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उमर खालिद को बेल नहीं देने पर दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व जज ने कहा, " न्याय की मूर्ति, चाहे मिट्टी या पत्थर की हो, दिल में ..."

नई दिल्ली- दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व जज रेखा शर्मा ने उमर खालिद के मामले में बेल न देने पर न्यायपालिका के प्रति असंतोष जाहिर किया है। उन्होंने कहा कि जहां एक तरफ पुणे के एक अमीर कारोबारी के बेटे को नशे में पोर्श कार चलाकर दो लोगों की मौत का आरोपी बनने के बाद एक्सीडेंट पर निबंध लिखने और ट्रैफिक पुलिस के साथ काम करने जैसी हास्यास्पद शर्तों पर बेल मिल जाती है, वहीं दूसरी तरफ आसाराम बापू और गुरमीत राम रहीम सिंह जैसे लोग, जो हत्या और बलात्कार के दोषी साबित हो चुके हैं, जेल से अंदर-बाहर होते रहते हैं। लेकिन उमर खालिद जैसे लोगों को पांच साल से जेल में रखा जा रहा है, जबकि उनका ट्रायल अभी शुरू भी नहीं हुआ है। शर्मा ने इस असमानता पर सवाल उठाते हुए कहा कि न्यायपालिका का दिल अब आम लोगों के लिए नहीं धड़कता।

द इंडियन एक्सप्रेस के कॉलम में प्रकाशित हुए एक लेख में रेखा शर्मा ने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 50 साल पहले कहा था कि बेल नियम है और जेल अपवाद, लेकिन अब यह नियम उल्लंघन में ज्यादा पालन हो रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 सितंबर को उमर खालिद और नौ अन्य लोगों की बेल याचिका खारिज कर दी, जबकि वे पांच साल से जेल में हैं। सॉलिसिटर जनरल के अनुसार, उन्हें ट्रायल खत्म होने तक जेल में रहना चाहिए, लेकिन ट्रायल शुरू ही नहीं हुआ। शर्मा ने पूछा कि क्या उमर खालिद की जेल में सड़ने की परवाह है? क्या उनके बेल आवेदन को विभिन्न अदालतों में घुमाने की? सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि स्पीडी ट्रायल आर्टिकल 21 के तहत मौलिक अधिकार है और देरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यहां तक कि कोर्ट कहता है कि जेल में एक दिन भी ज्यादा है, लेकिन उमर खालिद के मामले में हजारों पेजों का चार्जशीट होने के बावजूद बेल नहीं मिल रही।

पूर्व जज ने अपने कॉलम में 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस का उदाहरण दिया, जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने 12 आरोपियों को बरी कर दिया क्योंकि अभियोजन अपराध साबित नहीं कर सका। लेकिन उन सालों की हानि और टूटे सपनों का क्या? शर्मा ने कहा कि उमर खालिद को याद रखना चाहिए कि वे पुणे के अमीर लड़के नहीं हैं या आसाराम और राम रहीम जैसे नहीं, जो दोषी होने के बाद भी बेल लेते हैं। अल्फ्रेड लॉर्ड टेनिसन की पंक्तियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 'वे सवाल न करें क्यों, बस करें और मरें' ( they are not to reason why, they are but to do and die)। लेकिन शर्मा का दुख उमर खालिद पर नहीं है। अगर वे आतंकवाद के दोषी हैं, तो कानून के मुताबिक सजा मिलनी चाहिए, लेकिन दोष साबित होने तक प्रक्रिया खुद सजा नहीं बननी चाहिए। यह इंसानियत को कुचलने का हथियार नहीं होना चाहिए।

शर्मा ने कहा कि समस्या यह है कि लोग अदालतों से निराश हो रहे हैं। न केवल नागरिक और राजनेता, बल्कि न्यायपालिका के अंदर से भी असंतोष की आवाजें उठ रही हैं। 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कोर्ट के कामकाज पर सवाल उठाए थे, जो अब भी लोगों की याद में है। न्यायपालिका को स्टील जैसे मजबूत लोगों की जरूरत है, जो जनता के लिए धड़कें, न कि शासक के लिए। कॉलेजियम सिस्टम इसी उद्देश्य से लाया गया था, लेकिन इसे चलाने वाले लोग असफल रहे। रिटायरमेंट के बाद सरकारी पदों का लालच न्यायपालिका को नियंत्रित करने का हथियार बन गया है। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी इसलिए बंधी थी ताकि अमीर-गरीब, शक्तिशाली-कमजोर में फर्क न हो, लेकिन अब पट्टी हट गई है और तराजू असंतुलित है।

पूर्व जज ने कहा कि न्यायपालिका को ऐसे लोगों की जरूरत है जो अपने पद और संविधान के प्रति वफादार रहें। जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस से आदर्श बहाल नहीं हुआ। अब न्याय के उपभोक्ता को बैनर उठाना चाहिए। न्याय की मूर्ति, चाहे मिट्टी या पत्थर की हो, उसके दिल में धड़कन होनी चाहिए। उसे हिलना और कार्य करना चाहिए।

(यह रिपोर्ट द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित कॉलम पर आधारित है)

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