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राजस्थान में थम नहीं रहा वन्य जीवों के शिकार का सिलसिला, जीव प्रेमी नाराज

जयपुर। देश में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम प्रभावी होने के बावजूद  जानवरों का शिकार नहीं थम रहा है। प्रदेश भर में हर दिन वन्य जीवों का शिकार किया जा रहा है। राजस्थान के बीकानेर जिले के श्रीडूंगरगढ़ वन क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय पक्षी मोर सहित अन्य पक्षियों की संदिग्ध मौत का वन विभाग खुलासा भी नहीं कर पाया था कि अब बीकानेर से ही नीलगाय के शिकार का मामला सामने आया है। इससे वन्यजीव प्रेमी आहत है।

बीकानेर सहित राज्यभर में बढ़ रही शिकार की घटनाओं से जीव रक्षा संस्था, बीकानेर जिलाध्यक्ष मोखाराम विश्नाई ने आपत्ति जताते हुए सरकार से वन्य जीवों का शिकार रोकने के लिए सख्ती बरतने मांग की है। उन्होंने कहा कि हाल ही 25 राष्ट्रीय पक्षी मोरों की मौत का खुलासा भी हीं हुआ कि अब नील गाय का बंदूक की गोली मारकर शिकार किया गया है। मौके पर मृत मिले वन्य जीव के शरीर पर गोली लगने का निशान साफ नजर आ रहा है।

उन्होंने कहा कि फसलों की रखवाली के नाम पर कुछ लोग वन्य जीवों का शिकार कर रहे हैं। बंदूक गोली मारने के बाद जानवर को ट्रैक्टर से घसीट कर वन विभाग की भूमि पनपालसर की रोही में पटका गया है। इस क्षेत्र में जगह-जगह वन्य जीवों के अवशेष मिले हैं। यह अवशेष इलाके में वन्यजीवों के शिकार का दर्द बयान कर रहे हैं। वन अधिकारी शिकारियों का खुलासा तक नहीं कर पा रहे हैं।

रणथम्भौर अभ्यारण भी शिकारियों की बुरी नजर

राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले में स्थित रणथंभौर अभयारण्य पर भी शिकारियों की बुरी नजर है। इलाके में आए दिन शिकार के प्रकरण सामने आते रहते हैं। हालांकि यहां वन अधिकारियों की सक्रियता का परिणाम है कि इस इलाके में अक्सर शिकारी पकड़े जाते हैं। अक्टूबर 2023 में भी फलौदी  रेंज इलाके में वन कर्मियों ने घेराबंदी कर शिकारी को सुअर के मांस के साथ रंगे हाथों दबोच लिया था। हालांकि इसके अन्य साथी भागने में कामयाब रहे थे।

बीते वर्ष रणथम्भौर बाघ परियोजना की फलौदी  रेंज में जुलाई से अक्टूबर माह के बीच शिकार की 6 घटनाएं सामने आई थी। इनमें से वनकर्मियों ने 8 शिकारियों को मौके से गिरफ्तार किया था। 

21 जुलाई को प्रतिबंधित क्षेत्र में मृत तीतरों के साथ दो शिकारियों को गिरफ्तार किया गया। 26 जुलाई को मछली के शिकार करते हुए दो आरोपी पकड़े। 

28 सितंबर को इसी रेंज में नील गाय का कटा हुआ मांस मिला, लेकिन शिकारी नहीं पकड़े गए। 3 अक्टूबर को मछली का शिकार कर रहे शिकारी वन कर्मियों को देख कर भागे। 

15 अक्टूबर को एक फार्म हाउस पर नीलगाय का शिकार करते तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया। आरोपियों के पास से नील गाय का मांस भी जब्त किया गया। 

25 अक्टूबर को जंगली सुअर के साथ बाइक सहित एक आरोपी पकड़ा गया।

इससे पूर्व भी रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सटे चौथ का बरवाड़ा सामाजिक वानिकी क्षेत्र में पुलिस ने तीन मृत नीलगायों के साथ पांच आरोपियों को पकड़ा था। बाद में चौथ का बरवाड़ा थाना पुलिस ने पकड़े गए सभी पांचों आरोपी को वन विभाग को सौंप दिया था। पकड़े गए आरोपियों ने सवाई माधोपुर जिले के बौंली व चौथ का बरवाड़ा क्षेत्रों से 145 नील गायों के शिकार की बात स्वीकार की थी।

बाघों की सुरक्षा पर भी सवाल!

रणथम्भौर बाघ परियोजना की बात करें तो बीते 10 सालों में 30 से अधिक बाघ लापता हुए हैं। सूत्रों की मानें तो वन विभाग बाघों के लापता होने की गोपनीय सूचना समय समय पर सरकार को तो भेजता है, लेकिन सार्वजनिक नहीं करता। ऐसे में यहां से बाघों के असमय मौत के साथ ही शिकार की आशंका से भी इंकार नहीं कर सकते। फरवरी 2020 में फलौदी रेंज में विभाग के कैमरे में चीतल ले जाते शिकारियों की फोटो ट्रैप हुई थी। 17 अप्रैल 2022 को अवैध तरीके से बंदूक लेकर घूम रहे शिकारियों को तालड़ा रेंजर ने पकड़ा था।

तीन बाघों का हुआ शिकार

पिछले कुछ सालों में रणथम्भौर में तीन बाघों का शिकार हुआ है। इनमें से दो बाघों का शिकार 17 अप्रैल 2018 को हुआ था। रणथम्भौर की फलौदी रेंज के आवण्ड क्षेत्र में बाघिन टी-79 के दो शावकों का शिकार हुआ था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बाघ के शरीर में कीटनाशक के अंश मिलने के बाद वन विभाग ने अज्ञात शिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था। इसी तरह छाण में खेतों में आए बाघ टी-28 के शिकार की आशंका जताते हुए खण्डार थाना पुलिस ने 2019 में 11 लोगों को गिरफ्तार किया था।

देश में 1972 में लागू हुआ वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम

भारत में वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए "वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम बना जो 9 सितंबर 1972 को लागू किया गया। यह अधिनियम राजस्थान में 1 सितंबर 1973 को लागू किया गया। इस अधिनियम के लागू के होने के बाद ही राज्य में वन्य जीवों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया।

भारत में वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए 'पर्यावरण संरक्षण अधिनियम', 'वन संरक्षण अधिनियम, 'राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना', 'टाइगर परियोजना', 'राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य', 'जैव-क्षेत्रीय रिजर्व कार्यक्रम' आदि चल रहे हैं। इन योजनाओं के कारण कुछ प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाया गया है। वन्य पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1887, ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा 1887 में पारित पहला ऐसा नियम था। 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में छह अनुसूचियां शामिल हैं। 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से वन और जंगली जानवरों और पक्षियों के संरक्षण को राज्य से समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया गया था।

वन्य जीव विशेषज्ञों की मानें तो 1972 में पारित वन्य जीव संरक्षण अधिनियम का मकसद वन्यजीवों के अवैध शिकार, मांस और खाल के व्यापार पर रोक लगाना था। साल 2003 में संशोधित होकर ये भारतीय वन्य जीव संरक्षण (संशोधित) अधिनियम 2002 बन गया है। संशोधित अधिनियम की अनुसूची एक में 43 वन्य जीव शामिल हैं। सूची में सुअर से लेकर कई तरह के हिरण, बंदर, भालू, चिकारा, तेंदुआ, लंगूर, भेडिय़ा, लोमड़ी, डॉलफिन, कई तरह की जंगली बिल्लियां, बारहसिंगा, बड़ी गिलहरी, पेंगोलिन, गैंडा, ऊदबिलाव, रीछ और हिमालय पर पाए जाने वाले कई जानवरों के नाम शामिल हैं। अनुसूची एक के भाग दो में कई जलीय जन्तु और सरीसृप शामिल है।

वन्य जीवों का शिकार करने पर कम से कम 3 साल सात साल तक की सजा हो सकती है। इसी तरह कम से कम 10 हजार 25 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान भी शामिल किया गया है।

जंगली जानवरों के शिकार में अक्सर राजस्थान में एक जाति विशेष के लोग पकड़े जाते हैं। यह आदिवासी समुदाय से आते हैं। बीते दिनों रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में शिकार करते पकड़े गए लोगों में ज्यादातर मोगिया जाति के लोग शामिल थे। पारम्परिक रूप से जंगलों पर आजीविका के लिए आश्रित रहने वाले मोगिया से अब रोजगार छिन गया है। रणथम्भौर सहित राज्य भर में 26  से अधिक वन्य जीवों के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित होने के बाद यह जनजाति संकट में है, क्योंकि सरकार की ओर से जनजातीय समूह के लिए कोई वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था नहीं की गई। इसके चलते मोगिया जनजाति के लोग अक्सर शिकार के मामलों में गिरफ्तार होते हैं।

शिकारियों की बंदूक, वन कर्मी के पास डंडा!

वन कर्मियों की माने तो बाघ परियोजना या राज्य के अन्य सरंक्षित जंगलों व वन्य जीवों की सुरक्षा में आवश्यकता के अनुसार कर्मियों की तैनाती नहीं की जा रही है। जंगल और जंगली जानवरों की रक्षा के लिए फील्ड में तैनात सुरक्षाकर्मियों के हाथ में केवल लकड़ी का एक डंडा दिया गया हैं, जबकि शिकारी स्वचालित हथियारों के साथ प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश कर वन्यजीवों का शिकार करते हैं। बंदूकों से लैस अपराधियों से मुकाबले के लिए वन कर्मियों को डंडा थमाया गया है। ऐसे में अब सिस्टम पर भी सवाल उठने लगे हैं। क्या खतरनाक जंगली जानवरों की सुरक्षा में बंदूकधारी शिकारियों से मुकाबले के लिए डंडा काफी है। सरकार को इस पर विचार करना होगा।

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