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'चुनाव आयोग SIR वापिस लो- वोट देने के लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान करो': NAPM

नई दिल्ली- बिहार में निर्वाचित सरकार के कार्यकाल समाप्त होने में अब 100 दिन से भी कम समय बचा है। लोकतंत्र में, चाहे वह कितना भी सीमित क्यों न हो, यह वह समय होता है जब लोगों की ज़रूरतें सार्वजनिक चर्चा का केंद्र बनती हैं। मगर 2025 का बिहार कुछ अलग है। भारतीय चुनाव आयोग, जो एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, ने 25 जून से बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR / एस.आई.आर) करने का निर्णय लिया, जो विधान सभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले लाखों बिहारियों के वोट देने के अधिकार पर सवाल खड़ा करता है।

भारतीय निर्वाचन आयोग से एन.ए.पी.एम (National Alliance of People’s Movements (NAPM) ने मांग की है कि बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके। इसके बदले, अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो। हम सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करते हैं कि वह इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।

वोट देने के अधिकार का उल्लंघन करने के इस दुर्भावनापूर्ण प्रयास के तहत, भारतीय चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का जल्दबाज़ी में विशेष गहन पुनरीक्षण कराया, जिसमें चुनाव से ठीक पहले 65 लाख मतदाताओं का नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया। आयोग ने हठधर्मिता दिखाते हुए हटाए गए लोगों के नाम और हटाने के कारण प्रकाशित करने से इनकार कर दिया। पिछले महीने, सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग को हटाने के कारण के साथ, हटाए गए लोगों की सूची प्रकाशित करने और उपलब्ध सभी माध्यमों से इसे प्रचारित करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने आयोग को लोगों द्वारा उनके नाम हटाए जाने के विरुद्ध (आने वाली) अपील के हिस्से के रूप में आधार और मतदाता पहचान पत्र स्वीकार करने का भी निर्देश दिया है। यह एक स्वागत योग्य निर्देश है और इस मामले पर न्यायालय के बताए गए दृष्टिकोण के अनुरूप है, जो कि: 1) यदि एसआईआर में बड़े पैमाने पर लोगों को हटाया जाता है तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप करेगा, और 2) विशेष पुनरीक्षण का मार्गदर्शक सिद्धांत बहिष्कार नहीं, समावेशन होना चाहिए। एनएपीएम न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची की पीठ द्वारा पारित अंतरिम आदेश का स्वागत करता है।

अदालत के आदेश पर, चुनाव आयोग को हटाए गए लोगों की सूची सार्वजनिक करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ज़मीनी रिपोर्टों से जल्दबाज़ी में किए गए इस अभ्यास में घोर अनियमितताएँ सामने आई हैं। आयोग ने अपनी ओर से घोषणा की है कि उसे सूची में शामिल 98% मतदाताओं के दस्तावेज़ प्राप्त हो गए हैं। इस बीच, इस मामले की जाँच कर रहे पत्रकारों ने एसआईआर के मसौदे में घोर अनियमितताएँ दिखाई हैं। अब चुनाव अधिकारी 25 सितंबर तक इस काम को पूरा करने के लिए प्राप्त दस्तावेज़ों का सत्यापन करेंगे।

अदालत द्वारा चुनाव आयोग को हटाए गए लोगों की सूची सार्वजनिक करने का आदेश दिए जाने के बाद आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त ने स्पष्ट जवाब देने के बजाय एक सत्तारूढ़ पार्टी के प्रतिनिधि की तरह व्यवहार किया और विपक्ष पर हमला किया। इस अभूतपूर्व दृश्य ने स्पष्ट रूप से आयोग की प्रतिष्ठा को धूमिल किया है।

बहिष्कार का इरादा: एस.आई.आर और भारत में नागरिकता का राजनीतिकरण

1 अगस्त, 2025 तक पहले की 7.9 करोड़ मतदाताओं की सूची से 65 लाख लोगों के नाम हटा दिए गए हैं। पारदर्शिता और बुनियादी मानवीय शालीनता की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए चुनाव आयोग ने उन लोगों के नाम प्रकाशित करने से इनकार कर दिया है जिन्हें उसने मतदाता सूची से हटा दिया है। भारत के इतिहास में यह पहला मतदाता पुनरीक्षण है जिसमें कोई नया नाम नहीं जोड़ा गया है। यह सोचने पर मजबूर करता है कि हज़ारों चुनावी अधिकारी, जो राज्य के हर घर में जाने का दावा करते हैं, उन्हें एक भी नया मतदाता क्यों नहीं मिला?

भारत सरकार के अपने अनुमानों के अनुसार बिहार में वयस्क आबादी 8.18 करोड़ है। यह आँकड़ा प्रवासन आदि जैसे कारकों को ध्यान में रख कर है। इसका मतलब यह है कि चुनाव आयोग की सूची में मतदाताओं की अंतिम संख्या इस आँकड़े के क़रीब होनी चाहिए। हालाँकि, मसौदा एसआईआर सूची में केवल 7.24 करोड़ मतदाताओं के साथ हम 94 लाख लोगों के संभावित बहिष्कार को देख रहे हैं! स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला ऐसा पुनरीक्षण है जहाँ चुनाव आयोग ने लोगों से मतदाता के रूप में अपनी पात्रता साबित करने के लिए फ़ॉर्म और दस्तावेज़ जमा करने के लिए कहा है। एसआईआर के दूसरे चरण में चुनाव अधिकारी उनकी पात्रता पर निर्णय लेंगे। यहीं पर "बीएलओ द्वारा अनुशंसित नहीं" की गुप्त श्रेणी चलन में आएगी। चुनाव आयोग ने एसआईआर के दौरान इस विवेकाधीन श्रेणी में दर्ज की गई संख्या का खुलासा नहीं किया है। इसका मतलब है कि आने वाले हफ़्तों में और भी नाम हटाए जाएँगे।

सीमित जानकारी, अपील दायर करने और उसका अनुसरण करने के साधनों की कमी, और मतदाता सूची फाइनल होने से पहले (सितंबर के अंत तक) बहुत कम समय के कारण यह अभ्यास, पूरी संभावना में, लाखों लोगों से वोट देने का अधिकार छीन लेगा, विशेष रूप से उनका, जो जाति, लिंग, धर्म आदि के कारण पहले से हाशिये पे हैं।  

24 जून 2025 तक चुनाव आयोग मतदाताओं को पंजीकृत करने के लिए ज़िम्मेदार था। अगले दिन से, यह ज़िम्मेदारी मतदाताओं पर ही डाल दी गई। इसके अलावा, चुनाव आयोग ने गणना के लिए ऐसे मानदंड अपनाए हैं जो प्रभावी रूप से मतदाता पंजीकरण को नागरिकता परीक्षण में बदल देते हैं। इसने यह फरमान जारी किया है कि जो लोग (22 साल पहले) 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे, विशेष रूप से 18-40 वर्ष की आयु के लोग, उन्हें मतदाताओं के रूप में फिर से पंजीकरण करना होगा। 2003 की सीमा का कथित कारण यह है कि उस वर्ष एक विशेष गहन पुनरीक्षण किया गया था जिसमें सूची में शामिल लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में सत्यापित किया गया था।

फिर भी, जब जवाबदेही कार्यकर्ताओं ने आरटीआई का उपयोग करके आयोग से 2003 के आदेश की प्रति मांगी, तो उन्हें केवल 24 जून का आदेश दिया गया। 2003 के अभ्यास में शामिल पूर्व चुनाव आयोग के अधिकारियों ने मीडिया को सूचित किया है कि 2003 में मतदाताओं का घर-घर जाकर सत्यापन किया गया था, लेकिन "मतदाताओं से नागरिकता का प्रमाण देने के लिए नहीं कहा गया था"। गणना करने वालों को नागरिकता निर्धारित करने के लिए नहीं कहा गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग से 2003 के पुनरीक्षण में विचार किए गए दस्तावेज़ों का विवरण प्रदान करने के लिए कहा है। इसके अलावा, भले ही आयोग ने अदालत में दावा किया कि एसआईआर एक स्वतंत्र मूल्यांकन पर आधारित था, लेकिन जब आरटीआई अनुरोधों के माध्यम से यही माँगा गया तो उसने ऐसे किसी भी मूल्यांकन या अध्ययन की प्रतियाँ प्रदान नहीं कीं। यह आयोग की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाता है। आरटीआई अनुरोधों के प्रति इस तरह के टालमटोल वाले जवाब और बिना किसी पूर्व परामर्श या अध्ययन के काम करना यह दर्शाता है कि आयोग मनमाने और अपारदर्शी तरीके से काम कर रहा है।

2003 की सूची में नहीं आने वाले लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए चुनाव आयोग को एक घोषणा पत्र के साथ ग्यारह निर्धारित दस्तावेज़ों में से एक जमा करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी बताती है कि बिहार में संबंधित जनसंख्या समूह के केवल 50% लोगों के पास चुनाव आयोग के पात्रता परीक्षण के लिए आवश्यक ग्यारह दस्तावेज़ों में से एक है। इस प्रकार, इरादतन, इस प्रक्रिया में अनुचित रूप से बड़ी संख्या में लोगों को बाहर करने की क्षमता है - और पूरी संभावना में ऐसा होगा भी। ऐसा करके, चुनाव आयोग ने स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनाव के एक सूत्रधार के रूप में अपनी सीमा को पार कर लिया है, और इसके बजाय नागरिकता का मध्यस्थ बनने का प्रयास किया है।

बिहार में क़रीब 8 करोड़ मतदाता हैं। एसआईआर जैसा संवेदनशील अभ्यास सिर्फ़ 30 दिनों में किया गया। मुख्यधारा की मीडिया में भी इतने कम समय में इतने बड़े पैमाने पर इस अभ्यास को करने में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों और त्रुटियों के बारे में बहुत कुछ बताया गया है। यह नौकरशाही अभ्यास, जिसमें चुनाव आयोग ने दावा किया कि उसने केवल 72 घंटों में 80,000 बीएलओ को प्रशिक्षित किया, शुरू से ही गड़बड़ था। क्षेत्रीय स्वतंत्र रिपोर्टों ने ठीक वही दिखाया है जिसकी कोई भी व्यक्ति कल्पना कर सकता है: जानकारी की पुरानी कमी, चुनाव अधिकारियों द्वारा लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मतदाताओं की सहमति के बिना बड़े पैमाने पर फ़ॉर्म अपलोड किया जाना, सबसे ग़रीब लोग अपनी थोड़ी-बहुत बचत को निर्धारित दस्तावेज़ों को इकठ्ठा करने और फ़ॉर्म भरने में खर्च कर रहे हैं, और अपने वोट देने के अधिकार छीने जाने के बारे में चिंता में है। पारदर्शिता की कमी के बावजूद, उपलब्ध जानकारी से पता चलता है कि इस अभ्यास के माध्यम से महिलाओं को बड़ी संख्या में मतदाता सूची से बाहर किया गया है।

अवैधानिकता और अवैधता के सवालों, व्यावहारिक कठिनाइयों और अनुमानित कार्यान्वयन त्रुटियों से भरा हुआ एसआईआर प्रक्रिया किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक को अजीब लग सकता है। यह बिहार के लोगों और वास्तव में पूरे भारत के लिए एक सीधा सवाल खड़ा करता है: चुनाव आयोग ने राज्य विधानसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले, इतने कम समय में, इतने बड़े पैमाने और संवेदनशीलता का अभ्यास करने का निर्णय क्यों लिया?

भारतीय लोकतंत्र को भीतर से ख़त्म करने के प्रयास

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है, जिसने पहले ऐसे आदेश जारी किए थे, जिनका यह अभ्यास (SIR) स्पष्ट उल्लंघन में प्रतीत होता है। लाल बाबू हुसैन एवं अन्य बनाम निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी एवं अन्य (1995 AIR1189) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गैर-नागरिकता साबित करने का भार राज्य पर हैं। वर्तमान प्रकरण में न्यायालय ने, एस.आई.आर को रोका नहीं है, मगर कहा कि यदि बड़े पैमाने पर बहिष्कार होता है तो वह हस्तक्षेप करेगा। यह लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाला एक महत्वपूर्ण और आवश्यक अंतरिम आदेश हैं, मगर SIR को एक गहरी चिंताजनक संदर्भ के भीतर रखता है: भारतीय लोकतंत्र का भीतर से ख़त्म होना।

भारतीय चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को एक कारण से संवैधानिक स्वायत्तता दी गई है। स्वायत्त संस्थाएँ, जो स्वतंत्र रूप लेकिन संतुलन में काम करती हैं, किसी भी कार्यशील लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं। हम अब इन संस्थाओं का एक के बाद एक व्यवस्थित पतन देख रहे हैं। हाल के वर्षों में, चुनाव आयोग — जो कभी भारत को दुनिया का सबसे बड़ा चुनावी लोकतंत्र बनाने में केंद्रीय था — इस ख़तरनाक क्षरण का शिकार होता दिख रहा है। हाल ही में हुए राज्य चुनावों ने चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता के संबंध में बहुत गंभीर चिंता का कारण पैदा किया है। न केवल विपक्षी दलों के नेताओं, बल्कि स्वतंत्र विशेषज्ञों और आलोचकों ने भी चुनाव आयोग के कामकाज की निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त किया है।

2024 के अंत में हुए महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव इसका एक उदाहरण है। राज्य में लोकसभा चुनावों और राज्य विधानसभा चुनावों के बीच पाँच महीनों में मतदाताओं में अत्यधिक असामान्य वृद्धि देखी गई, जिससे मतदाताओं की कुल संख्या राज्य में जनसंख्या अनुमान से अधिक हो गई। नागपुर में एक जाँच से पता चला कि निर्वाचन क्षेत्र के 70% मतदान केंद्रों में इस वृद्धि ने चुनाव आयोग द्वारा सत्यापन की सीमा पार कर ली थी, जिससे विपक्षी दावों को विश्वसनीयता मिली कि यह सिर्फ़ हेरफेर नहीं था बल्कि एक राज्य में चुनावों की औद्योगिक-स्तरीय धांधली थी, जिसने केवल पाँच महीनों में राजनीतिक भाग्य में उलटफेर देखा।

हाल ही में, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनावों में घोर कदाचार को दर्शाने वाले विस्तृत आरोप लगाए हैं। चुनाव आयोग के अपने आंकड़ों का उपयोग करते हुए उन्होंने आयोग की देखरेख में एक ही निर्वाचन क्षेत्र में 1,00,000 से अधिक फ़र्ज़ी मतदाता पंजीकृत होने का दावा किया। उठाए गए चिंताओं को संबोधित करने और प्रदान किए गए सबूतों का खंडन करने के बजाय, चुनाव आयोग ने एक शत्रुतापूर्ण रुख अपनाया है और गांधी को उन दावों के साथ एक शपथ पत्र दायर करने की चुनौती दी है जो उन्होंने किए है। यदि विपक्ष के शीर्ष नेता के साथ इस तरह की शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाता है, तो ऐसी बेरहम सरकार और समझौतावादी सरकारी संस्थाओं के हाथों आम नागरिकों के अधिकारों की क्या अपेक्षा की जा सकती है ?

भारत में चल रहे फासीवादी हमले के संदर्भ में बिहार एस.आई.आर को समझना

कामकाजी लोगों के बीच एकजुटता पर हमला करना फासीवादी दलों की पहचान है। भाजपा का वर्चस्व समाज में सामाजिक कलह और विभाजन को बढ़ावा देने के साथ मेल खाता है। जबकि उसके शासन में देश में अभूतपूर्व असमानता और कुलीनतंत्र की शक्ति का समेकन देखा गया है, इसने हिंसक बहुसंख्यकवाद की एक दुर्भावनापूर्ण राजनीति के माध्यम से भारत के विविध, बहुलवादी समाज पर हमला किया है।

बिहार एक उदाहरण है। लाखों बेचैन बेरोज़गार युवाओं का एक प्रदेश, एक संकटग्रस्त कृषि अर्थव्यवस्था, कमज़ोर सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे और पूरे राज्य में एक सामान्य विषय के रूप में संकटपूर्ण प्रवासन के साथ, बिहार को एक नई आर्थिक दिशा देने के लिए एक सरकार की सख्त ज़रूरत है। हालाँकि, भाजपा शासन के दौरान, चुनाव में गृह मंत्री राज्य में अवैध प्रवासियों का हौवा उठाकर माहौल ख़राब करते हुए दिखते हैं। इसके कोई सबूत प्रदान किए बिना, चुनाव आयोग ने भी, "सूत्रों" के हवाले से यह दावा करते हुए कि वे मतदाता सूची से अवैध प्रवासियों को बाहर निकाल रहे हैं, अपने इस बेतुके अभ्यास के लिए इस तर्क को शामिल किया है। यह एक डॉग विस्ल के रूप में काम करता है, जो अपने समर्थकों को यह बताता है कि इस अभ्यास का लक्ष्य अल्पसंख्यक और सत्तारूढ़ दल के विरोधी हैं। इस प्रकार, भाजपा प्रभावी रूप से मतदाता दमन के अपने प्रयासों के लिए लोकतांत्रिक विपक्ष को कमज़ोर करती है।

वास्तव में, जो हमारे सामने हो रहा है, वह लाखों ग़रीब भारतीयों को उनके वोट देने के मौलिक अधिकार से वंचित करने की एक व्यवस्थित साज़िश है। सत्तारूढ़ दल भारतीय लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्था को मौलिक रूप से बदलने के लिए राज्य की नौकरशाही मशीनरी का उपयोग कर रही है। सत्ता में आने के बाद, विशेष रूप से मोदी सरकार के तहत, इसने स्पष्ट रूप से — कुलीनतंत्र की शक्ति को मज़बूत करना और सामाजिक कलह पैदा करना — की दोहरी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए राज्य मशीनरी का उपयोग करने की कोशिश की है।

"मोदी सरकार" के दूसरे कार्यकाल के बाद से यह स्पष्ट हो गया है कि कामकाजी ग़रीबों, विशेष रूप से मुसलमान और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों की नागरिकता पर संदेह करके भारतीय समाज में एक दीर्घकालिक दरार पैदा करने की एक योजना है। यह 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के माध्यम से किए गए नागरिकता क़ानूनों में बदलावों से स्पष्ट था। लोगों के दृढ़ प्रतिरोध के कारण एनआरसी को रोक दिया गया था। बिहार में एसआईआर जैसे बेतुके अभ्यासों के माध्यम से — जिसे चुनाव आयोग ने कहा है कि वह पूरे भारत के सभी राज्यों में विस्तारित करेगा — यह सरकार एनआरसी के लिए आधार तैयार कर रही है।

हमारे सामने चुनौती:

बिहार एसआईआर देश में लोकतंत्र के लिए एक परीक्षा है। यह सार्वभौमिक मताधिकार को समाप्त करने का एक प्रयोग है, जो यदि बिहार में सफल होता है तो पूरे देश में लागू किया जाएगा। इसलिए यह न केवल बिहार बल्कि पुरे भारत के सभी लोकतांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों पर निर्भर है कि वे इस ख़तरे को समझें और इसे विफल करने के लिए एसआईआर को खारिज करें। सरकार ने देश के लोगों को खुले तौर पर चुनौती दी है, अब लोगों को जवाब देना है। पिछले कुछ महीनों में, ज़मीनी स्तर पर SIR को बेनकाब करने और उसे चुनौती देने के विभिन्न प्रयास हो रहे है। ज़मीनी और स्वतंत्र मीडिया ने पूरी प्रक्रिया में मौजूद अनगिनत खामियों को उजागर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। एन.ए.पी.एम बिहार के सदस्य संगठन सक्रिय रूप से अभियान चला रहे हैं, जागरूकता फैला रहे हैं, और पूरे अभ्यास की ज़मीनी सच्चाई की जाँच कर रहे हैं, और संयुक्त रूप से 21 जुलाई को पटना में एक अच्छी तरह से आयोजित और प्रचारित जन सुनवाई का आयोजन किया, जिसमें प्रक्रिया में आई कई समस्याओं और बड़े पैमाने पर लोगों को मताधिकार से वंचित करने पर प्रकाश डाला गया।

पूरे विषय की गंभीरता के संदर्भ में, एन.ए.पी.एम मांग करता है कि:

भारतीय निर्वाचन आयोग:

  1. बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके।

  1. अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो।

  1. भविष्य में, देश के किसी अन्य भाग / राज्य में, SIR-बिहार जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दोहराने से चुनाव आयोग को बचना चाहिए।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय:

  1. मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने हेतु, SIR तैयार करने और संचालित करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग में दोषी अधिकारियों को दंडित करे।

  1. सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में, चुनावी धोखाधड़ी और धांधली के आरोपों की जाँच कराए।

  1. सर्वोच्च न्यायालय इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।

- जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय द्वारा जारी

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