नई दिल्ली- सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (एससी/एसटी एक्ट) के तहत अग्रिम जमानत देने पर सख्त रुख अपनाते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया है। यह फैसला इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दलित और आदिवासी समुदायों के खिलाफ जातिवादी उत्पीड़न के मामलों में अग्रिम जमानत की सुविधा को सीमित करता है, जिससे पीड़ितों को न्याय मिलने की प्रक्रिया मजबूत होती है और अपराधियों को धमकी देने या गवाहों को प्रभावित करने से रोकता है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि एससी/एसटी एक्ट की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत पर पूर्ण प्रतिबंध है, सिवाय उन मामलों के जहां प्रथम दृष्टया अपराध साबित नहीं होता। इस फैसले से सामाजिक न्याय की दिशा में एक मजबूत कदम उठाया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता उन्मूलन के सिद्धांत को मजबूती प्रदान करता है।
मामला महाराष्ट्र के धाराशिव जिले के पारंदा पुलिस स्टेशन से जुड़ा है, जहां अपीलकर्ता किरण, जो मातंग (मांग) अनुसूचित जाति समुदाय से हैं, ने आरोपी राजकुमार जीवराज जैन और अन्य के खिलाफ 26 नवंबर 2024 को एफआईआर दर्ज कराई थी। एफआईआर में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धाराओं 118(1), 115(1), 189(2), 189(4), 190, 191(2), 191(3), 333, 324(4), 76, 351(3) और 352 के साथ एससी/एसटी एक्ट की धाराओं 3(1)(ओ), 3(1)(आर), 3(1)(एस), 3(1)(डब्ल्यू)(i) के तहत अपराध दर्ज किया गया।
घटना 25 नवंबर 2024 की सुबह 11 बजे की है, जब विधानसभा चुनाव के एक दिन बाद आरोपी और उनके साथी अपीलकर्ता के घर पहुंचे और जातिवादी गालियां देते हुए हमला किया। एफआईआर के अनुसार, आरोपी राजकुमार जैन ने अपीलकर्ता को "मांगत्यानों, तुम बहुत घमंडी हो गए हो" कहते हुए लोहे की रॉड से सिर और पीठ पर मारा, जिससे अपीलकर्ता गिर पड़े। आरोपी ने अपीलकर्ता की मां मोहिनी और चाची रेखा को भी जातिवादी अपशब्द कहे, उनकी साड़ी खींची, मारपीट की और घर जलाने की धमकी दी। इस दौरान मां का एक तोला सोने का मंगलसूत्र गिर गया और घरेलू सामान क्षतिग्रस्त हो गया।
अपीलकर्ता के दोस्त यशवंत बोदरे को भी रामोशी समुदाय से होने और विपरीत वोट देने पर पीटा गया। आरोपी के हाथ में पेट्रोल की बोतल थी और वे घर जलाने की धमकी दे रहे थे। गांव के कुछ लोग बीच-बचाव करने आए, जिसके बाद अपीलकर्ता को अस्पताल भेजा गया और वहां से एफआईआर दर्ज हुई।
यह घटना विधानसभा चुनाव में अपीलकर्ता द्वारा आरोपी के पसंदीदा उम्मीदवार को वोट न देने के कारण हुई, जो एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(ओ) के तहत अपराध है, क्योंकि यह अनुसूचित जाति सदस्य को वोट देने या न देने के लिए दंडित करने से संबंधित है।
अपीलकर्ता ने जातिवादी अपमान, सार्वजनिक स्थान पर अपमान (धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस)), और महिलाओं के खिलाफ यौन प्रकृति के स्पर्श (धारा 3(1)(डब्ल्यू)(i)) का आरोप लगाया। आरोपी जैन समुदाय से हैं, जो अनुसूचित जाति/जनजाति नहीं है, इसलिए एससी/एसटी एक्ट लागू होता है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, पारंदा ने आरोपी की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी, क्योंकि प्रथम दृष्टया अपराध साबित हो रहा था, जाति प्रमाणपत्र से अपीलकर्ता की अनुसूचित जाति की पुष्टि हुई और गवाहों के बयान मौजूद थे। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने 29 अप्रैल 2025 को आपराधिक अपील नंबर 201/2025 में आरोपी को यह कहते हुए अग्रिम जमानत दे दी कि मामला अतिरंजित लगता है, गवाहों के बयानों में असंगतियां हैं और घटना चुनावी राजनीति से प्रेरित है। हाईकोर्ट ने चोटों की प्रकृति को हल्का बताते हुए जमानत दी।
सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता की विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई हुई, जहां न्यायमूर्ति एन.वी. अंजरिया ने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन के साथ फैसला सुनाया। अदालत ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि एससी/एसटी एक्ट की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत पर पूर्ण प्रतिबंध है, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 को लागू होने से रोकता है। अदालत ने विलास पांडुरंग पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012), प्रथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ (2020) और शाजन स्करिया बनाम केरल राज्य (2024) जैसे पूर्व फैसलों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि अदालत को केवल एफआईआर की सामग्री पर प्रथम दृष्टया अपराध की जांच करनी है, न कि साक्ष्यों का विस्तृत विश्लेषण या मिनी ट्रायल।
यहां एफआईआर से स्पष्ट है कि आरोपी ने जातिवादी शब्द "मांगत्यानों" का इस्तेमाल कर अपीलकर्ता को अपमानित किया, जो सार्वजनिक दृश्य में हुआ और जाति से जुड़ा था। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में प्रतिबंध अपवादस्वरूप ही हटाया जा सकता है, जब अपराध प्रथम दृष्टया न बने, लेकिन यहां सभी तत्व मौजूद हैं। महाराष्ट्र राज्य ने भी आरोपी की जमानत का विरोध किया।
यह फैसला एससी/एसटी एक्ट के उद्देश्य को मजबूत करता है, जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत बनाने और अपमान से बचाने के लिए है। अदालत ने राम कृष्ण बालोठिया बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1995) का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे अपराध विशेष श्रेणी के हैं, जो अस्पृश्यता से जुड़े हैं, इसलिए अपराधी को जमानत देकर पीड़ितों को धमकाने का मौका नहीं दिया जा सकता।
स्वर्ण सिंह (2008), हितेश वर्मा (2020) और करुप्पुदयार (2025) जैसे मामलों में "सार्वजनिक दृश्य" की व्याख्या का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता के घर के बाहर की घटना सार्वजनिक दृश्य में आती है। फैसले में स्पष्ट किया गया कि ये टिप्पणियां प्रथम दृष्टया हैं और ट्रायल पर प्रभाव नहीं डालेंगी। इस फैसले से दलित अधिकार कार्यकर्ताओं ने स्वागत किया है, क्योंकि यह उत्पीड़न के मामलों में न्याय की गति तेज करेगा और राजनीतिक दबाव से बचाएगा।
BANAE के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ नागसेन सोनारे ने कहा, " सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकती क्योंकि अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 की धारा 18 द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाया गया है। इस आदेश का व्यापक प्रचार-प्रसार आवश्यक है क्योंकि पूरे भारत में अदालतें सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम ज़मानत दे रही हैं और इससे आरोपियों को एससी-एसटी समुदाय के खिलाफ फिर से अत्याचार करने का नैतिक प्रोत्साहन मिलता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को हमारे सभी संगठनों और एसोसिएशनों द्वारा साझा और चर्चा किया जाना चाहिए।"
दलित एवं आदिवासी समाज के संगठनो के महासंघ NACDAOR के चेयरमैन अशोक भारती ने सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का स्वागत किया। उन्होंने कहा इस मसले पर NACDAOR का सुझाव है कि सर्वोच्च न्यायालय को जजों और न्यायिक अधिकारियों की एक बैठक करनी चाहिए, जिसमें अलग अलग कोर्ट अलग अलग व्याख्या करने से बचें।
पूरा आदेश यहाँ पढें: