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2 अक्टूबर विशेष: गांधी-आंबेडकर की टकराती सोच – जानिए किन विचारों पर नहीं हो पाई कभी सहमति?

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन महान नेताओं के विचारों और संघर्षों से भरा हुआ है। इनमें महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव आंबेडकर दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। गांधी जी ने सत्य और अहिंसा से आज़ादी की राह दिखाई। वहीं डॉ. आंबेडकर ने समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। दोनों का उद्देश्य भारत को बेहतर बनाना था, लेकिन कई मुद्दों पर उनकी सोच अलग थी। इसी कारण कई बार असहमति भी देखने को मिली।

गांधी जी को “राष्ट्रपिता” के रूप में याद किया जाता है। वहीं डॉ. आंबेडकर को “भारतीय संविधान के निर्माता” और दलित समाज की आवाज़ माना जाता है। उनके बीच असहमति सिर्फ निजी मतभेद नहीं थी। यह मतभेद समाज की व्यवस्था, सामाजिक न्याय और राजनीतिक अधिकारों से जुड़ा हुआ था। आज 2 अक्टूबर को, जब हम गांधी जयंती मना रहे हैं, यह जानना ज़रूरी है कि किन विचारों पर डॉ. आंबेडकर गांधी जी से सहमत नहीं थे।

जाति व्यवस्था पर मतभेद

गांधी जी हिंदू समाज की बुनियादी एकता में विश्वास रखते थे। वे मानते थे कि हिंदू धर्म में सुधार करके अस्पृश्यता और भेदभाव को मिटाया जा सकता है। गांधी जी ने हरिजन आंदोलन शुरू किया और कहा कि अस्पृश्य भी भगवान के बच्चे हैं।

लेकिन डॉ. आंबेडकर इस सोच से संतुष्ट नहीं थे। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की जड़ में है। सुधारों से इसे बदला नहीं जा सकता। आंबेडकर चाहते थे कि दलितों को जाति आधारित व्यवस्था से पूरी तरह आज़ादी मिले। उनके अनुसार, सिर्फ "हरिजन" कह देने से समस्या हल नहीं होगी। दलित वर्ग को बराबर अधिकार और सामाजिक न्याय चाहिए।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि जाति व्यवस्था को खत्म करना ही समाधान है। जबकि गांधी जी सुधार और भाईचारे पर अधिक जोर देते रहे। यही एक बड़ा कारण था कि दोनों की राहें अलग दिखती थीं।

धर्म और समाज सुधार पर असहमति

गांधी जी ने धर्म के रास्ते से समाज में बदलाव लाने की कोशिश की। उनके लिए हिंदू धर्म परंपरा और आस्था का विषय था। वे गीता और रामायण के संदेशों को लोगों तक ले जाते थे। उनका विश्वास था कि नैतिकता और सदाचार ही समाज को सुधार सकते हैं।

डॉ. आंबेडकर इस सोच से अलग थे। वे तर्क और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देते थे। उनके अनुसार, धर्म तब तक उपयोगी है जब तक वह बराबरी और आज़ादी के लिए काम करे। यदि धर्म शोषण और भेदभाव बढ़ाए तो उसे छोड़ देना चाहिए। इसी कारण उन्होंने अंत में बौद्ध धर्म स्वीकार किया।

यहां स्पष्ट है कि गांधी जी धार्मिक सुधार के पक्षधर थे, जबकि आंबेडकर धार्मिक रूप से अलग राह अपनाने में विश्वास रखते थे।

अस्पृश्यता और हरिजन शब्द

गांधी जी ने दलित समाज को "हरिजन" यानी भगवान का जन कहना शुरू किया। उनकी मंशा सम्मान देने की थी। लेकिन डॉ. आंबेडकर इसे वास्तविक समाधान नहीं मानते थे।
उनका कहना था कि यह सिर्फ नाम बदलने से समस्या हल नहीं होगी। दलितों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता चाहिए।

आंबेडकर चाहते थे कि दलितों का पहचान का अधिकार उनके अपने हाथों में हो। वे "हरिजन" शब्द को एक तरह से संरक्षणवादी दृष्टिकोण मानते थे। यह भेदभाव मिटाने की बजाय दया दिखाने जैसा लगता था। इसी सोच पर दोनों के बीच गहरी असहमति रही।

राजनीतिक अधिकार और पृथक निर्वाचिका

गांधी जी और डॉ. आंबेडकर का सबसे बड़ा टकराव 1932 के समय हुआ। यह पूना पैक्ट के रूप में प्रसिद्ध है। ब्रिटिश सरकार ने दलितों को अलग निर्वाचिका देने का प्रस्ताव रखा था। यानी दलित वर्ग अपने प्रतिनिधि खुद चुन सके।

आंबेडकर इस फैसले के पक्ष में थे। उनका मानना था कि अलग प्रतिनिधित्व से दलितों की आवाज़ राजनीति में सुनी जाएगी। लेकिन गांधी जी इस निर्णय के खिलाफ थे। उन्हें लगा कि इससे हिंदू समाज बंट जाएगा। इसी विरोध में गांधी जी अनशन पर बैठ गए।

बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ। पूना पैक्ट के तहत दलितों को आरक्षित सीटें दी गईं, लेकिन अलग निर्वाचिका नहीं मिली। डॉ. आंबेडकर इस समझौते से खुश नहीं थे, परंतु मजबूरी में इसे स्वीकार करना पड़ा। यह घटना दोनों नेताओं के मतभेदों को गहरा कर गई।

आर्थिक दृष्टिकोण पर अंतर

गांधी जी सादगी और ग्राम स्वराज पर विश्वास रखते थे। उनका कहना था कि गांव आत्मनिर्भर होंगे तो देश मजबूत होगा। वे बड़े उद्योगों का समर्थन नहीं करते थे।

डॉ. आंबेडकर की सोच बिल्कुल अलग थी। वे मानते थे कि आधुनिक उद्योग और शहरीकरण से ही समाज का विकास होगा। उनके अनुसार, गांवों में सिर्फ जाति-आधारित शोषण और पिछड़ेपन की जड़ें मजबूत होती हैं। इसलिए उन्होंने उद्योग, शिक्षा और शहरी ढांचे पर जोर दिया।

इस तरह दोनों का आर्थिक दृष्टिकोण भी अलग था।

शिक्षा के महत्व पर अंतर

गांधी जी चरखा, हस्तशिल्प और व्यावसायिक शिक्षा को महत्व देते थे। उनका विश्वास था कि ग्रामीण कारीगरी और श्रम से ही आत्मनिर्भर समाज बनेगा।

आंबेडकर का मानना था कि दलितों और पिछड़े वर्ग को समाज में बराबरी दिलाने के लिए उच्च शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है। उन्होंने कहा था कि “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।” वे चाहते थे कि गरीब और दबे-कुचले लोग आधुनिक शिक्षा से ऊपर उठें।

यहां भी दोनों की दृष्टि में बड़ा फर्क था।

अहिंसा बनाम संघर्ष

गांधी जी की पूरी राजनीति अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित थी। वे मानते थे कि नैतिक शक्ति से ही अन्याय करने वालों को बदला जा सकता है।

लेकिन आंबेडकर की सोच यथार्थवादी थी। वे मानते थे कि दमन और शोषण को सिर्फ अहिंसा से खत्म करना मुश्किल है। अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष जरूरी है। इसलिए आंबेडकर ने सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन बनाए।

यह अंतर उनके दृष्टिकोण में साफ झलकता है।

समानता की परिभाषा पर मतभेद

गांधी जी का लक्ष्य समाज में सौहार्द्र और भाईचारा स्थापित करना था। वे स्पर्शमुक्ति को ही बड़ी उपलब्धि मानते थे।

आंबेडकर के लिए असली समानता का मतलब था – शिक्षा, रोजगार और राजनीति में बराबर की हिस्सेदारी। वे तभी संतुष्ट होते जब दलित समाज को हक और अवसर मिलते। सिर्फ भाईचारा दिखाने से यह उद्देश्य पूरा नहीं होता।

असहमतियों का नतीजा क्या निकला?

महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के बीच असहमति कई मुद्दों पर रही। लेकिन यह असहमति भारत के लिए हानिकारक नहीं थी। बल्कि इससे लोकतंत्र मजबूत हुआ। गांधी जी ने अहिंसा, नैतिकता और सुधार की राह दिखाई। वहीं डॉ. आंबेडकर ने अधिकार, समानता और न्याय की लड़ाई लड़ी।

आज स्वतंत्र भारत इन्हीं दोनों की वजह से एक संतुलित ढांचे पर खड़ा है। एक तरफ गांधी जी की आध्यात्मिक और नैतिक विचारधारा, दूसरी तरफ आंबेडकर का तर्क और न्याय पर आधारित दृष्टिकोण। दोनों का योगदान भारतीय समाज के लिए अमूल्य है।

2 अक्टूबर पर गांधी जी को याद करते हुए, हमें यह भी समझना होगा कि डॉ. आंबेडकर जैसे महापुरुष ने किन कमजोरियों की ओर हमें ध्यान दिलाया। असहमति ही लोकतंत्र की असली ताकत है। गांधी और आंबेडकर की यही विरासत हमें सिखाती है कि अलग सोच के बावजूद, राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए।

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