भारत के गाँवों को अक्सर सामाजिक संगठन का आदर्श रूप मानकर उनकी प्रशंसा की जाती है। हिन्दू समाज के एक वर्ग द्वारा इन्हें सामाजिक व्यवस्था का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है, जिस पर भारत को गर्व होना चाहिए। लेकिन डॉ. बी.आर. आंबेडकर, जिन्हें बाबासाहेब के नाम से जाना जाता है, ने अपने निबंध THE INDIAN GHETTO—THE CENTRE OF UNTOUCHABILITY— Outside the Fold में भारतीय गाँवों की इस तथाकथित आदर्श व्यवस्था की कड़वी सच्चाई को उजागर किया है।
उन्होंने बताया कि हिन्दू गाँव, जो बाहरी दुनिया के लिए सामंजस्य का प्रतीक हो सकता है, वहाँ अछूतों (दलितों) के लिए जीवन नारकीय था। गाँवों में अछूतों के लिए बनाए गए कठोर नियम और उन पर थोपी गई अमानवीय प्रथाएँ सामाजिक भेदभाव और शोषण की गहरी जड़ों को दर्शाती हैं। बाबासाहेब ने लिखा, "शुक्र है कि संविधान सभा ने इसे (गाँव को संवैधानिक ढांचे का आधार) स्वीकार नहीं किया।"
बाबासाहेब के अनुसार, हिन्दू गाँव अछूतों के लिए एक "जातीय बस्ती" (Indian Ghetto) था, जहाँ उन्हें अमानवीय व्यवहार और शोषण का सामना करना पड़ता था। गाँवों की यह व्यवस्था न केवल सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देती थी, बल्कि अछूतों को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से दबाए रखती थी। संविधान सभा में भी कई हिन्दू सदस्यों ने गाँवों को संवैधानिक ढांचे का आधार बनाने की जोरदार वकालत की थी। लेकिन बाबासाहेब ने इसे अछूतों के लिए एक "बड़ी आपदा" माना। संविधान सभा द्वारा इस व्यवस्था को अस्वीकार करना अछूतों के लिए एक बड़ी राहत थी। बाबासाहेब ने इस व्यवस्था को उजागर कर हिन्दू समाज की कट्टरता और अछूतों के प्रति उसके व्यवहार की सच्चाई को सामने लाया।
हिन्दू गाँव में अछूतों के लिए नियम: एक क्रूर सामाजिक कोड
बाबासाहेब के अनुसार, प्रत्येक हिन्दू गाँव में एक सामाजिक कोड लागू था, जिसका पालन अछूतों को अनिवार्य रूप से करना पड़ता था। इस कोड में कई ऐसे नियम थे, जिन्हें तोड़ना अछूतों के लिए अपराध माना जाता था। ये नियम न केवल अमानवीय थे, बल्कि अछूतों को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से दबाने के लिए बनाए गए थे। इनमें से कुछ प्रमुख नियम इस प्रकार थे:
अलग बस्ती में रहना: अछूतों को हिन्दुओं की बस्ती से अलग, गाँव के बाहर रहना पड़ता था। इस नियम को तोड़ना या इससे बचना अपराध माना जाता था।
दक्षिण दिशा में बस्ती: अछूतों की बस्ती को दक्षिण दिशा में बनाना पड़ता था, क्योंकि इसे चार दिशाओं में सबसे अशुभ माना जाता था।
दूरी और छाया का प्रदूषण: अछूतों को हिन्दुओं से निश्चित दूरी बनाए रखनी पड़ती थी, ताकि उनकी छाया या साँस से हिन्दुओं का 'प्रदूषण' न हो। इस नियम का उल्लंघन अपराध था।
धन-संपत्ति पर प्रतिबंध: अछूतों के लिए जमीन या पशुधन जैसी संपत्ति अर्जित करना अपराध था।
घर की संरचना पर रोक: अछूतों को खपरैल की छत वाला घर बनाने की अनुमति नहीं थी।
वस्त्र और आभूषण पर प्रतिबंध: साफ कपड़े पहनना, जूते पहनना, घड़ी बाँधना या सोने-चाँदी के आभूषण पहनना अछूतों के लिए अपराध था।
बच्चों के नाम: अछूतों को अपने बच्चों के लिए उच्च-स्तरीय या सम्मानजनक नाम चुनने की अनुमति नहीं थी। उनके नाम तिरस्कार दर्शाने वाले होने चाहिए थे।
सामाजिक व्यवहार: अछूत को हिन्दू की उपस्थिति में कुर्सी पर बैठना, घोड़े या पालकी पर सवारी करना, या गाँव में जुलूस निकालना अपराध था।
संस्कृति और भाषा: अछूतों को शुद्ध भाषा बोलने या हिन्दुओं को नमस्ते न करने पर सजा मिलती थी।
पवित्र दिनों पर मौन: पवित्र दिनों, जैसे उपवास के समय, अछूतों का बोलना निषिद्ध था, क्योंकि उनकी साँस को हिन्दुओं के भोजन और हवा को दूषित करने वाला माना जाता था।
अछूत की पहचान: अछूतों को अपनी पहचान को दर्शाने वाले लक्षण, जैसे तिरस्कारपूर्ण नाम, गंदे कपड़े, और बिना टाइल्स का घर, बनाए रखना पड़ता था। इनका उल्लंघन अपराध था।
अछूतों पर थोपी गई जिम्मेदारियाँ
इन नियमों के अलावा, अछूतों को हिन्दुओं के लिए कई जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती थीं, बिना किसी पारिश्रमिक के। ये जिम्मेदारियाँ इस प्रकार थीं:
संदेशवाहक की भूमिका: अछूतों को हिन्दुओं के घर में होने वाली घटनाओं, जैसे मृत्यु या विवाह, का संदेश उनके दूरस्थ रिश्तेदारों तक पहुँचाना पड़ता था, चाहे वह गाँव कितना भी दूर हो।
विवाह में सेवा: हिन्दू विवाहों में अछूतों को ईंधन के लिए लकड़ियाँ जुटाना, दौड़-भाग करना और अन्य छोटे-मोटे काम करने पड़ते थे।
लड़की की सुरक्षा: हिन्दू लड़की को उसके मायके से ससुराल तक ले जाने की जिम्मेदारी अछूतों की होती थी, चाहे दूरी कितनी भी हो।
त्योहारों में सेवा: होली या दशहरा जैसे त्योहारों में अछूतों को प्रारंभिक और निम्न-स्तरीय काम करने पड़ते थे।
महिलाओं का अपमान: कुछ त्योहारों पर अछूत महिलाओं को गाँव के लोगों के सामने अभद्र मजाक का शिकार बनना पड़ता था।
सर चार्ल्स मेटकाफ ने भारतीय गाँवों के लिए क्या कहा था?
सर चार्ल्स मेटकाफ, ईस्ट इंडिया कंपनी के एक सिविल सेवक थे। मेटकाफ, जो एक राजस्व अधिकारी थे, ने अपने एक राजस्व पत्र में भारतीय गाँव का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया: “गाँव समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जिनके पास लगभग वह सब कुछ है जो उन्हें चाहिए और वे लगभग किसी भी बाहरी संबंधों से स्वतंत्र हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जब कुछ भी टिकता नहीं, तब भी ये गाँव समुदाय बने रहते हैं। राजवंश दर राजवंश ढह जाते हैं, क्रांति के बाद क्रांति होती है; हिन्दू, पठान, मुगल, मराठा, सिख, अंग्रेज, सभी बारी-बारी से शासक बनते हैं, लेकिन गाँव समुदाय वही रहते हैं। संकट के समय वे हथियारबंद होकर अपनी रक्षा करते हैं। यदि कोई शत्रु सेना देश से गुजरती है, तो गाँव समुदाय अपने पशुओं को अपनी दीवारों के भीतर इकट्ठा करते हैं और शत्रु को बिना उकसाए गुजरने देते हैं। यदि लूटपाट और विनाश उनके खिलाफ निर्देशित होता है, और प्रयुक्त बल अप्रतिरोध्य होता है, तो वे दूर के मित्रवत गाँवों में भाग जाते हैं; लेकिन जब तूफान गुजर जाता है, तो वे लौट आते हैं और अपने व्यवसायों को फिर से शुरू करते हैं। यदि कोई क्षेत्र लगातार कई वर्षों तक लूटपाट और नरसंहार का दृश्य बना रहता है, जिससे गाँवों में रहना असंभव हो जाता है, तब भी बिखरे हुए गाँववासी जब भी शांतिपूर्ण कब्जे की शक्ति पुनर्जनन होती है, लौट आते हैं। एक पीढ़ी बीत सकती है, लेकिन अगली पीढ़ी लौटेगी। बेटे अपने पिता की जगह लेंगे; गाँव के लिए वही स्थान, घरों के लिए वही स्थिति, वही भूमि उन लोगों के वंशजों द्वारा फिर से कब्जा कर ली जाएगी, जिन्हें गाँव के वीरान होने पर निकाला गया था; और यह कोई छोटी बात नहीं है जो उन्हें बाहर निकाल सकती है, क्योंकि वे अक्सर अशांति और उथल-पुथल के समय में अपनी स्थिति बनाए रखते हैं, और लूटपाट और उत्पीड़न का सफलतापूर्वक प्रतिरोध करने के लिए पर्याप्त शक्ति अर्जित करते हैं। गाँव समुदायों का यह एकीकरण, प्रत्येक एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य बनाता है, मेरे विचार में, भारत के लोगों के संरक्षण में, उनके द्वारा झेली गई सभी क्रांतियों और परिवर्तनों के बावजूद, किसी भी अन्य कारण से अधिक योगदान देता है, और यह उनकी खुशी और स्वतंत्रता व स्वाधीनता के एक बड़े हिस्से के आनंद के लिए अत्यधिक अनुकूल है।”
इस शासक वर्ग के एक उच्च पदस्थ सदस्य द्वारा दिए गए भारतीय गाँव के इस वर्णन को पढ़कर, हिन्दुओं को गर्व महसूस हुआ और उन्होंने इसे एक स्वागत योग्य प्रशंसा के रूप में अपनाया। लेकिन बाबा साहब आंबेडकर ने अपनी लेखनी में भारतीय गाँवों का यथार्थवादी चित्र प्रस्तुत किया।
अस्पृश्यता यूँ हुई प्रतिबंधित
अस्पृश्यता को भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होने के साथ आधिकारिक रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत, जिसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने प्रबल रूप से समर्थन किया था, इस प्रथा को स्पष्ट रूप से समाप्त कर दिया गया और इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया। यह ऐतिहासिक प्रावधान उन लाखों लोगों के खिलाफ होने वाले जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने का लक्ष्य रखता था, जिन्हें "अछूत" के रूप में चिह्नित किया जाता था।
"अछूत" शब्द ऐतिहासिक संदर्भ में तब सटीक है जब हम आंबेडकर द्वारा वर्णित सामाजिक प्रथाओं की बात करते हैं, लेकिन आज इसका उपयोग संवेदनशील है क्योंकि यह अपमानजनक माना जाता है। आधुनिक संदर्भ में "दलित" या "अनुसूचित जाति" जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी जाती है, हालांकि ऐतिहासिक चर्चाओं में "अछूत" शब्द उस समय की कठोर वास्तविकता को दर्शाने के लिए प्रासंगिक रहता है।