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"मूर्तियों में नहीं, अंबेडकर को किताबों में ढूंढो": प्रो. रतन लाल ने पूछा- विश्वविद्यालयों में हमारी हिस्सेदारी क्यों नहीं?

भोपाल- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित एक संगोष्ठी में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल ने दलित समुदाय की वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर गहन चिंता जताई। उन्होंने कहा कि आरक्षण मिलना एक लंबी लड़ाई का नतीजा था, लेकिन अब समाज को शिक्षा, शोध और बौद्धिक विमर्श पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, न कि सिर्फ चुनावी सत्ता के सपने देखने की। प्रोफेसर रतन लाल डोमा परिसंघ की प्रांतीय कार्यकारिणी की बैठक और एक परिचर्चा में ' आरक्षित वर्ग का निर्माण, वर्तमान में उनकी भूमिका' विषय पर बोल रहे थे।

उन्होंने दलित समुदाय की ऐतिहासिक यात्रा, डॉ. भीमराव अंबेडकर की विरासत, आरक्षण की नींव, और वर्तमान में दलित मध्यवर्ग की चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की। प्रोफेसर लाल ने समाज को चेताया कि अमीर भारत में शिक्षा और नौकरियों जैसे अधिकार छीने जा रहे हैं, और दलित समाज को अब केवल सत्ता और चुनावी राजनीति के बजाय शिक्षा, शोध और बौद्धिक विमर्श पर ध्यान देना होगा। उन्होंने अंबेडकर के व्यावहारिक दर्शन को अपनाने और अनरियलिस्टिक सपनों से बचने की अपील की।

प्रोफेसर रतन लाल ने अपने संबोधन में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य की ओर ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, "बाबासाहेब आंबेडकर लगातार कहते थे कि हम राष्ट्रीय जीवन में अल्पसंख्यक हैं। जिस तरह मुस्लिम और सिख अल्पसंख्यक हैं, वैसे ही हम हैं। इसीलिए संवैधानिक सुरक्षा के उपायों की जरूरत है। आपको आरक्षण अल्पसंख्यक के दर्जे की मांग के आधार पर मिला है या बहुसंख्यक होने के दावे पर? यह सोचने की बात है।" उन्होंने आगे कहा कि अब यह दावा करना कि 'हम हुक्मरान बन जाएंगे' एक अवास्तविक सपना है। संसद में सिर्फ 131 और विधानसभाओं में सीमित सीटें हैं, ऐसे में सब कुछ छीना क्यों जा रहा है, यह सवाल विमर्श में नहीं है।

आरक्षित वर्ग का निर्माण: एक कठिन ऐतिहासिक यात्रा

प्रोफेसर रतन लाल ने अपने भाषण की शुरुआत में स्पष्ट किया कि आरक्षित वर्ग का निर्माण कोई आसान प्रक्रिया नहीं थी। उन्होंने 1919 में साउथ बोरो कमेटी को दिए गए डॉ. अंबेडकर के पहले मेमोरेंडम का जिक्र किया, जिसमें शिक्षा और नौकरी को दलित समाज के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बताया गया था। उस समय पूरे बॉम्बे प्रोविंस में एक भी शेड्यूल कास्ट ग्रेजुएट नहीं था। साइमन कमीशन, राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस और इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के गठन के दौरान भी अंबेडकर ने शिक्षा के सवाल को बार-बार उठाया। उन्होंने 'ग्रिवेंसेस ऑफ शेड्यूल्ड कास्ट' में आंकड़े पेश किए कि 1056 आईसीएस अधिकारियों में सिर्फ एक शेड्यूल कास्ट का था, और सीपीडब्ल्यूडी के ठेकेदारों में भी सिर्फ एक। उस दौर में तीन सिपाही की नौकरी लगना भी उत्सव का कारण होता था।

प्रोफेसर लाल ने जोर दिया कि दलितों ने खुद को राष्ट्रीय जीवन में अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी) के रूप में प्रस्तुत किया, जैसा कि मुस्लिम और सिख समुदायों ने किया। 1942-44 तक अल्पसंख्यक दर्जे की मांग थी, और इसी आधार पर संवैधानिक सुरक्षा और आरक्षण की मांग की गई। उन्होंने सवाल उठाया, "आपको आरक्षण अल्पसंख्यक के नाम पर मिला है या बहुसंख्यक के नाम पर? जरा सोचिए।"

अंबेडकर दर्शन व्यावहारिक; दबाव बनाना होगा

प्रोफेसर लाल ने अंबेडकर के दर्शन को व्यावहारिक (प्रगमेटिज्म) बताया, जो उनके गुरु जॉन डेवी (कोलंबिया यूनिवर्सिटी) से प्रभावित था। 1916 में 24 साल की उम्र में अंबेडकर ने बॉम्बे क्रॉनिकल में पहला आर्टिकल लिखा, जिसमें फिरोजशाह मेहता के बस्ट के बजाय पब्लिक लाइब्रेरी बनाने की वकालत की। उन्होंने बुद्ध, कबीर और फुले से प्रेरणा ली, लेकिन अनरियलिस्टिक सपने नहीं देखे। अंबेडकर याचक थे, जो वायसराय, कांग्रेस और सरकार से लगातार मांगते रहे। 1948 के लखनऊ भाषण में उन्होंने पृथक निर्वाचन, विधानमंडल में आरक्षण और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की, लेकिन केवल आंशिक सफलता मिली। प्रोफेसर ने कहा कि, "अंबेडकर ने बार-बार कहा कि दबाव बनाना होगा, अधिकार मांगते रहना होगा।" उन्होंने उदाहरण दिया कि संविधान सभा में आरक्षण पर कोई डिबेट नहीं हुई, क्योंकि राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू सहित सभी को ऐतिहासिक अन्याय का कंसेंसस था। लेकिन आज समाज उलट गया है, जहां मांगने के बजाय 'देने वाला' बनने का दावा किया जा रहा है। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, "क्या देंगे? विश्वविद्यालय, ब्यूरोक्रेसी, शेयर मार्केट, फॉरेन पॉलिसी में हमारा शेयर नहीं।"

गरीब भारत में मिली सुविधाएं, अमीर भारत में छीना जा रहा हक

प्रोफेसर लाल ने दलित मध्यवर्ग के उदय को मॉडर्निज्म, इंडस्ट्रलाइजेशन और कॉलोनिज्म का बाय-प्रोडक्ट बताया। 19वीं सदी में अर्बन सेंटर्स और फैक्ट्रीज से मध्यवर्ग बना, जिसमें दलित भी शामिल हुए। उन्होंने कहा, "मार्क्सिस्ट टर्म में, जिसका बुर्जुआ नहीं, मध्यवर्ग नहीं, वह कुछ नहीं बन सकता। थिंक टैंक, ब्यूरोक्रेट, राइटर, जर्नलिस्ट, एकेडमिशियन सब मध्यवर्ग से आते हैं।" गरीब भारत में सरकारी स्कूल-कॉलेज में एक-दो आने की फीस थी, स्टाइपेंड और फेलोशिप मिलती थी।

इंदिरा गांधी ने 1973 में सभी सीएम को चिट्ठी लिखी कि हरिजनों पर अत्याचार रोकने के लिए सेल बनाएं और पब्लिक सेक्टर में पूर्ण नियुक्तियां करें। बैंक नेशनलाइजेशन से दलित अधिकारी बने, लैंड रिफॉर्म से पट्टे मिले। राजीव गांधी ने स्पेशल रिक्रूटमेंट ड्राइव चलाई, नवोदय विद्यालय खोले जहां मुफ्त पढ़ाई हुई। पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी में आरक्षण से करोड़ों की कमाई हुई। ओएनजीसी जैसे पब्लिक सेक्टर में कर्मचारी 3000 से बढ़कर 21000 हुए, जिसमें 7500 एससी-एसटी-ओबीसी हैं, और औसत 1 लाख सैलरी से सालाना 100 करोड़ रुपये उनके घरों में जा रहे। दो जनरेशन पहले झोपड़ियां थीं, अब टीचर बनने से घर चल रहे। लेकिन अब अमीर भारत में यह सब छीना जा रहा है। सरकारी स्कूल-कॉलेज बंद हो रहे, गुणवत्ता खराब हो रही, और निजी शिक्षा इतनी महंगी कि पहुंच से बाहर है। प्राइवेट पाइपलाइन से गैस-पेट्रोल की बिक्री खत्म हो रही, और प्राइवेटाइजेशन से नौकरियां कम हो रही हैं।

दलित मध्यवर्ग की कमजोरियां और व्यक्तिगत मुक्ति की चाहत

प्रोफेसर ने दलित मध्यवर्ग की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा, "हमारे आंदोलनों में अरबों-खरबों रुपये खर्च हुए, लेकिन क्या एक गंभीर शोध, किताब, आर्टिकल या बच्चे को विदेश पढ़ाने पर खर्च हुआ? हमारे बच्चे रिसर्चर क्यों नहीं बन रहे? पीएचडी, हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड क्यों नहीं जा रहे?" उन्होंने अपने अनुभव साझा किए कि बिहार के एक छोटे गांव से पढ़कर विश्वविद्यालय पहुंचे, लेकिन विश्वविद्यालयों में दलितों की एंट्री बंद क्यों थी, यह सवाल उठाने की जरूरत है।

प्रोटोकॉल वाली नौकरियां (डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, ब्यूरोक्रेट) क्रांति नहीं लातीं, क्योंकि वे सिस्टम के हिस्सा हैं। पब्लिक डिस्कोर्स, आर्थिक और सांस्कृतिक नीतियों पर सवाल अकादमिया से उठेंगे। उन्होंने दलित नेताओं की आलोचना की, जो व्यक्तिगत मुक्ति चाहते हैं - "मंत्री बना दो, बेटे को सीएम-पीएम बना दो।" कोई सामूहिक मेनिफेस्टो नहीं बनाया। उन्होंने हैदराबाद के एक ओबीसी प्रोग्राम का जिक्र किया, जहां वीपी सिंह और अर्जुन सिंह को थैंक यू नहीं कहा गया। "हम थैंकलेस पीपल हैं, कोई कुछ दे तो शुक्रिया, नहीं तो सब शत्रु हैं।" अंबेडकर वायसराय, नेहरू, गांधी से मिलते थे, अपशब्द नहीं बोलते थे।

अंबेडकर होते तो माथा पीट लेते...


प्रोफेसर ने अंबेडकर की विरासत को किताबों और विचारों में ढूंढने की सलाह दी, न कि मूर्तियों में। उन्होंने कहा, "विजयवाड़ा, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया में सबसे बड़ी मूर्तियां बन रही हैं, लेकिन अंबेडकर होते तो माथा पीट लेते।" अंबेडकर ने भक्ति को तानाशाही का मार्ग बताया, लेकिन समाज उलट दिशा में जा रहा। उनकी किताब 'धर्मांतरण: अंबेडकर की धम्म यात्रा' में 15,000 पेज की राइटिंग्स से 450 पेज छांटे गए, और 50-60 पेज का परिचय लिखा।

उन्होंने कहा कि जिन्होंने अंबेडकर की राजनीतिक विरासत ली, उन्होंने सांस्कृतिक विरासत (धम्म, शोध, किताबें) को नजरअंदाज किया। 1948 के लखनऊ भाषण में अंबेडकर ने 'एक दल, एक नेता, एक कार्यक्रम' की बात की, लेकिन आज दल-नेता कहां हैं? वर्तमान दलित राजनीति अंबेडकर के विचारों के विपरीत है। उन्होंने 2018-19 के रोस्टर आंदोलन का उदाहरण दिया, जहां 10-20 लोगों ने चंदे से सुप्रीम कोर्ट के 13-पॉइंट रोस्टर को हटवाकर 200-पॉइंट रोस्टर लागू कराया। लेकिन समाज ने थैंक यू नहीं कहा। राहुल गांधी को सात पॉइंट का दलित इमेनसिपेशन मेनिफेस्टो दिया, जो शिक्षा पर केंद्रित था, लेकिन विमर्श में शिक्षा गायब है।

प्रोफेसर ने जगजीवन राम, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं के योगदान को याद किया। 1957 में जगजीवन राम ने रेलवे में रिजर्वेशन इन प्रमोशन लागू किया। 1966 में वे इंदिरा गांधी को समर्थन देकर पीएम बनवाए, लेकिन 1977 में जयप्रकाश नारायण ने उनके नाम पर जीता चुनाव होने के बावजूद मोरारजी देसाई को पीएम बनाया। इमरजेंसी को दलितों के लिए गोल्डन पीरियड बताया, क्योंकि लाखों भर्तियां हुईं। लेकिन समाज ने इन्हें 'मनुवादी' या 'चमचा' कहकर नकार दिया। उन्होंने कहा, "पढ़े-लिखे ने धोखा दिया। चंदा मध्यमवर्ग से आया, लेकिन नौकरी करने वाले गाली देते हैं।" यूपीए को सपोर्ट दिया, लेकिन एक भी सामाजिक एजेंडा लागू नहीं हुआ। भोपाल डॉक्यूमेंट में 30% सरकारी खरीद में आरक्षण को भी खराब माना गया।

प्रोफेसर रतन लाल ने कहा," दलित समाज को बिना सोशल-पॉलिटिकल अलायंस के कुछ हासिल नहीं होगा। प्राइवेटाइजेशन, वोट चोरी, और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर नेताओं की चुप्पी चिंताजनक है। अग्निवीर भर्ती में लाखों बेरोजगारों की भीड़ इसका सबूत है।" उन्होंने समाज को प्रेशर पॉलिटिक्स अपनाने की सलाह दी, जैसा अंबेडकर ने किया। शिक्षा और रोजगार को मुद्दा बनाना होगा। "खाली इलेक्शन सवाल है, लेकिन ताकत रखो कि सरकार को झुका दो।"

उन्होंने दलित कार्यक्रमों में शिक्षा पर सेमिनार की कमी पर सवाल उठाया और अपनी किताबों ('बाबा साहब और शिक्षा', 'अंबेडकर और संसदीय लोकतंत्र') के जरिए समाज को जागरूक करने की बात कही। अंत में, उन्होंने चेतावनी दी कि अमीर भारत में जब बमबारी होगी, तो कोई घर सुरक्षित नहीं रहेगा। समाज को आत्म-मूल्यांकन कर शिक्षा और शोध पर ध्यान देना होगा, तभी अंबेडकर की विरासत को सही मायने में जीवित रखा जा सकेगा।

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