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यूँ गुज़री है अब तलक: किसी एक स्त्री की नहीं, बल्कि अनेक स्त्रियों की आत्मकथा

नई दिल्ली। सीमा कपूर की आत्मकथा पढ़ते हुए ऐसे लगता है कि जैसे यह किसी एक स्त्री की नहीं, बल्कि अनेक स्त्रियों की आत्मकथा है। इस तरह की आत्मकथा लिखने में बहुत साहस की जरूरत होती है। यह लेखनी एक जीवंत और सतत सजग नारी का आत्मकथ्य है, जिसने रंगमंच और जीवन को बेहद करीब से जिया है। यह बातें गुरुवार शाम को फ़िल्म निर्माता-लेखक सीमा कपूर की आत्मकथा ‘यूँ गुज़री है अब तलक’ के सन्दर्भ में आयोजित प्रेस वार्ता व बातचीत के दौरान वक्ताओं ने कही।

राजकमल प्रकाशन की ओर से इंडियन वुमन प्रेस कॉर्प्स में आयोजित इस चर्चा के दौरान सीमा कपूर ने अपने जीवन के सबसे निजी और संवेदनशील अनुभवों को बड़ी संजीदगी, धैर्य और साफ़गोई के साथ साझा किया। इस कार्यक्रम में लेखक-पत्रकार गीताश्री ने सीमा कपूर से उनकी आत्मकथा के सन्दर्भ में बातचीत की। वहीं कार्यक्रम का संचालन पत्रकार सुमन परमार ने किया। अपनी आत्मकथा पर बातचीत करते हुए सीमा कपूर ने अपने बचपन से लेकर अब तक के जीवन से जु़ड़े कई किस्से सुनाए।

इस किताब के ज़रिए उन्होंने अपने निजी जीवन के कई अनसुने पहलुओं को पहली बार सामने रखा है। दिवंगत अभिनेता ओम पुरी के साथ अपने वैवाहिक जीवन से जुड़ी निजी स्मृतियों से लेकर एक स्त्री के आत्म-निर्माण तक की यह यात्रा केवल आत्मकथ्य नहीं, बल्कि मानव संबंधों की जटिलता और स्त्री-स्वत्व की सशक्त अभिव्यक्ति बनकर सामने आई है। इस किताब में सीमा कपूर ने पारसी थियेटर में बीते अपने बचपन की यादों से लेकर सिनेमा के क्षेत्र में अपने करियर और सिनेमा से जुड़े अन्य लोगों के साथ अपने संबंधों के बारे में खुलकर लिखा है। 

किताब पर बातचीत की शुरुआत करते हुए गीताश्री ने कहा, यह किताब ज़िन्दगी की किताब है। इसे पढ़ते हुए मुझे लगा ही नहीं कि मैं किसी एक स्त्री की आत्मकथा पढ़ रही हूँ, मुझे इसमें अनेक स्त्रियों की आत्मकथा दिखायी दी। हिन्दी में इस तरह की आत्मकथा लिखने में बहुत साहस की जरूरत होती है। इस तरह से अपने दुखों और अपनी तक़लीफ़ों को दर्ज़ करने का साहस बहुत कम लेखिकाओं में होता है। हम देखते हैं कि जो स्त्रियाँ अपनी आत्मकथा लिखतीं हैं, उनमें से ज्यादातर उसमें केवल अपने साथ हुए अन्याय को ही दर्ज़ करती है। लेकिन सीमा कपूर की आत्मकथा उन सबसे अलग है। इसमें न किसी को ईश्वर बनाया गया है और न ही खुद का महिमामंडन किया गया है। इस किताब में ज़िन्दगी जैसी है उसे वैसे ही दिखाया गया है। 

आगे उन्होंने सीमा कपूर के लेखन की तारीफ़ करते हुए कहा कि इस किताब को इतने प्रवाहपूर्ण ढ़ंग से लिखा गया है कि जब आप इसे पढ़ने लगते हैं तो पढ़ते ही चले जाते हैं। इसे पढ़ते हुए आपको लगेगा कि यह ज़िन्दगी अगर एक फ़िल्म है तो यह किताब उसकी पटकथा है।

बातचीत के दौरान गीताश्री ने सीमा कपूर से कई तीखे और धारदार सवाल किए। उनके सवालों में जो तीव्रता और साहस था, उसके जवाबों में सीमा कपूर की शांति और संतुलन देखने लायक था। सीमा कपूर के शब्दों में पीड़ा थी, निजी जीवन के अनेक कड़वे अनुभव थे पर उनमें किसी के लिए कड़वाहट नहीं थी, न ही उन्होंने किसी पर कोई आक्षेप किया। 

ओम पुरी से अल्पकालिक विवाह, फिर उनका दूसरी शादी करना और 14 वर्षों बाद फिर से उसी सीमा के पास लौट आना—सीमा कपूर ने जब यह सब साझा किया तो यह केवल एक निजी कथा नहीं रह गई, यह करुणा और प्रेम की परिभाषा बन गई। इस चर्चा ने उन्हें एक स्वतंत्र, विचारशील और संवेदनशील लेखक के रूप में नए सिरे से प्रस्तुत किया। 

चर्चा के दौरान सीमा कपूर ने कहा कि पुरी साहब बहुत संवेदनशील इनसान थे। मैं भी उनसे बहुत प्रभावित हुई। लेकिन कई बार जब आप इनसान की खूबियाँ देखने लग जाते हैं तो उसकी खामियों को नज़रंदाज़ कर देते हैं। मैंने भी कहीं न कहीं ऐसा ही किया जिसकी वजह से मुझे बाद में बहुत कुछ झेलना पड़ा। लेकिन मुझे इसका जरा भी अफ़सोस नहीं है। क्योंकि मैं हमेशा सच्चाई के साथ रही और शायद यही वजह है कि मैं आज इस पर इतना खुलकर लिख और बोल पा रही हूँ। 

एक श्रोता के सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, मैं पुरी साहब को अपने जीवन के लिए अभिशाप नहीं, बल्कि वरदान ही मानती हूँ। क्योंकि कई बार आपको जब कोई धक्का लगता है तभी आपको अपनी ताक़त और मज़बूती का एहसास होता है। मेरे जीवन में अगर वो पीड़ाएँ नहीं होतीं तो शायद मैं वहाँ नहीं होती, जहाँ आज हूँ। मेरा मानना है कि जीवन में आने वाला हर दुख आपको अपने भीतर से निखारने का एक अवसर देता है। मैं आभारी हूँ कि मैंने उस दुख को न कि सिर्फ़ झेला बल्कि उसे जज़्ब भी किया। उस हादसे ने मुझे आहत किया लेकिन उससे मैं एक बेहतर और अधिक संवेदनशील इनसान बनकर निकली। 

‘यूँ गुज़री है अब तलक’ केवल एक सिने हस्ती की कहानी नहीं है। यह उस स्त्री का आत्मबोध है, जो रिश्तों की टूटन के बाद भी खुद को बिखरने नहीं देती, बल्कि अपने व्यक्तित्व को निखारते हुए और भी मजबूत होकर निकलती है। इस आत्मकथा में विवाह जैसे सामाजिक संस्थानों की विफलता से उपजे आघात को सिर्फ़ दुख की कथा नहीं बनाया गया, बल्कि एक नई शुरुआत का प्रवेशद्वार दिखाया गया है। जहाँ समाज में विवाह-विच्छेद को एक स्त्री की हार की तरह देखा जाता है, वहीं सीमा कपूर ने अपने निजी जीवन की त्रासदी को न सिर्फ़ पूरे आत्मबल से जिया, बल्कि उसे ही अपनी रचनात्मक सफलता की आधारशिला बना लिया। 

राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने अपनी बात रखते हुए कहा, जब मैंने पहली बार इस किताब की पांडुलिपि देखी तो लगा कि शायद यह किसी बुजुर्ग महिला की आत्मकथा होगी। लेकिन जब सीमा जी से परिचय हुआ तो यह स्पष्ट हो गया कि यह लेखनी एक जीवंत और सतत सजग नारी का आत्मकथ्य है, जिसने रंगमंच और जीवन को बेहद करीब से जिया है। यह किताब सीमा कपूर की अपनी ज़िन्दगी की कहानी के साथ-साथ भारतीय रंगमंच का भी इतिहास है। क्योंकि उनका पूरा परिवार थियेटर से जुड़ा रहा है और उन्होंने अपने बचपन से लेकर एक लंबा वक़्त पारसी थियेटर कंपनी के साथ बिताया है। 

उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में सिनेमा से जुड़ी हस्तियों द्वारा हिन्दी में अपनी आत्मकथाएँ लिखने का जो सिलसिला शुरु हुआ है, वह समूचे हिन्दी समाज के लिए एक सकारात्मक संकेत है। इससे पाठकों को इन कलाकारों के जीवन के अनछुए पहलुओं को जानने-समझने का मौका तो मिलता है, साथ ही यह हिन्दी भाषा को सृजनात्मक अभिव्यक्ति को भी एक नया विस्तार देता है।

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