'दलित' शब्द कहाँ से आया? खैरलांजी से तंजावुर तक... "जाति-बदलते परिपेक्ष्य" किताब वो सच बताती है जिसे आप जानना चाहेंगे!

09:24 AM Nov 03, 2025 | Rajan Chaudhary

भारत में, आज़ादी के बाद से अबतक किस तरह से जाति-व्यवस्था, भेदभाव और छुआछुत परिवर्तन के दौर से गुजरी इसके बारे में सुरिन्दर सिंह जोधका अपनी किताब "जाति-बदलते परिपेक्ष्य" में बड़ी जिम्मेदारी से जाति-समुदायों पर हुए कई रिसर्चों, निष्कर्षों का उल्लेख करते हुए बताते हैं।

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित "जाति-बदलते परिपेक्ष्य" क़िताब में भारतीय जातियों, ख़ासकर दलित वर्ग के बारे में अनेकों तथ्य पेश किए गए हैं। इन तथ्यों में कुछ भारतीयों द्वारा जाति पर किये गए शोधों, रिपोर्टों व कुछ विदेशियों द्वारा प्राप्त किये गए निष्कर्षों को जस का तस शामिल किया गया है।

सुरिन्दर सिंह द्वारा लिखी गई क़िताब "जाति-बदलते परिपेक्ष्य" मूल रूप से Oxford India Short Introductions Series में प्रकाशित "CASTE" से पत्रकार जितेन्द्र कुमार द्वारा हिंदी भाषा में अनुदित किया गया है।

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जाति पर आधारित यह क़िताब ज्यादातर "दलित" वर्ग के ही इर्दगिर्द घूमती है। हालांकि, इसे पढ़ते हुए कभी दलितों के बारे में बताए गए निष्कर्ष आपके दिमाग में उथल-पुथल मचा देते हैं तो कुछ हिस्सों में ऐसी चीजें पढ़ने को मिलती हैं जिसे हम महसूस कर सकते हैं या आज के दौर में अपने आसपास देख हैं। लेखक पूरी शिद्दत से क़िताब में भारतीय जाति-समुदायों खासकर तत्कालीन अछूत जातियों के बारे में समाजशास्त्रियों, मानवविज्ञानियों द्वारा किये गए सर्वोक्षणों व ज़मीन पर दिखने वाली सच्चाई को उजागर भी करते हैं।

पूरे यकीन से तो नहीं कह सकता कि क़िताब में शामिल किये गए प्रत्येक तथ्यों को लेकर आप सहमत होंगे, कुछ हिस्सों पर आप असहमत भी हो सकते हैं।

किताब में शामिल शास्त्रीय ड्यूमॉन्टियन समाजशास्त्र के अनुसार, जाति एक धार्मिक विचारधारा पर आधारित एक एकीकृत प्रणाली थी, जिसने पदानुक्रमित सामाजिक व्यवस्था में पवित्रता और अशुद्धता के मूल्यों पर एक आम सहमति बनाई थी। जो लोग जाति पदानुक्रम के निचले पायदान पर थे वे पवित्रता और मलिनता के क्रम को बनाए रखने को लेकर उतने ही प्रतिबद्ध थे, जितना कि इस व्यवस्था के साथ अपनी हैसियत को लेकर व्यक्तिगत रूप से नाखुश थे, लेकिन वह इसे स्वीकार करते थे। इस व्यवस्था से बाहर निकलने का एकमात्र उपलब्ध विकल्प त्याग (संन्यास) यानी समुदाय और सामान्य 'सांसारिक जीवन' को छोड़ना था।

क़िताब के बारे में अपनी प्रस्तावना में सुरिन्दर सिंह लिखते हैं कि:

"1950 के दशक से, लोकतांत्रिक राजनीति के आर्थिक विकास और संस्थाकरण की प्रक्रिया ने जाति के संस्थागत चरित्र सहित भारतीय समाज के लगभग सभी पहलुओं को बदल दिया है। हालांकि, जाति की हकीकत निश्चित रूप से समाप्त नहीं हुई है। यद्यपि कुछ मामलों में जाति समूहों ने 'जाति संघों' और राजनीतिक समीकरणों के रूप में खुद को जोड़ लिया है, लेकिन उसे ऊंच-नीच और असमानता के रूप में अलग-अलग तरीकों से आज भी पेश किया जाता है। दूसरे शब्दों में, जाति जीवित है और कुलांचे मार रही है, वह न केवल पहचान के रूप में मौजूद है बल्कि कहीं विशेषाधिकार के रूप में है, तो कहीं नुकसान के रूप में भी। जाति के बारे में कई लोगों का यह भी तर्क है कि इसकी उपस्थिति समाप्त होने की बजाय सार्वजनिक रूप से लगातार बढ़ी है।"

वह आगे लिखते हैं कि, "जाति शोध के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और रुचिकर विषय बन गया है। समाजशास्त्रियों और सामाजिक नृविज्ञानियों के अलावा, इतिहासकार, राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री और यहां तक की रचनात्मक लेखकों ने भी जाति के विभिन्न आयामों पर बहुत कुछ लिखा है। वे विभिन्न प्रकार के वैचारिक ढांचे और राजनीतिक संवेदना से इस विषय पर काम करते रहे हैं। इन वर्षों में जाति लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण कारक बनकर उभरी है। सरकार की आरक्षण की नीति और समुदायों की राजनीतिक लामबंदी ने सामाजिक समकालीन भारत में जाति के मूल्य को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। आज जाति न सिर्फ विकासात्मक राज्य के लिए सार्वजनिक नीति (पब्लिक पॉलिसी) का एक महत्वपूर्ण तत्व हो गई है, बल्कि उन वैश्विक वित्त पोषण एजेंसियों और नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) समूहों के लिए भी महत्वपूर्ण कारक बन गई है जो गरीबी उन्मूलन के लिए काम कर रहे हैं।"

किताब कुछ अनकहे ऐतिहासिक पहलुओं पर भी बात करती है। जैसे- 'दलित' शब्द की उत्पत्ति महाराष्ट्र में राजनीतिक आंदोलनों में होने की बात कही गई है, जिसका अर्थ 'टूटा हुआ, जमीनी स्तर पर पतन का शिकार, या उत्पीड़ित' है। साथ ही यह भी बताया गया है कि, दलित शब्द का इस्तेमाल पहली बार उन्नीसवीं सदी के सुधारक ज्योतिबा फुले ने जाति उत्पीड़न के संदर्भ में किया था। इसके अलावा, अछूत, दलित और हरिजन शब्द कहां-कैसे अस्तित्व में आए, क़िताब इस बारे में ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करती है।

आज़ादी के पूर्व के भारत में दलितों की स्थिति पर यह किताब कुछ ऐसी बताती है कि, उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में ग्रामीण बस्तियों को इस तरह से बसाया गया था कि अछूत जाति समुदाय के लोग मुख्य बस्तियों से दूर रहते थे। ऐसा तब था जब उनकी सेवाओं की आवश्यकता गांव समुदाय को होती थी। ग्राम समुदाय से उनके अलगाव और कमतर माने जाने वाले कामों से जुड़े उनके रोजगार के कारण वे सामाजिक स्थितियों में दयनीय और अपमानजनक जीवन जीते थे।

आजादी के आसपास, किताब बताती है कि कैसे भारत में जाति व्यवस्था ने अछूतों को हमेशा अलग-थलग बनाए रखा भले ही वह परंपरागत अपनी पहचान के कार्यों में बहुत कम समय के लिए ही जुड़े थे। इसे ऐसे समझाया गया है कि, अधिकांश ग्रामीण भारत में अछूतों का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय कृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा था और खेतिहर मजदूर के रूप में काम करता था। लेकिन जाति व्यवस्था का कार्य उन्हें हमेशा विभाजित रखा। जैसे वह भले ही कम समय के लिए ही चमड़े से जुड़े काम में शामिल रहें हों इसी कम समय के काम के आधार पर ही सामाजिक स्तर पर उनकी पहचान निर्धारित कर दी गई कि यह अछूत हैं, और जातीय क्रम में सबसे निचले पायदान पर आते हैं।

किताब में हम पढ़ते हैं कि, कैसे हर जाति के पास अपनी उत्पत्ति के बारे में बताने के लिए कहानी है, जो जाति विभाजन को बरकरार रखे हुए है।

समय के साथ बदलते छुआछूत के स्वरूप के बारे में यह किताब बताती है कि, आई.पी. देसाई के गुजरात सर्वेक्षण के 25 साल से अधिक समय के बाद, 2001- 02 के दौरान देश के 11 राज्यों की ग्रामीण बसाहटों में किए गए एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण में पाया गया कि जाति की जमीनी हकीकत यकीनन बदलते रहने के बावजूद, छुआछूत का चलन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि शायद, अछूतों के बड़े हिस्से के सामाजिक और आर्थिक हालात में कोई बड़ी राहत नहीं आई है। सर्वेक्षण ने बताया कि-

छुआछूत पूरे ग्रामीण भारत में न सिर्फ मौजूद है, बल्कि नई सामाजिक-आर्थिक हकीकतों के मुताबिक ढलकर यह खुद को बचाने में सक्षम है और नए व ज्यादा गुपचुप रूप ग्रहण कर रहा है।

क़िताब भारतीय इतिहास में ज्ञात अछूतों पर हुए जातिगत क्रूर अत्याचारों का क्रमवार ब्यौर भी देती है। जिसमें प्रभावशाली जातियों द्वारा 1968 में तमिलनाडु के तंजावुर जिले में 42 दलितों को जिंदा जलाकर मारने से लेकर 2006 में महाराष्ट्र के खैरलांजी में दलित किसान के पूरे परिवार की हत्या का विवरण शामिल है। साथ ही इसमें यह भी जानकारी मिलती कि कैसे मतभिन्नता, रंग और नस्ल के आधार पर भेदभाव झेल रहे दलित समुदाय की आवाज़ लोकल स्तर से लेकर अब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़बूती से रखी जाने लगी है। इसपर चर्चाएं, अध्ययन और गहन विचार-विमर्श शुरू हो चुके हैं।

कौन हैं "जाति-बदलते परिपेक्ष्य" के लेखक सुरिन्दर सिंह जोधका?

सुरिन्दर सिंह जोधका सामाजिक अध्ययन केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकें 'द ऑक्सफ़ोर्ड हैंडबुक ऑफ़ कास्ट' (ज्यूल्स नॉडेट के साथ सह-सम्पादित), 'द इंडियन विलेज : रूरल लाइव्स इन द 21 सेंचुरी', 'एग्रेरियन चेंजेज़ इन इंडिया' (सं.), 'द इंडियन मिडिल क्लास' (असीम प्रकाश के साथ सह-लेखन), 'कास्ट इन कंटेम्पररी इंडिया' आदि हैं। उन्हें भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के 'अमर्त्य सेन सम्मान' से सम्मानित किया जा चुका है।