नई दिल्ली: आप पूछ सकते हैं कि, "सरनेम में क्या रखा है?" जवाब है—बहुत कुछ, खासकर आपकी जाति। भारत में अगर धर्म दीवार न भी बने, तो जाति अक्सर अगला बड़ा अवरोध बन जाती है। दशकों तक बॉलीवुड में मल्होत्रा, चोपड़ा, शर्मा, सिंह और वर्मा जैसे सरनेम वाले हीरो छाए रहे—जो ऊंची जातियों की पहचान थे।
लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। जब फिल्मकार और लेखक समाज के हर वर्ग से, विशेषकर दलित समुदाय से, आ रहे हैं तो सिनेमा में विविधता झलकने लगी है। न्यूटन का न्यूटन कुमार हो या अब धड़क 2 का नीलेश—नई पीढ़ी की फिल्में जातिगत पहचान को पर्दे पर ला रही हैं।
धड़क 2: जातीय संघर्ष में पनपता प्रेम
हाल ही में रिलीज़ हुए धड़क 2 के ट्रेलर में नीलेश का सरनेम नहीं बताया गया है, लेकिन उसकी पहचान स्पष्ट है। एक दृश्य में नीलेश नीले रंग में रंगा हुआ दिखता है—जो दलित प्रतिरोध का प्रतीक है। उसकी नीली अंगोछी भी इसी प्रतीकवाद को आगे बढ़ाती है।
सिद्धांत चतुर्वेदी द्वारा निभाया गया नीलेश अपनी दलित पहचान को सहजता से अपनाता है। लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उसे जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है और वह अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का निर्णय लेता है। उसकी प्रेमिका त्रिप्ती डिमरी द्वारा निभाई गई भूमिका, जो एक सवर्ण लड़की है, इस लड़ाई में उसका साथ देती है।
1 अगस्त को रिलीज़ हो रही धड़क 2, समाज में गहरे पैठी जातिगत समस्याओं को मुख्यधारा के सिनेमा में केंद्र में लाने का प्रयास करती है—वो भी उस समय जब इस वर्ष फुले जैसी फिल्म सेंसर बोर्ड के विवादों में उलझ गई थी।
न्यूटन (2017): संकेतों में छिपी गूंजती पहचान
अमित वी. मसुरकर द्वारा निर्देशित न्यूटन में राजकुमार राव ने न्यूटन कुमार की भूमिका निभाई थी, जो छत्तीसगढ़ के संघर्षग्रस्त इलाके में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध होता है।
हालांकि फिल्म में उसकी दलित पहचान स्पष्ट नहीं की गई, लेकिन उसके घर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की तस्वीर इस बात की ओर संकेत करती है। एक दृढ़, ईमानदार और न्यायप्रिय सरकारी कर्मचारी के रूप में न्यूटन का किरदार दलित मूल्यों का प्रतीक बनकर उभरता है।
मसान (2015): प्रेम, वर्ग और जाति की त्रासदी
नीरज घायवान की मसान में विक्की कौशल द्वारा निभाया गया दीपक कुमार बनारस की डोम जाति से ताल्लुक रखता है। वह घाटों पर शवों का अंतिम संस्कार करने वाले परिवार से आता है, लेकिन वह सिविल इंजीनियर बनकर इस परंपरा को तोड़ना चाहता है।
दीपक एक उच्च जाति की लड़की शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) से प्रेम करने लगता है, लेकिन उनकी प्रेम कहानी दुखद मोड़ लेती है। यह फिल्म नीरज घायवान के खुद के जीवन से प्रेरित थी और कान फिल्म फेस्टिवल में दो प्रमुख पुरस्कार जीतने में सफल रही।
काला (2018): रंगों का क्रांतिकारी अर्थ
पा. रंजीत की फिल्म काला में रजनीकांत ने धारावी की एक दलित बस्ती के नेता कारिकालन की भूमिका निभाई। काला हमेशा काले कपड़े पहनता है—जो परंपरागत "सफेद मतलब अच्छा, काला मतलब बुरा" के विचार को चुनौती देता है।
इस फिल्म में दलित प्रतिरोध, ज़मीन की लड़ाई और सामाजिक न्याय के मुद्दों को बेहतरीन तरीके से पेश किया गया। रंजीत ने कई बार कहा है कि सिनेमा को जातिगत सच्चाईयों से डरना नहीं चाहिए।
सैराट (2016): प्रेम से भय तक
नागराज मंजुले की सैराट एक मासूम कॉलेज प्रेम कहानी के रूप में शुरू होती है, लेकिन धीरे-धीरे जातिगत हिंसा और ऑनर किलिंग की त्रासदी में बदल जाती है।
मंजुले ने कहा था, "मैं चांद-तारों की बात नहीं करूंगा क्योंकि मैं उनसे नहीं जुड़ता।" सैराट ने ₹110 करोड़ की कमाई के साथ मराठी सिनेमा के इतिहास में नया रिकॉर्ड बनाया और धड़क नाम से इसका हिंदी रीमेक भी बना, लेकिन उसमें जाति को क्लास डिफरेंस में बदल दिया गया।
अब धड़क 2 उस गलती को सुधारने का दावा कर रही है।
परियेरुम पेरुमाल
धड़क 2 की कहानी तमिल फिल्म परियेरुम पेरुमाल पर आधारित है। पा. रंजीत द्वारा प्रोड्यूस की गई इस फिल्म ने शिक्षा व्यवस्था में जातिगत भेदभाव को सामने रखा।
रंजीत ने कहा था, “मुख्यधारा के निर्माता ऐसी कहानियों से डरते हैं, लेकिन दर्शक तैयार हैं। हमें उन पर भरोसा करना चाहिए।”

फुले विवाद: सेंसरशिप की हकीकत
इस साल अप्रैल में फुले फिल्म, जो महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है, कुछ ब्राह्मण संगठनों के विरोध के कारण दो दिन देरी से रिलीज़ हुई। सेंसर बोर्ड ने जातिसूचक शब्दों पर आपत्ति जताई थी।
धड़क 2 भी सेंसर बोर्ड की समीक्षा में अटका रहा, लेकिन अब इसे रिलीज़ की अनुमति मिल गई है।
क्या बॉलीवुड बदल रहा है?
मसान, काला, सैराट और अब धड़क 2—इन फिल्मों ने साबित किया है कि भारतीय सिनेमा अब केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि वह सामाजिक न्याय की लड़ाई का भी मंच बन सकता है।
धर्मा प्रोडक्शन जैसे बड़े बैनर और शाजिया इकबाल जैसी संवेदनशील निर्देशक की मौजूदगी में धड़क 2 से उम्मीद की जा रही है कि यह फिल्म दलित कहानियों को बॉलीवुड के केंद्र में लाएगी।
अब सवाल यह है—क्या हम ऐसी फिल्में देखने के लिए तैयार हैं?