नई दिल्ली- राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (एनसीएससी) के अध्यक्ष किशोर मकवाना ने ईसाई और इस्लाम धर्म में धर्मांतरित दलितों को अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा देने का कड़ा विरोध किया है। यह बयान ऐसे समय में आया है जब केंद्र सरकार ने इसी मुद्दे की जांच कर रहे एक उच्च-स्तरीय आयोग का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया है।
धार्मिक धर्मांतरण करने वालों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने पर विचार कर रहे बालकृष्णन आयोग के कार्यकाल को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया है। यह विस्तार आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट को पूरा करने के लिए अधिक समय की मांग के बाद 1 नवंबर को जारी अधिसूचना के माध्यम से दिया गया।
हालिया अधिसूचना के अनुसार, आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत करने की नई समय-सीमा 10 अक्टूबर 2025 है। 6 अक्टूबर 2022 को स्थापित यह आयोग, 1952 के जांच आयोग अधिनियम के तहत कार्य करता है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में अक्टूबर 2022 में गठित जांच आयोग को धर्मांतरित दलितों को एससी का दर्जा देने पर व्यापक अध्ययन का काम सौंपा गया था। आयोग को धर्मांतरित दलितों को एससी दर्जा देने के प्रभावों की जांच, उनकी रीति-रिवाजों, परंपराओं और सामाजिक स्थिति में आए बदलावों का अध्ययन और उनकी वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करने का कार्य दिया गया है। पिछले दो वर्ष में आयोग ने समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, धार्मिक नेताओं और प्रभावित समुदायों के प्रतिनिधियों से व्यापक विचार-विमर्श किया है।
संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के अनुच्छेद 341 के तहत वर्तमान कानूनी ढांचा केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों को एससी का दर्जा देने की अनुमति देता है। यह सीमा दशकों से बहस का विषय रही है।
टीएनआईई की एक रिपोर्ट के मुताबिक एनसीएससी अध्यक्ष मकवाना ने प्रस्तावित विस्तार का कड़ा विरोध करते हुए कहा कि आरक्षण व्यवस्था मूल रूप से हिंदू समाज में जाति और अस्पृश्यता पर आधारित है। उनका तर्क है कि जब व्यक्ति अन्य धर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं, तो वे हिंदू सामाजिक संरचना का हिस्सा नहीं रह जाते, जिससे वे एससी दर्जे के लिए अयोग्य हो जाते हैं। मकवाना ने एससी समुदायों को वर्तमान में उपलब्ध लाभों को कमजोर करने और पुणे समझौते तथा डॉ. बी.आर. अंबेडकर की विरासत को कमजोर करने की चिंता भी व्यक्त की।
मकवाना का बयान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बालकृष्णन आयोग का कार्यकाल अक्टूबर 2024 तक बढ़ाने के सरकार के फैसले के साथ मेल खाता है। सामाजिक न्याय और धार्मिक परिवर्तन पर चल रही राष्ट्रीय बहस को देखते हुए आयोग का काम और भी महत्वपूर्ण हो गया है। आयोग के काम से परिचित सूत्रों का कहना है कि यह मुद्दे की व्यापक समझ सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न हितधारकों के बयानों और साक्ष्यों को बारीकी से दर्ज कर रहा है।
इस मुद्दे के राजनीतिक आयाम जटिल बने हुए हैं। सत्तारूढ़ भाजपा ईसाई और मुस्लिम धर्मांतरितों को एससी दर्जा देने का विरोध कर रही है। वहीं विभिन्न दलित संगठन अधिक समावेशी एससी दर्जे के मानदंडों की वकालत करते रहे हैं। उनका तर्क है कि धार्मिक परिवर्तन इन समुदायों के सामने आने वाली सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों को नहीं मिटाता।
ऐतिहासिक रूप से पिछली सरकारों ने इस मुद्दे की जांच के लिए कई समितियां गठित की हैं, लेकिन ठोस नीतिगत बदलाव नहीं हो पाए हैं। बालकृष्णन आयोग का बढ़ा हुआ कार्यकाल इस जटिल मुद्दे की गहन जांच का अवसर प्रदान करता है, हालांकि एनसीएससी के दृढ़ विरोध से संकेत मिलता है कि आम सहमति बनाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
बालकृष्णन आयोग: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
केंद्र सरकार ने 2022 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण आयोग का गठन किया। इस तीन सदस्यीय आयोग में सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी डॉ. रवींद्र कुमार जैन और यूजीसी सदस्य प्रोफेसर सुषमा यादव भी शामिल हैं। आयोग को दो वर्ष में अपनी रिपोर्ट सौंपने का कार्य दिया गया है।
आयोग का मुख्य उद्देश्य यह जांचना है कि क्या हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों में परिवर्तित दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है। आयोग धर्मांतरण के बाद दलितों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति में आए बदलावों का अध्ययन करेगा। इसमें उनकी परंपराओं, रीति-रिवाजों और भेदभाव की स्थिति का विस्तृत विश्लेषण किया जाएगा।
वर्तमान में, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के तहत केवल हिंदू, सिख और बौद्ध समुदायों को ही एससी का दर्जा प्राप्त है। शुरू में यह आदेश केवल हिंदू समुदाय तक सीमित था, बाद में 1956 में सिख और 1990 में बौद्ध समुदाय को इसमें शामिल किया गया।
1990 के बाद से मुस्लिम और ईसाई दलितों को एससी का दर्जा देने के लिए कई प्रयास किए गए। संसद में कई निजी विधेयक पेश किए गए और 1996 में एक सरकारी विधेयक भी तैयार किया गया, लेकिन मतभेदों के कारण इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका। मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने इस मुद्दे पर दो महत्वपूर्ण समितियां गठित कीं - रंगनाथ मिश्रा आयोग (2004) और राजिंदर सच्चर समिति (2005)।
रंगनाथ मिश्रा आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि एससी दर्जे को धर्म से पूरी तरह अलग कर दिया जाए और इसे अनुसूचित जनजातियों की तरह धर्म-निरपेक्ष बनाया जाए। सच्चर समिति ने पाया कि धर्मांतरण के बाद भी दलित मुसलमानों और ईसाइयों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। 2011 में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामों में दलित मुस्लिमों और ईसाइयों को एससी का दर्जा देने की सिफारिश की।
बालकृष्णन आयोग भारत के सामाजिक न्याय ढांचे के लिए एक ऐतिहासिक कदम है। यह पहली बार है जब जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत इस जटिल मुद्दे की जांच की जा रही है। आयोग की सिफारिशें न केवल एससी दर्जे के प्रश्न को प्रभावित करेंगी, बल्कि आधुनिक भारत में जाति, धर्म और संवैधानिक अधिकारों के संबंध पर व्यापक चर्चा को भी प्रभावित करेंगी।