पश्चिम बंगाल — पूर्वी बर्दवान जिले के गिड़ाग्राम गांव के 130 दलित परिवारों के लिए 13 मार्च 2025 का दिन ऐतिहासिक बन गया। पहली बार, 300 वर्षों की प्रतीक्षा के बाद, वे अपने ही गांव के गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश कर सके। यह अवसर भारी पुलिस सुरक्षा में हुआ, लेकिन यह घटना सदियों पुराने जातीय भेदभाव पर एक प्रतीकात्मक विराम की तरह थी।
हालांकि, खुशी का यह पल ज्यादा देर टिक नहीं सका। फ्रंटलाइन द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, मंदिर प्रवेश के बाद दलित परिवारों को गांव के एक प्रभावशाली वर्ग द्वारा सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। दो महीने बाद गांव का दौरा करने पर पाया गया कि सतह पर भले ही एक अनमना-सा स्वीकार दिखता है, लेकिन अंदर ही अंदर गहरा तनाव अब भी कायम है — जो बंगाल की उस छवि को तोड़ता है जिसमें वह खुद को एक ‘अजाती’ समाज के रूप में प्रस्तुत करता रहा है।
जीत, लेकिन भारी कीमत पर
गिड़ेश्वर मंदिर, दास पाड़ा से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित है, जहां दलित (मुख्यतः दास उपजाति) परिवार रहते हैं। करीब 2000 परिवारों वाले गिड़ाग्राम में केवल इन 130 दलित परिवारों को मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था — यह भेदभाव पीढ़ियों से चला आ रहा था। कई बैठकों, प्रशासन के हस्तक्षेप और स्थानीय सहमति के बाद, आखिरकार 13 मार्च को पांच दलितों ने भारी पुलिस सुरक्षा में मंदिर में प्रवेश कर भगवान की पूजा की।
लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसके बाद जबरदस्त प्रतिकूल प्रतिक्रिया सामने आई। लगभग एक महीने तक दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार हुआ। गांव के प्रभावशाली वर्ग ने उनके खिलाफ आर्थिक बहिष्कार का भी आह्वान किया।
एक निवासी ने कहा, “मंदिर में प्रवेश की हमारी खुशी, बहिष्कार ने छीन ली। हालांकि अब स्थिति थोड़ी बेहतर हो रही है और लोग हमें मंदिर में स्वीकार करने लगे हैं, लेकिन दिल का दर्द तो बाकी ही है।”
दबी हुई टीस
दास समुदाय का कहना है कि उन्हें बाकी सामाजिक मामलों में कभी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा — वे शादियों में शामिल होते थे, मेहमानों को बुलाते थे, और दूसरे समुदायों से अच्छे संबंध रखते थे। लेकिन जब बात मंदिर की आती, तो उन्हें अछूत समझा जाता। सुकांता दास ने कहा, “अब जब हम मंदिर में जा पाए हैं, हमें एक नई आत्मसम्मान की भावना मिली है। ऐसा लगता है जैसे हमारी किस्मत पलट गई हो।”
समुदाय के वरिष्ठ सदस्य, दिनबंधु दास ने कहा, “पहले हमारे लड़के-लड़कियों में हिम्मत की कमी थी, लेकिन इस लड़ाई के बाद उनमें नया साहस आया है।” हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि मंदिर प्रवेश की मांग उठने के बाद रिश्तों में खटास आई, और पुलिस सुरक्षा में प्रवेश ने इसे और बिगाड़ दिया।
संयम से निभा रहे दलित परिवार
हालांकि दलित परिवार सार्वजनिक रूप से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि अब सब सामान्य हो रहा है, लेकिन भीतर की पीड़ा अक्सर छलक पड़ती है। द्युति राम दास, जिनकी दो बेटियां मंदिर में प्रवेश करने वाली पहली दलित महिलाओं में थीं, बताती हैं, “शुरुआत में तो ऊँची जाति की महिलाएं मंदिर जाना ही छोड़ गई थीं, लेकिन अब वे लौट आई हैं, और हमारी बेटियों से हँस-हँसकर बातें करती हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो।” मगर मिथु दास मानती हैं कि कई महिलाएं अब भी मंदिर में जाने से कतराती हैं।
उन्होंने कहा, “हम चाहते हैं कि ये समस्याएं खत्म हों और हम सब पहले की तरह शांति से साथ रहें।”
तनाव न बढ़े, इसलिए एहतियात
गांव में तनाव न बढ़े, इसलिए दलित समुदाय ने खुद ही नियम बना लिए हैं — भले ही उनके पास पूरा अधिकार हो, वे सुनिश्चित करते हैं कि एक बार में केवल दो महिलाएं ही मंदिर में जाएं। एक महिला ने कहा, “हम जानते हैं लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इसलिए ज्यादा भीड़ नहीं करते। लोग पहले से ही नाराज़ हैं, इससे और आग में घी पड़ेगा।” उन्होंने मंदिर के सामने फोटो खिंचवाने से भी इनकार कर दिया।
हालांकि कभी-कभी दबे-छुपे धमकी भरे शब्द सुनने को मिल जाते हैं। एक स्थानीय निवासी ने बताया, “कई बार सुनते हैं, ‘अभी सरकार की वजह से घुस पाए हो, सरकार बदलेगी तब देखेंगे।’”
परंपरा बनाम बराबरी की टकराहट
गांव की हर आवाज दलितों के पक्ष में नहीं है। मंदिर के पास बैठे कुछ पुरुषों ने नाराज़गी खुलकर दिखाई। एक स्थानीय ने तंज कसा, “अब क्या फायदा कुछ कहने का, वे तो पुलिस के सहारे घुस ही गए। हमारी 400 साल की परंपरा का क्या होगा?” इस साल मंदिर का सबसे बड़ा त्योहार भी, जो हर अप्रैल में मनाया जाता था, पहली बार नहीं मनाया गया।
कई ग्रामीणों का मानना है कि दास समुदाय परंपरागत रूप से पशुओं की खाल का काम करता था, इसलिए उन्हें मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया। “यह सभी एससी या ओबीसी का मामला नहीं है, केवल दासों का है,” एक प्रामाणिक (नाई जाति) उपनाम वाले ग्रामीण ने बताया, लेकिन अपनी राय देने से बचते रहे।
बंगाल की ‘अजाति’ छवि पर सवाल
यह घटनाक्रम बंगाल में जातिगत सच्चाई को उजागर करता है। प्रख्यात समाजशास्त्री सुरजीत सी. मुखोपाध्याय कहते हैं, “बाहर से लोगों को लगता है कि बंगाल में जातिवाद नहीं है, क्योंकि सारी जानकारी कोलकाता के इर्द-गिर्द केंद्रित रहती है। लेकिन गांवों की हकीकत अलग है।”
मुखोपाध्याय ने कहा कि बंगाल का सुधार आंदोलन — राजा राममोहन राय, विद्यासागर, और बाद में वामपंथी आंदोलन — अपेक्षाकृत नया है, जबकि जातिगत ढांचे सदियों पुराने हैं। उन्होंने कहा, “गिड़ाग्राम की घटना बंगाल की सामाजिक-राजनीतिक सच्चाई को दिखाती है।”
दूसरे गांवों में भी बनी प्रेरणा
सीपीआई (एम) के वरिष्ठ नेता तमाल मांझी के मुताबिक, गिड़ाग्राम के दास समुदाय की लड़ाई ने अन्य गांवों को भी प्रेरित किया। मांझी ने कहा, “इसके बाद केतुग्राम और देवग्राम में भी दलित समुदाय ने मंदिर प्रवेश का अधिकार पाया। कुछ जगह बिना झगड़े के, कुछ जगह कोर्ट के आदेश से।”
दास पाड़ा के लोगों के लिए यह लंबा और अपमानजनक सफर रहा, लेकिन उन्होंने आखिरकार अपने लिए वह बुनियादी गरिमा हासिल कर ली, जिसकी वे हकदार थे। उनके संघर्ष ने भले ही गांव के एक हिस्से को उनसे दूर कर दिया हो, पर वे आश्वस्त हैं कि एक दिन उनका विरोध करने वाले भी अपनी सोच की गलती समझ जाएंगे।
एक बुजुर्ग ने विश्वास के साथ कहा, “हम जानते हैं, एक दिन वे समझेंगे कि यह परंपरा को खत्म करना नहीं, बल्कि न्याय को बहाल करना था।”