ये डायलॉग बोला, तो मानो मजदूरों में एक अलग ही जोश भर गया हो। ये डायलॉग मजदूरों की ताकत को बयां करता है।

'हम गरीब जरूर हैं, पर बेइज्जत नहीं'... ये डायलॉग 'दीवार' का है। 80 का वो दौर जब मजदूर यूनियन की तूती बोलती थी। इस डायलॉग को अमिताभ बच्चन ने बेहद शानदार तरीके से बोला। यह मजदूरों की खुद्दारी और गरीबी के बीच बनी पहचान को बताता है।

'मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए', यह डायलॉग 1982 में आई फिल्म 'मजदूर' का है, जिसे भारतीय सिनेमा के दिग्गज दिलीप कुमार ने अदा किया था। इस सीन में बिगड़े फैक्ट्री मालिक सुरेश ओबेरॉय से उसूल पसंद और खुद्दार दीनानाथ उर्फ दीनू काका ज्यादती के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। अत्याचार के आगे झुकते नहीं बल्कि सीना ठोक कर खड़े हो जाते हैं।

'ये काले कोयले से निकली मेहनत की चमक है.. इसमें खून भी है, पसीना भी'... ये डायलॉग फिल्म 'काला पत्थर' का है। इस डायलॉग के जरिए बताया गया है कि मजदूरों के काम से उड़ती धूल उनके खून-पसीने की कहानी होती है।

(With inputs from IANS)

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