अंतरराष्ट्रीय बेस्ट सेलर बुक सेपियंस में ‘भारतीय जाति व्यवस्था’ के बारे में क्या लिखा है?

02:52 PM Mar 15, 2025 | Rajan Chaudhary

इज़राइली इतिहासकार व येरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर युवाल नोआ हरारी (Yuval Noah Harari) की सबसे चर्चित किताब Sapiens: A Brief History of Humankind Book [सेपियन्स: मानव-जाति का संक्षिप्त इतिहास], में उन्होंने दुनिया में मानव सभ्यता के अस्तित्व में आने की बेहद रोचक, आकर्षक और तथ्यपरक कहानियों को शामिल किया है. 

सेपियन्स के उम्दा लेखन और बेस्टसेलर इस किताब के कारण दुनियाभर में मशहूर हुए इस इतिहासकार द्वारा लिखी गई यह किताब मूल रूप से इंग्लिश भाषा में हार्विल सेकर द्वारा 2014 में प्रकाशित की गई थी. किताब आदिमानव से लेकर इंसानों की सबसे प्रभावशाली प्रजाति होमो सेपियन्स द्वारा दुनिया को मुट्ठी में कर लेने तक की लम्बी ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में तथ्यों व आंकड़ों के साथ आपके सामने पेश होती है.

इस किताब में इंसानों के सामाजिक, आर्थिक, भौतिक और शारीरिक बदलाव सहित मानसिक विकास के क्रम को काफी गंभीरता से समझाया गया है. वैसे तो किताब विश्वस्तर पर इतिहास में दर्ज लगभग सभ्यताओं और संस्कृतियों के बारे में संक्षित रूप से जानकारी देती है, साथ ही यह किताब दुनियाभर में गुलामी, नस्लवाद और रंगभेद के सन्दर्भ में भारत में फैले जातिवाद, अन्धविश्वास और पाखंड के बारे में भी बहुत कुछ कहती है.

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किताब के अनुसार, जाति-व्यवस्था का पालन करने वाले हिन्दुओं का विश्वास है कि दैवीय शक्तियों  ने ही एक जाति को दूसरी जाति से श्रेष्ठ बनाया है. हिन्दुओं की एक प्रसिद्द सृष्टि-कल्पना के अनुसार देवताओं ने पुरुष नामक एक आद्य सत्ता की काया से दुनिया की रचना की थी. सूर्य की रचना पुरुष के नेत्र, चन्द्रमा की रचना पुरुष के मस्तक, ब्राह्मणों की रचना उसके मुख, क्षत्रियों की रचना उसकी भुजाओं, वैश्यों की रचना उसकी जंघाओं और शूद्रों की रचना उसके पैरों से हुई. 

इस व्याख्या को स्वीकार करते ही ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच के फर्क उतने ही स्वाभाविक और शाश्वत हैं, जितना फर्क सूर्य और चन्द्रमा के बीच है. प्राचीन चीनियों का मानना था कि जब देवी नू वा ने मिट्टी की रचना की, तो उसने कुलीनों को चिकनी पीली मिट्टी से गूंथा, जबकि सामान्य जनों को भूरे कीचड़ से गढ़ा गया. 

तब भी हमारी श्रेष्ठतम समझ के अनुसार, ये सारे श्रेणीबद्ध क्रम मनुष्य की कल्पना क उपज हैं. ब्राह्मणों और शूद्रों की रचना देवताओं द्वारा किसी आद्य सत्ता के शरीर के विभिन्न हिस्सों ने नहीं की थी. इसके बजाय दोनों जातियों के बीच का भेद कोई 3000 साल पहले उत्तर भारत के मनुष्यों द्वारा ईजाद नियमों और मानकों से रचा गया था. 

सेपियन्स किताब का एक पेज

अरस्तु की धारण के विपरीत, गुलामों और स्वतंत्र लोगों के बीच कोई ज्ञात जैविक भेद नहीं है. मानवीय नियमों और मानकों ने ही कुछ लोगों को गुलामों में और कुछ को उनके मालिकों में बदल दिया. कालों और गोरों के बीच कुछ तथ्यात्मक जैविक भेद हैं, जैसे चमड़ी के रंग और बालों का प्रकार, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं कि इन फ़र्कों का विस्तार बुद्धि और नैतिकता तक है. ज्यादातर लोग दावा करते हैं कि उनका सामाजिक श्रेणीबद्ध क्रम कुदरती और न्यायसंगत है, जबकि दूसरे समाजों के श्रेणीबद्ध क्रम छद्म और हस्याद्पद मापदंडों पर आधारित हैं.  

दुर्भाग्य से ऐसा लगता है कि जटिल मानवीय समाजों के लिए कल्पित श्रेणीबद्ध क्रम और अन्यायपूर्ण भेदभाव जरुरी है. निश्चय ही सारे श्रेणीबद्ध क्रम नैतिक रूप से एक जैसे नहीं हैं और कुछ समाजों के मुकाबले कहीं ज्यादा अतिवादी किस्म के भेदभावों को भोगना पड़ता है, तब भी अध्येताओं की जानकारी में ऐसा कोई विशाल समाज नहीं है, जो भेदभाव को पूरी तरह से त्यागने में समर्थ रहा हो. 

अक्सर लोग आबादी को श्रेष्ठ जन, समान्य जन और गुलाम, गोर और काले, कुलीन और असभ्य, ब्राह्मण और शूद्र, या अमीर और गरीब जैसी कल्पित कोटियों में वर्गीकृत करते हुए अपने समाजों में व्यवस्था रचते हैं. इन कोटियों ने कुछ लोगों को वैधानिक, राजनैतिक या सामाजिक तौर पर दूसरे लोगों से श्रेष्ठ बनाते हुए लाखों मनुष्यों के बीच के रिश्तों का नियमन किया है. 

सारे समाज कल्पित श्रेणीबद्ध क्रमों पर आधारित होते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि यह क्रम हर समाज में एक जैसे हों। ये भेद क्यों होते हैं? क्या वजह है कि पारंपरिक हिंदुस्तानी समाज में जाति के आधार, ऑटोमन समाज ने धर्म के आधार और अमेरिकी समाज ने नस्ल के आधार पर लोगों को वर्गीकृत किया? ज्यादातर मामलों में श्रेणीबद्ध कम संयोजनजन्य ऐतिहासिक परिस्थितियों से जन्मा था और बाद के अनेक पीढ़ियों के दौरान जैसे जैसे उसके प्रति विभिन्न समूहों के निहित स्वार्थ विकसित होते गए। वैसे वैसे वह श्रेणीबद्ध क्रम स्थानीय और परिष्कृत होता गया।

उदाहरण के लिए बहुत से अध्येताओं का अनुमान है कि हिंदू जाति-व्यवस्था ने तब रूप लिया था, जब लगभग 3000 साल पहले इंडो-आर्यन कौम ने हिंदुस्तान पर आक्रमण कर वहाँ के स्थानीय लोगों को अपने अधीन कर लिया था। इन आक्रान्ताओं ने एक स्तरीकृत समाज विकसित किया, जिसमें — ज़ाहिर है — उन्होंने प्रमुख हैसियतों (पुरोहितों और क्षत्रियों की हैसियतों) पर कब्जा कर लिया और स्थानीय निवासियों को अनुचर और गुलाम बना दिया. 

इन आक्रांताओं को, जिनकी संख्या बहुत थोड़ी सी थी, अपनी विशेष हैसियत और विशिष्ट पहचान के मिट जाने का भय सताता था। इस खतरे को पहले से ही दूर करने के उद्देश्य से उन्होंने आबादी को जातियों में विभाजित किया, जिनमें से हर जाति को विशेष व्यवसाय करना या समाज में विशिष्ट भूमिका निभाना जरूरी था। हर जाति की अलग वैधानिक हैसियत, सुविधाएं और कर्तव्य थे। जातियों के मेलजोल, सामाजिक अंतर्क्रिया, विवाह यहाँ तक कि साथ बैठकर भोजन करने पर भी प्रतिबंध था. और ये भेद महज कानूनी नहीं थे बल्कि वे धार्मिक लोक-विश्वास और अनुष्ठान का स्वभाविक अंग बन गए। 

शासकों का तर्क था कि जाति-व्यवस्था किसी ऐतिहासिक संयोग का नतीजा नहीं, बल्कि एक सनातन वैश्विक वास्तविकता है। शुचिता और अशुचिता की धारणाएं हिंदू धर्म के मूलभूत तत्वों में शामिल थीं और उनका उपयोग सामाजिक पिरामिड को मजबूत बनाने के लिए किया गया। पवित्र हिंदुओं को सिखाया गया कि दूसरी जाति के लोगों का स्पर्श न सिर्फ उन्हें निजी तौर पर अपवित्र करेगा, बल्कि पूरे समाज को भी अपवित्र बना देगा और इसीलिए ऐसे लोगों से उन्हें घृणा करनी चाहिए। इस तरह की धारणाएं सिर्फ हिंदुओं की ही विशेषताएं नहीं हैं। समूचे इतिहास के दौरान, और लगभग सारे समाजों में अपवित्रता और शुचिता की धारणाएं सामाजिक और राजनैतिक विभाजनों को मजबूत बनाने में प्रमुख भूमिका निभाती रही हैं और अनेक कुलीन वर्गों द्वारा अपनी विशेष हैसियत को बरकरार रखने के लिये इनका दुरुपयोग किया गया है। 

अशुचिता का भय पूरी तरह से पुरोहितों और राजकुमारों की धूर्तता नहीं है। इसकी जड़ें संभवतः जीवित बने रहने की उन जैविक प्रक्रियाओं में फैली हैं, जो मनुष्य में रोगों के संभावित वाहकों, जैसे कि बीमार इंसानों और शवों के प्रति स्वाभाविक विकर्षण की भावना जगाती हैं।अगर आप किसी भी इंसानी समुदाय — स्त्रियों, यहूदियों, जिप्सियों, समलैंगिकों, कालों — को अलग-थलग बनाए रखना चाहते हैं, तो इसका सबसे अच्छा तरीका हर किसी के दिमाग में यह बात बैठा देना है कि ये लोग प्रदूषण के स्रोत हैं। 

हिंदू वर्ण-व्यवस्था और उससे जुड़े शुचिता के नियम हिंदुस्तानी संस्कृति में गहरे बैठ गए हैं। इंडो-आर्यन आक्रमण के भुलाए जा चुकने के बहुत बाद तक हिंदुस्तानियों ने वर्ण-व्यवस्था में विश्वास और वर्णों के संकरण (मिश्रण) से होने वाली अशुचिता से घृणा करना जारी रखा। 

जब भी कभी कोई नया व्यवसाय विकसित होता था या लोगों का कोई नया समूह प्रकट होता था, तब हिंदू समाज के भीतर एक जायज़ स्थान हासिल करने के लिए उनका किसी जाति के रूप में अपनी पहचान बनाना जरूरी होता था। जो समूह किसी जाति के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाते थे, वे सच्चे अर्थों बहिष्कृत होते थे — इस स्तरीकृत समाज में उन्हें सबसे निचली सीढ़ी भी मयस्सर नहीं होती थी। वे अछूत कहे जाने लगे, उन्हें बाकी समाज से अलग रहना पड़ता था और कचरे के ढेर से जूठन बटोरने जैसे अपमानजनक और घृणित तरीकों से अपनी आजीविका जुटानी पड़ती थी। सबसे निचली जाति के लोग भी उनसे घुलने-मिलने, उनके साथ बैठकर खाने, उन्हें छूने और निश्चय ही उनके साथ वैवाहिक रिश्ता बनाने में परहेज करते थे। आधुनिक हिंदुस्तान में विवाह और काम के मसले आज भी जाति-व्यवस्था से जबर्दस्त ढंग से प्रभावित हैं, बावजूद इसके कि हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक सरकार द्वारा इस तरह के भेदभावों को तोड़ने और हिंदुओं को या समझने की तमाम कोशिशें की गई हैं कि जातीय मिश्रण से कोई दूषण नहीं होता। 

लेखक युवाल नोआ हरारी का परिचय

प्रसिद्द इतिहासकार डॉ. युवाल नोआ हरारी ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है और अब विश्व इतिहास में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद we हिब्रू विश्वविद्यालय यरुशलम में अध्यापन करते हैं. उनका अनुसन्धान व्यापक प्रश्नों पर केन्द्रित है, जैसे कि: इतिहास और जिव विज्ञान का क्या सम्बन्ध है? क्या इतिहास में इंसाफ है? क्या इतिहास के विस्तार के साथ लोग सुखी हुए? यह किताब एक अंतर्राष्ट्रीय बेस्टसेलर है और दुनिया की 30 से ज्यादा भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है.