रांची (झारखंड): राज्य में आदिवासी महिलाएं अपने मतदान केंद्रों तक पहुंचने और वोट डालने के लिए लंबी दूरी तय करती हैं। यहां तक कि जो लोग चलने में असमर्थ हैं या लाठी के सहारे चल पाते हैं, वे भी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन बदले में उन्हें क्या मिलता है? कुछ नहीं। उनके गांवों में आज भी सड़क, बिजली और खाने-पीने की चीज़ों का अभाव है।
भारत को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालयों के निर्माण के लिए केंद्र सरकार द्वारा उन्हें वित्तीय सहायता दी गई थी, लेकिन पानी के अभाव में अधिकांश घरों में शौचालय स्टोर रूम में बदल दिए गए हैं या किसी दूसरे काम के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
राज्य की राजधानी रांची से लगभग 35 किलोमीटर दूर मुरुपिरी पंचायत (ग्राम परिषद) के चेरुवतारी गांव की महिलाओं को पानी लाने के लिए लगभग दो किलोमीटर चलना पड़ता है। वे दिन में कम से कम 6-7 बार ये चक्कर लगाती हैं।
पियारकी देवी को अपनी उम्र याद नहीं है। ऐसा लगता है मानो उनकी हड्डियों की ताकत खत्म हो गई हो। लेकिन वह पानी के लिए भी हर दिन इतनी दूरी तय करती है। वह कहती हैं कि यहां की परंपरा है कि महिलाएं पानी लेकर आएंगी, चाहे उन्हें कितनी भी दूर जाना पड़े।
एक बार पानी ले जाते वक़्त उनका पैर फिसल गया और वह जमीन पर गिर गईं। इससे उनके सामने के कुछ दांत टूट गये।
शौचालय के सवाल पर सुधन देवी काफी नाराज़ हो गईं। "पानी के बिना शौचालय का क्या इस्तेमाल?" वह ग़ुस्से में पूछती हैं और कहती हैं कि वे आज भी जंगल में खुले में शौच करती हैं।
गांव की महिलाओं का आरोप है कि चुनाव के दौरान नेता उनके गांव आते हैं और बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है।
वे शिकायत करती हैं, "हम अभी भी पानी, सड़क, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों से वंचित हैं।" आगे पूछती हैं, "हमें वोट क्यों देना चाहिए?"
उन्होंने आगामी चुनाव का सामूहिक बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। इस समाज में एक ही नारा गूंज रहा है "पानी नहीं, तो वोट नहीं"।
रांची लोकसभा क्षेत्र का यह एकमात्र गांव नहीं है जहां बुनियादी सुविधाओं की कमी है।
रातू ब्लॉक के चितरकोटा गांव में दिन में बमुश्किल छह घंटे बिजली आती है। यहां की सड़कें जर्जर हालत में हैं। मकान तो हैं लेकिन पक्के नहीं। यहां के सरकारी स्कूलों में या तो शिक्षक नहीं हैं या फिर शिक्षकों की कमी है। पीने के पानी से लेकर चिकित्सा सुविधाओं तक सब कुछ या तो बहुत ख़राब स्थिति में है या है ही नहीं।
ललिता खलको का कहना है कि अगर कोई गंभीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसका बचना मुश्किल हो जाता है। जब तक वह शहर के अस्पतालों में पहुंचता है, उसकी हालत इतनी ख़राब हो जाती है कि ठीक होना बेहद मुश्किल हो जाता है।
वह कहती हैं, “हमारी सड़कें गड्ढों में हैं। कई जगहों पर नदी पार करनी पड़ती है, जिस पर आज तक कोई पुल नहीं है।”
गांव के लोगों का कहना है कि उन्होंने पिछले पांच वर्षों में अपने सांसद को कभी नहीं देखा। उनका कहना है कि उम्मीदवारों के एजेंट मतदान से एक रात पहले पैसे बांटते हैं और वोट पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं।
तेतरी ओरांव कहती हैं, “इसके बाद, अगले पांच वर्षों तक कोई हमसे मिलने नहीं आता। हम अभी भी नहीं जानते कि हमारा सांसद कौन है।''
डुमनी ओरांव भले ही बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रही हैं, फिर भी उनकी धार्मिक पहचान यानी सरना धर्म उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है।
गुस्से में ये कहती हैं, "जब आप (सरकार) दावा करते हैं कि आप हमें हमारी पहचान वापस दिलाने में मदद करेंगे, तो बात पर अमल करें और सरना कोड लाएं।"
सरना धर्म में प्रकृति की पूजा की जाती है और इसके अनुयायियों का पहाड़ियों, नदियों और जंगलों से गहरा रिश्ता है। ये सभी पवित्र स्थानों के रूप में पूजनीय हैं। सरना उपासक विभिन्न प्रकार के त्योहारों और संस्कारों के ज़रिए प्रकृति के तत्वों से जुड़े देवताओं का सम्मान करते हैं।
आदिवासी देश के मूल निवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक पहचान है जिससे कथित तौर पर उन्हें वंचित किया जा रहा है।
प्रकृति का सम्मान करने वाले आदिवासी समाज के कई लोगों की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं का उल्लेख सरना कोड में किया गया है। समान नागरिक संहिता (यूसीसी) बनाने के मुद्दे पर इन आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों और विशिष्ट धार्मिक पहचान की रक्षा के लिए संहिता की आधिकारिक मान्यता के लिए एक आंदोलन चल रहा है।
जब जनगणना के डेटा में एक विशिष्ट धार्मिक श्रेणी के रूप में कोड को शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव लागू किया गया तो इसकी काफी चर्चा हो गई। इसका काफी असर है। इससे इन आदिवासियों की अनूठी संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाजों को संरक्षित करने के उद्देश्य से विशेष नीतिगत विचार किए जा सकते हैं।
उनका दावा है कि आदिवासी देश के मूल निवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक पहचान है जिससे कथित तौर पर उन्हें वंचित किया जा रहा है।
वह कहती हैं, “हम न तो हिंदू हैं, न मुस्लिम, न सिख और न ईसाई। हम आदिवासी हैं। हमारे रीति-रिवाज और संस्कृति मुख्यधारा के समाज से बिल्कुल अलग हैं। लेकिन हमारी पहचान ख़तरे में है। सरकार द्वारा हमें इससे वंचित किया जा रहा है। अगर हम इसके लिए वोट भी देंगे तो हमें क्या मिलेगा? हमें ऐसी सरकार से क्या उम्मीद करनी चाहिए?”
कुंद्रेशी मुंडा एक एक्टिविस्ट हैं और अखिल भारतीय आदिवासी महासभा से जुड़े हैं। आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाना उनके काम का अहम हिस्सा है।
वह कहती हैं, “यहां के लोगों के लिए, मतदान का मतलब राशन कार्ड और पुरानी पेंशन जैसी उनकी समस्याओं का समाधान है। वे नहीं जानते कि उनका एक वोट अगले पांच वर्षों में उनके जीवन में कितना बदलाव ला सकता है।''
वह कहती हैं कि यहां के लोगों के खेतों में पानी कैसे आएगा, इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। क़ानून होने के बावजूद आदिवासियों की ज़मीन क्यों "लूटी" जा रही है, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर कैसे सुधरेगा, पढ़े-लिखे आदिवासी युवाओं को सरकारी नौकरियां कैसे मिलेंगी, इस पर कोई बात नहीं हो रही है।
इस सवाल के जवाब में कि क्या गांव की महिलाएं वोट देने जाती हैं, वह कहती हैं, ''हां, बिल्कुल। यहां तक कि जो लोग चल नहीं सकते या लाठी के सहारे चलते हैं वे भी अपने इस मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए मतदान केंद्रों पर जाते हैं।”
वह पूछती हैं, "लेकिन बदले में उन्हें क्या मिलता है?"
राजनीतिक दल एक बार फिर उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं और बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं। लेकिन इन आदिवासी महिलाओं को भी खोखले वादों की हक़ीक़त समझ आ गई है।