दलित हिस्ट्री मंथ: पेरियार ने 15 अगस्त को क्यों कहा था ‘ब्रिटिश-बनिया-ब्राह्मण संविदा दिवस?

03:28 PM Apr 01, 2025 | Rajan Chaudhary

दक्षिण भारत के प्रसिद्द समाज सुधारक व दलित चिन्तक पेरियार ई.वी. रामासामी का मानना था कि 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी ने दलित, शोषित व वंचित समाज को मिलने वाले आरक्षण को ख़त्म कर दिया. इससे वह काफी नाराज भी थे. 

बीते कई सालों में बेस्टसेलर्स रही पेरियार की किताब — जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता, के अनुसार, सन 1935 में पेरियार ने तत्कालीन सरकार से अपील की कि वह राज्य सरकार की संस्थाओं की तरह मद्रास प्रेसिडेंसी में स्थित केन्द्र सरकार की सभी संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था लागू करें. 

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इस व्यवस्था के अंतर्गत 14 प्रतिशत पद ब्राह्मणों के लिए, 44 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों के लिए व 14 प्रतिशत दलितों के लिए अरक्षित किये जाते थे. तत्कालीन मद्रास (अब तमिल नाडु) के मुख्यमंत्री राजा सर बोबली ने इस अपील को केन्द्र सरकार को अग्रेषित कर दिया. 

पेरियार और राजा सर बोबली के सघन प्रयासों से केन्द्र सरकार की संस्थाओं में 72 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया. यह ऐतिहासिक सरकारी आदेश देश में ब्रिटिश शासन समाप्त होने तक लागू रहा. लेकिन, भारत के ‘स्वतंत्र’ होने के कुछ ही समय बाद, भारत के ब्राह्मणवादी प्रशासकों ने इस आदेश को वापस ले लिया. 

पेरियार ने पहले ही यह भविष्यवाणी की थी कि ऐसा होगा. उन्होंने ‘विदुथलई’ नामक दैनिक समाचार-पत्र में दो लेख लिखे थे. एक का शीर्षक था— ‘15 अगस्त: वर्णाश्रम शासन के नए युग का उदय’ व दूसरे का था — ‘15 अगस्त: ब्रिटिश-बनिया-ब्राह्मण- संविदा (गठजोड़) दिवस’. 

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पहल संविधान संशोधन और ओबीसी आरक्षण

यह बात सन 1950 की है, जब एक ब्राह्मण महिला शेनबागुम दुरईसामी को एक चिकित्सा महाविद्यालय में इसलिए प्रवेश नहीं दिया गया, क्योंकि वह निर्धारित आयु-सीमा पार कर चुकी थी. दुरईसामी ने इसके लिए आरक्षण को दोषी ठहराते हुए मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके आरक्षण की व्यवस्था को रद्द करने की मांग की. 

इसी वर्ष 28 जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया. बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया. इस तरह आरक्षण की व्यवस्था अचानक समाप्त हो गई. यह महत्वपूर्ण है कि शेनबागुम के वकील कृष्णास्वामी अय्यर थे, जो कि संविधान सभा के सदस्य रह चुके थे. 

मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के एक सप्ताह के भीतर, 6 अगस्त, 1950 को पेरियार ने मद्रास राज्य के लोगों से यह अपील की कि वे अपने अधिकारों को फिर से पाने के लिए संघर्ष शुरू करें. पूरे प्रदेश में विरोध-प्रदर्शन हुए. पेरियार ने 14 अगस्त, 1950 को आम हड़ताल का आह्वान किया उर वह जबरदस्त सफल रही. 

उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल से अनुरोध किया कि आरक्षण के अधिकार की पुनर्स्थापना की जाए. सरकार ने उनकी अपील पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध) में संशोधन किया. 

अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि, ‘राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.’ 

अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार, ‘राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा.’

अनुच्छेद 15 में खंड (4) जोड़ा गया, जो कहता है कि ‘इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी.’

इस तरह पेरियार ने आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के षड़यंत्र को विफल करके इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था करवा दी. अगर 30 शब्दों का यह खंड संविधान में नहीं जोड़ा गया होता, तो तमिलों की कई पीढ़ियां शिक्षा से वंचित रह जातीं और शेष भारत को रास्ता दिखाने वाला कोई राज्य न होता और न ही सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान हो पाता. पेरियार के कारण ही अब भारत के पिछड़े वर्गों की आने वाली पीड़ियाँ शिक्षा से वंचित नहीं रहेंगी.