नई दिल्लीः देश के पहले दलित क्रिकेटर पालवंकर बालू एक बार फिर चर्चा में है। फिल्म निर्माता प्रीति सिन्हा ने पालवंकर के जीवन पर बायोपिक बनाने की घोषणा कर उनको चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। मशहूर अभिनेता अजय देवगन हाशिए के समाज से आने वाले क्रिकेटर को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे।
सिन्हा ने गत 29 मई 2024 को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स, जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था, के माध्यम से इस खबर की घोषणा की है।
Thank you @Ram_Guha Sir for entrusting us with the rights We hope to do full justice to your Book and the Baloo Palwankar story @ajaydevgn @dirtigmanshu @pritisinha333 https://t.co/bOcUJDX2VJ
— Priti Sinha (@pritisinha333) May 30, 2024
अपने पोस्ट में, प्रीति सिन्हा ने खुलासा किया कि यह प्रोजेक्ट उनके, देवगन और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया के बीच एक सहयोग है। उन्होंने इस ऐतिहासिक शख्सियत की कहानी को साझा करने की अपनी प्रतिबद्धता पर प्रकाश डालते हुए लिखा, ‘हम रामचंद्र गुहा सर की किताब ;ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड' पर आधारित पालवंकर बालू की कहानी का निर्माण कर रहे हैं।’
यह फिल्म इतिहासकार रामचंद्र गुहा के काम से प्रेरित है। इसका लक्ष्य 2023 के अंत तक प्रोडक्शन शुरू करना है। गुहा की पुस्तक पालवंकर बालू के जीवन और एक दलित क्रिकेटर के रूप में उनके सामने आने वाली महत्वपूर्ण चुनौतियों का गहन अन्वेषण प्रस्तुत करती है। पालवंकर बालू ने अपने करियर की शुरुआत पुणे के एक क्रिकेट क्लब में ग्राउंड्सकीपर के रूप में की। हालांकि, उनकी उल्लेखनीय प्रतिभा जल्द ही चमक गई, जिससे 1896 में प्रतिष्ठित हिंदू जिमखाना टीम के लिए उनका चयन हो गया, जिससे एक उल्लेखनीय क्रिकेट करियर की शुरुआत हुई।
Despite his monumental contributions, Baloo received no national awards, recognition,or financial benefits...
— Abhishek AB (@ABsay_ek) May 27, 2024
He was brought into the public eye by Ramachandra Guha through his acclaimed book "A Corner of a Foreign Field."
But still his contribution went unnoticed by many.
21/n pic.twitter.com/xUHNnpdSxk
चलिए जानते है पालवंकर बालू के बारें में...
1876 में पूना में पैदा हुए पालवंकर बालू अंग्रेजी सैनिकों को क्रिकेट खेलते देखते हुए बड़े हुए थे। पूना की हथियार फैक्ट्री में उनके पिता काम करते थे और छोटे बालू वहीं मैदान के पास बैठ़ जाते और अपने पास आती गेंदों को उठाकर वापस मैदान में फेंक देते थे, कूड़े में डली गेंदों को उठाकर वह घर ले आते और अपने छोटे भाई शिवराम के साथ घर में खेलने की कोशिश करते।

दोनों भाई कुछ बड़े हुए तो पिता ने परिवार की आय बढ़ाने के लिए इनकी पढ़ाई छुड़वा दी। बालू ने पारसियों द्वारा चलाए जाने वाले क्रिकेट क्लब में नौकरी करनी शुरू कर दी। यहां वो पिच की सफाई और मरम्मत का काम करते थे। कभी-कभी नेट पर प्रैक्टिस करने वाले खिलाड़ियों को बॉलिंग भी कर देते थे। यहां उन्हें हर महीने तीन रुपए मिलते थे।
साल 1892 में पालवंकर बालू ने पारसियों का क्रिकेट क्लब छोड़ दिया। नौकरी पकड़ी अंग्रेजों के पूना क्रिकेट क्लब में। पूना क्लब में उनकी सैलरी थी 4 रुपए महीना। यहां उनका काम था पिच की मरम्मत करना, उसपर निशान लगाना और प्रैक्टिस के लिए नेट खड़ा करना। उसी समय एक दिन क्लब में कोई गेंदबाज मौजूद नहीं था और ब्रिटिश बल्लेबाज मिस्टर ट्रॉस को प्रैक्टिस करनी थी। उन्होंने मैदान के बाहर खड़े बालू को पास बुलाया और गेंदबाजी करने को कहा। बालू ने उन्हें छह बॉल्स डालीं, इनमें तीन गेंदें ट्रॉस को बल्ले से छुआनी मुश्किल पड़ गईं और दो पर उनके स्टंप उखड़ गए. महज एक बॉल वो सही से बल्ले से मार पाए।
बालू की लहराती गेंदों के सामने अंग्रेज बल्लेबाज को अपने स्टंप बचाने मुश्किल हो गए, अगले दिन पूरी टीम की जुबान पर बालू का ही नाम था। टीम ने उन्हें नियमित प्रैक्टिस गेंदबाज के तौर पर मान्यता दे दी। इस दौरान उन्होंने मशहूर ब्रिटिश तेज गेंदबाज बार्टन को अपना गुरू बना लिया और उनसे गुर सीख कर अपनी गेंदबाजी में और धार लाई।
जब सबसे बड़े खिलाड़ी ने कहा आउट करोगे तो पैसा पाओगे
इसी दौरान भारत में चर्चित अंग्रेज बल्लेबाज जेजी ग्रेग पूना पहुंचे। कई शतक इनके नाम थे. उन्होंने बालू का नाम सुन रखा था। उन्होंने बालू से कहा कि वो जितनी बार उन्हें नेट प्रैक्टिस में आउट करेंगे, उन्हें हर बार आठ-आने मिलेंगे। अगर बालू, ग्रेग को हफ्ते में एक बार भी आउट कर लेते तो महीने में उनकी सैलरी डबल हो जाती थी।

बालू ने पूना क्लब में घंटों नेट पर गेंदबाजी की, लेकिन अंग्रेजों ने कभी उन्हें बल्ला नहीं पकड़ने दिया। क्योंकि इंग्लैंड की तरह ही भारत में भी बल्लेबाजी केवल कुलीन वर्ग के लोग ही करते थे। जबकि बालू एक दलित थे। हालांकि, सैकड़ों घंटे नामी बल्लेबाजों के सामने गेंदबाजी करने से उनकी गेंद जबरदस्त उछाल लेने लगी थी, उनकी स्पिन गेंदबाजी में अलग ही धार आ गई थी।
पूना में ही उस समय एक हिंदू क्लब था, जो शहर में यूरोपियों के खिलाफ मैच खेलता था। बालू की चर्चा इस क्लब तक भी पहुंची। इस क्लब को उस समय एक अच्छे गेंदबाज की जरूरत थी, ऐसे में हिन्दू क्लब की नजर पालवंकर बालू पर पड़ी। लेकिन बालू तो एक दलित थे, और हिन्दू क्लब की टीम में सारे ऊंची जाति के लोग थे। अब ऐसे में एक दलित के साथ कैसे खेला जाए, सवाल यह था, और इस सवाल पर क्रिकेट क्लब दो गुटों में बंट गया। लेकिन अंत में बालू को टीम में शामिल कर लिया गया।
बालू के साथ टीम का व्यवहार कैसा होता था?
बालू को टीम में शामिल तो किया गया था, लेकिन उनके साथ व्यवहार बहुत गलत हो रहा था। मैदान पर सभी खिलाड़ी उसी गेंद को छूते, जिसे बालू छूते, लेकिन मैदान के बाहर ऊंची जाति के खिलाड़ी उनके साथ छुआ-छूत के धार्मिक रिवाजों का पालन करते। टी- टाइम के समय बालू को पवेलियन के बाहर चाय दी जाती, जबकि बाकी खिलाड़ी पवेलियन में बैठ़कर कपों में चाय का आंनद लेते थे। ग्राउंड पर बालू को हाथ मुंह धोना होता तो एक अछूत नौकर पानी ले जाकर, एक कोने में उनके हाथ-मुंह धुलवाता। बालू खाना भी अलग टेबल पर करते।

1911 में भारत की टीम इंग्लैंड जानी थी। इस साल पहली बार इंग्लैंड एक ऐसी टीम भेजी गयी जिसमें पारसियों के साथ-साथ हिन्दू भी थे लेकिन टीम में गुटबाजी होने के चलते टीम लगातार मैच हारती रही। मान्यता प्राप्त अंग्रेजी काउंटी टीमों के खिलाफ टीम ने 14 मैच खेले। टीम इनमें से केवल दो मैच जीत पाई, दो ड्रॉ रहे। लेकिन, इस भारतीय टीम में एक खिलाड़ी ऐसा था जिसका इस दौरान खूब जलवा रहा। ये था एक गेंदबाज, जब ये गेंदबाजी करने आता तो इंग्लिश टीम इसका सामना न कर पाती। कहर ढ़ाती गेंदें, तीर जैसी निकलतीं। गेंद हवा में किधर मुड़ेंगी, बल्लेबाज को समझ न आता। एक दौरे पर 114 विकेट लेकर उन्होंने जो रिकॉर्ड बनाया वो अभी तक नहीं टूटा है, लेकिन अकेला चना कैसे भाड़ फोड़ता, इसलिए टीम हार गई।
कुल मिलाकर 15 सितंबर 1911 को जब पालवंकर बालू इंग्लैंड से वापस आए तो उनका भारत में भव्य स्वागत किया गया। अब तक क्रिकेट के मैदान पर अपने असाधारण प्रदर्शन से बालू अनगिनत अछूतों के नायक और उनकी प्रेरणा बन चुके थे। उनमें से एक 20 साल के भीम राव अम्बेडकर भी थे। बताते हैं कि इंग्लैंड से लौटने पर एक सम्मान समारोह में पालवंकर बालू को जो सम्मान पत्र दिया गया उसके लेखक अम्बेडकर ही थे।