बहुजन विरोध: कॉलेजियम प्रणाली क्या है? क्यों इससे ‘अंकल जज सिंड्रोम’ का खतरा?

01:48 AM May 27, 2025 | Geetha Sunil Pillai

नई दिल्ली- भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण को नियंत्रित करने वाली कॉलेजियम प्रणाली दशकों से चर्चा और विवाद का केंद्र रही है। यह प्रणाली, जो संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों, विशेष रूप से तीन जज मामलों (Three Judges Cases), के माध्यम से विकसित हुई है, न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाई गई थी।

हालांकि, इसकी अपारदर्शिता, जवाबदेही की कमी और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने के कारण इसे व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ता है। विशेष रूप से, बहुजन समुदाय—अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अल्पसंख्यक—इसका विरोध करते हैं, क्योंकि यह उच्च जातियों के वर्चस्व को कायम रखती है और सामाजिक विविधता को हाशिए पर धकेलती है। इसके साथ ही, ‘अंकल जज सिंड्रोम’ जैसे आरोप, जिसमें परिवारवाद और नेटवर्किंग के आधार पर नियुक्तियां होने का दावा किया जाता है, इस प्रणाली की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं।

हाल ही में, 26 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने तीन नए न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश की है।

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कॉलेजियम प्रणाली क्या है?

कॉलेजियम प्रणाली भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए एक तंत्र है। यह संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 में "परामर्श" (consultation) शब्द की व्याख्या के माध्यम से स्थापित हुई है।

वर्तमान में पांच सदस्यीय कॉलेजियम - जिसमें सीजेआई गवई के साथ न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना शामिल हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में दो पद खाली हैं, और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की 24 मई को सेवानिवृत्ति के बाद यह संख्या घटकर 31 रह जाएगी, जबकि सुप्रीम कोर्ट की स्वीकृत क्षमता 34 न्यायाधीशों की है।

  • संवैधानिक आधार:

    • अनुच्छेद 124(2) के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) और अन्य आवश्यक न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है।

    • अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए समान प्रक्रिया का उल्लेख है, जिसमें सीजेआई, राज्य के राज्यपाल और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श शामिल है।

    • सर्वोच्च न्यायालय ने "परामर्श" को "सहमति" (concurrence) के रूप में व्याख्या करके कॉलेजियम प्रणाली को जन्म दिया।

न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकास:

  • प्रथम जज मामले (एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ, 1981): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि "परामर्श" का अर्थ "सहमति" नहीं है, जिससे कार्यपालिका (राष्ट्रपति, जो मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है) को नियुक्तियों में प्राथमिकता मिली। इससे न्यायिक स्वतंत्रता पर कार्यपालिका के हस्तक्षेप की आशंका बढ़ी।

  • द्वितीय जज मामले (सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रेकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 1993): नौ जजों की पीठ ने 1981 के निर्णय को पलट दिया और "परामर्श" को "सहमति" के रूप में पुनर्व्याख्या की। सीजेआई को प्राथमिकता दी गई, और कॉलेजियम प्रणाली को औपचारिक रूप दिया गया, जिसमें सीजेआई और सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल थे। इसने न्यायिक स्वतंत्रता पर जोर दिया और कार्यपालिका के हस्तक्षेप को रोकने के लिए न्यायपालिका को अंतिम निर्णय का अधिकार दिया।

  • तृतीय जज मामले (1998): अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति के संदर्भ के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम को विस्तारित किया, जिसमें सीजेआई और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय की नियुक्तियों के लिए और सीजेआई के साथ दो वरिष्ठतम न्यायाधीश उच्च न्यायालयों की नियुक्तियों के लिए शामिल किए गए। यह भी अनिवार्य किया गया कि सीजेआई की सिफारिश कॉलेजियम के भीतर आम सहमति को दर्शाए, और यदि दो न्यायाधीश असहमत हों, तो सिफारिश आगे नहीं बढ़ेगी।

  • चतुर्थ जज मामले (2015): सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संवैधानिक संशोधन और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम, 2014 को 4:1 के बहुमत से असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डालता था। एनजेएसी में सीजेआई, दो वरिष्ठ सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो प्रख्यात व्यक्ति शामिल थे। इसे कार्यपालिका को अत्यधिक प्रभाव देने वाला माना गया। कॉलेजियम प्रणाली को बहाल किया गया, और प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने के लिए प्रक्रिया ज्ञापन (एमओपी) में सुधार की मांग की गई।

कैसे काम करती है प्रणाली

  1. सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम, जिसमें सीजेआई और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल हैं, सर्वोच्च न्यायालय के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करता है।

  2. उच्च न्यायालयों के लिए, प्रक्रिया उच्च न्यायालय कॉलेजियम (मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश) से शुरू होती है, जो सिफारिशें सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम को भेजता है।

  3. सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम उम्मीदवार के मूल उच्च न्यायालय से वरिष्ठतम सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश के परामर्श के बाद सिफारिशों को अंतिम रूप देता है।

  4. सरकार आपत्तियां उठा सकती है, लेकिन यदि कॉलेजियम अपनी सिफारिश को दोहराता है, तो सरकार नियुक्ति करने के लिए बाध्य होती है, हालांकि इसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है।

प्रक्रिया ज्ञापन (एमओपी): Memorandum of Procedure

एमओपी नियुक्ति प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जिसमें कॉलेजियम सदस्यों की लिखित राय और उम्मीदवार के उच्च न्यायालय से परिचित वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ परामर्श शामिल है। हालांकि, एमओपी में पारदर्शिता की कमी है, क्योंकि चयन या अस्वीकृति के कारण सार्वजनिक नहीं किए जाते, और न ही कोई आधिकारिक सचिवालय या पात्रता के लिए निश्चित मानदंड (संवैधानिक आवश्यकताओं जैसे नागरिकता, पांच साल तक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या दस साल तक अधिवक्ता के अनुभव को छोड़कर) हैं।

कॉलेजियम प्रणाली का विरोध क्यों

बहुजन समुदाय, जिसमें एससी, एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं, कॉलेजियम प्रणाली की इसकी गैर-समावेशी प्रकृति और उच्च जातियों के वर्चस्व को कायम रखने के लिए आलोचना करते हैं। उनका विरोध प्रणाली की संरचनात्मक खामियों पर आधारित है, जो सामाजिक न्याय और समान प्रतिनिधित्व को बाधित करती हैं।

अम्बेडकरवादी चिन्तक प्रो लक्ष्मण यादव कहते हैं, " कॉलेजियम पर बात हो, क्योंकि इस देश का बहुजन पहले से ही ये सवाल करता रहा है कि कॉलेजियम और आरक्षण न होने से नब्बे फ़ीसद बहुजन अवाम के बीच के जज नहीं बन पाते।" मई 2020 में अपने ट्विटर पोस्ट में वरिष्ठ पत्रकार प्रो दिलीप मंडल लिखते हैं, " कोलेजियम सिस्टम दुनिया में सिर्फ भारत में है, जिसमें जजों का एक समूह आपस में मिलकर जज चुनता है. ये भाई-भतीजावाद और जातिवाद को बढ़ा रहा है और इससे कम काबिल लोग जज बन रहे हैं. इसे हटाने का दारोमदार संसद का है. लेकिन उसके लिए जनमत बनना चाहिए."

  1. बहुजन समुदायों का अल्प-प्रतिनिधित्व:

    • आंकड़े: केंद्रीय कानून मंत्रालय (2018–2022) के आंकड़ों के अनुसार, 537 उच्च न्यायालय नियुक्तियों में से 79% (424) सामान्य (उच्च जाति) श्रेणी से थे, जबकि केवल 11% (57) ओबीसी, 2.8% (15) एससी, और 1.3% (7) एसटी से थे। सर्वोच्च न्यायालय में प्रतिनिधित्व और भी असंतुलित है। 2019 के बाद से केवल दो दलित न्यायाधीश—न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और सी.टी. रविकुमार—नियुक्त किए गए, जो कोर्ट की ताकत का केवल 12.1% हैं, जबकि एससी और ओबीसी भारत की जनसंख्या का 60.53% (2007 राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन) हैं।

    • ऐतिहासिक संदर्भ: सर्वोच्च न्यायालय में ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण और उच्च जातियों का वर्चस्व रहा है। 1980 में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने इतिहासकार जॉर्ज गैडबॉयस को बताया कि “सर्वोच्च न्यायालय मुख्य रूप से ब्राह्मण और उच्च वर्ग का था।” 1980 से 2010 तक आमतौर पर कम से कम एक दलित न्यायाधीश मौजूद था, लेकिन यह निरंतरता टूटी है। 2017 में न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की सेवानिवृत्ति के बाद कोई सिख न्यायाधीश नहीं है, और बौद्ध प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है। हाल में CJI बने जस्टिस बी आर गवई पहले बौध न्यायधीश हैं।

    • सामाजिक न्याय पर प्रभाव: बहुजन तर्क देते हैं कि न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व की कमी सामाजिक न्याय नीतियों को कमजोर करती है। उच्च न्यायपालिका को अक्सर सकारात्मक कार्रवाई (reservation) के खिलाफ फैसलों के लिए आलोचित किया जाता है, जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय का यह रुख कि “आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है।” इससे यह धारणा मजबूत हुई है कि उच्च जाति-प्रधान न्यायपालिका हाशिए पर पड़े समुदायों की जरूरतों के प्रति कम संवेदनशील है।

  2. पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी:

    • कॉलेजियम प्रणाली बंद कमरों में संचालित होती है, जिसमें चयन मानदंड, बैठक के विवरण, या उम्मीदवारों को स्वीकार/अस्वीकार करने के कारण सार्वजनिक नहीं किए जाते। इस गोपनीयता से भाई-भतीजावाद और पक्षपात के आरोप लगते हैं, जो बहुजनों का मानना है कि उच्च जाति के उम्मीदवारों को, जिनके मौजूदा न्यायाधीशों के साथ पारिवारिक या पेशेवर संबंध हैं, अनुचित लाभ देता है। उदाहरण के लिए, अधिवक्ता मैथ्यू जे. नेदुमपारा ने 2015 में दावा किया कि लगभग 50% उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और 33% सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कानूनी हस्तियों के परिवार के सदस्य थे, जिससे “चाचा जज सिंड्रोम” (uncle judge syndrome) को बल मिला।

    • विविधता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत तंत्र की अनुपस्थिति इस समस्या को और बढ़ाती है। अन्य क्षेत्रों में जहां आरक्षण नीतियां समावेशिता को बढ़ावा देती हैं, वहीं न्यायिक नियुक्तियों में ऐसी नीतियों का अभाव है, क्योंकि सरकार केवल कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित उम्मीदवारों को नियुक्त करती है।

  3. भाई-भतीजावाद और जातिगत पक्षपात:

    • कॉलेजियम प्रणाली पर स्पष्ट योग्यता-आधारित मानदंडों के बिना व्यक्तिपरक मूल्यांकन पर निर्भरता के कारण “जातिगत पक्षपात” को बढ़ावा देने का आरोप है। पूर्व मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने 2022 में उल्लेख किया कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुख्य रूप से 250–300 परिवारों से आए हैं, जिनमें एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य है। 2009 में विधि आयोग ने कॉलेजियम के निर्णयों में भाई-भतीजावाद और राजनीतिक विशेषाधिकार को उजागर किया, जिसने बहुजन समुदायों को और अलग-थलग कर दिया।

    • विशिष्ट मामलों में विविधता की कमी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाले कॉलेजियम (नवंबर 2022–नवंबर 2024) ने 184 न्यायाधीशों की सिफारिश की, लेकिन 17 सर्वोच्च न्यायालय सिफारिशों में कोई महिला नहीं थी, और 168 उच्च न्यायालय सिफारिशों में केवल 27 महिलाएं थीं। हाशिए पर पड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व भी इसी तरह कम रहा।

  4. प्रस्तावित सुधारों की विफलता:

    • 2014 में कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए लाया गया राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कुछ बहुजन कार्यकर्ताओं द्वारा कार्यपालिका की भागीदारी के माध्यम से अधिक समावेशिता की संभावना के रूप में देखा गया था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया, यह तर्क देते हुए कि यह न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डालता है। बहुजनों का मानना है कि सुधारों के प्रति न्यायपालिका का प्रतिरोध बहिष्करणकारी प्रथाओं को कायम रखता है।

    • एमओपी में सुधार के प्रस्ताव, जैसे विविधता मानदंड शामिल करना या कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों को निर्णय लेने में शामिल करना, लागू नहीं किए गए हैं। 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद सरकार द्वारा संशोधित एमओपी को अपनाने में विफलता ने प्रगति को और रोक दिया है।

  5. संवैधानिक और संरचनात्मक बाधाएं:

    • बहुजन कार्यकर्ता तर्क देते हैं कि केवल कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त करना, जैसा कि कुछ प्रस्तावित करते हैं, प्रतिनिधित्व में वृद्धि की गारंटी नहीं देगा। कॉलेजियम से पहले का युग (1993 से पहले) में भी बहुजन प्रतिनिधित्व में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखा, जैसा कि करिया मुंडा समिति के विश्लेषण से पता चलता है, जिसमें न्यायिक नियुक्तियों में एससी और एसटी का लगातार कम प्रतिनिधित्व पाया गया। संजय वर्मा एक पोस्ट में लिखते हैं, " कोलेजियम प्रणाली, जिसमें न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, पारदर्शिता और सामाजिक विविधता के लिहाज से बार-बार आलोचना का विषय रही है। कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता लाना और सामाजिक आधार पर प्रतिनिधित्व को एक चयन मानदंड बनाना आवश्यक है।"

    • अनुच्छेद 312 के तहत अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (एआईजेएस) की मांग को भी संदेह के साथ देखा जाता है। रिपोर्ट्स के अनुसार, प्रस्तावित एआईजेएस ढांचा आरक्षण को 25% तक सीमित कर सकता है, जो अन्य क्षेत्रों में मौजूदा आरक्षण नीतियों की तुलना में बहुजन उम्मीदवारों के लिए अवसरों को कम कर सकता है।

3 नए न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश

26 मई 2025 को CJI बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने सर्वोच्च न्यायालय में तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को सिफारिशें भेजीं। सिफारिश किए गए नाम हैं:

  • जस्टिस एन.वी. अंजारिया: कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश। नवंबर 2011 में गुजरात उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश बने, सितंबर 2023 में स्थायी न्यायाधीश नियुक्त हुए, और 25 फरवरी 2024 को कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने।

  • जस्टिस विजय बिश्नोई: गौहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश। जनवरी 2013 में राजस्थान उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश और जनवरी 2015 में स्थायी न्यायाधीश बने।

  • जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर: बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश। जून 2013 में अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत हुए।

स्रोत:

1. भारत का संविधान, अनुच्छेद 124 और 217

2. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:

- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ, 1981 (प्रथम जज मामला)।

- सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रेकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 1993 (द्वितीय जज मामला)।

- विशेष संदर्भ संख्या 1, 1998 (तृतीय जज मामला)।

- सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रेकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 2015 (चतुर्थ जज मामला)

3. केंद्रीय कानून मंत्रालय, न्यायिक नियुक्तियों पर आंकड़े (2018–2022)

4. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO), 2007 जनसंख्या आंकड़े।

5. विधि आयोग की 230वीं रिपोर्ट, 2009

6. जॉर्ज गैडबॉयस, "जजेस ऑफ द सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया: 1950–1989"

7. करिया मुंडा समिति रिपोर्ट, न्यायिक नियुक्तियों में प्रतिनिधित्व पर विश्लेषण

8 . सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट, कॉलेजियम सदस्यों और नियुक्ति प्रक्रिया पर जानकारी (27 मई 2025 तक)।